कोरोना के प्रभाव ने हमें अकस्मात् ही ‘डिजिटल’ की राह पर धकेल दिया है और जिसका वर्तमान में कोई और विकल्प भी दिखाई नहीं देता. ऐसे में ‘भारतीय शास्त्रीय संगीत’ जैसे आत्मीय विषय, जिसमें आमतौर पर अच्छे गाने/बजाने को तबीयत से गाने/बजाने की संज्ञा दी जाती है, जिसका वास्तविक अर्थ आत्मीय जुड़ाव से होता है, उस तबीयत पर ‘डिजिटल प्लेटफार्म’ क्या प्रभाव छोड़ रहा है, इस पर भी विचार किया जाना आवश्यक है.
ऑनलाइन शिक्षा कोई नई बात नहीं है, लेकिन भारत के संबंध में कोरोना काल में लगभग पूरी शिक्षा व्यवस्था अधूरे ज्ञान के साथ इसी पर निर्भर होती जा रही है. शास्त्रीय संगीत के क्षेत्र में भी इसका प्रचार अब ज़ोर पकड़ता दिखाई देने लगा है. तमाम सोशल मिडिया पर ऑनलाइन कक्षाएं, सर्टिफिकेट कोर्स, कार्यशालाएं, वेबिनार, व्याख्यान इत्यादि कदम रख चुके हैं. जो निजी और विश्वविद्यालय स्तर दोनों पर हो रहा है. जिनमें से कुछ निशुल्क भी हैं और कुछ फीस/टिकट आधारित भी हैं, व्यवसाय के तौर पर.
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गुरु शिष्य परंपरा, तकनीक और कमाई
लेकिन हमें यह सोचना होगा कि क्या गुरु का विकल्प तकनीक को मान लेना ‘गुरु-शिष्य’ परंपरा को हानि नहीं पहुंचाएगा. संगत वाद्यों के साथ कैसे सामंजस्य बैठाया जाता है, उस गुण तत्त्व और सांगीतिक वातावरण का क्या अर्थ रहा जाएगा, इस संदर्भ में. भौतिक संबंध स्थापित करके जिस आत्मीय भाव के साथ हम संगीत के ज्ञान को साधना के तौर पर ग्रहण करते आए हैं, क्या तकनीक उस आत्मीय सानिध्य को पूरा करने में सक्षम है? इसके बारे में सोचने की आवश्यकता है.
ऑनलाइन प्रतियोगिताओं का प्रचार भी कोरोना काल में बहुत बढ़ गया है. जिसमें ज़्यादातर प्रतिभागियों से उनकी रिकार्डिंग मंगा ली जाती है या कुछेक स्तर पर उनको लाइव (सीधा प्रसारण) के माध्यम से सुन लिया जाता है और सीमित साधनों के प्रभाव के रहते पूरे/अधूरे प्रदर्शन के आधार पर ही परिणाम घोषित कर दिया जाता है. क्या इस प्रकार की प्रतियोगिताएं प्रतिभागियों को स्पष्ट तौर पर भ्रमित पथ की ओर अग्रसर नहीं कर रही हैं? जिसमें सुविधा तो बहुत है पर सार्थकता लेष मात्र भी नहीं.
शास्त्रीय संगीत एक प्रदर्शन कला है, इसलिए कोरोना काल के चलते और उसके बाद भी कितने समय तक इनका प्रदर्शन प्रत्यक्ष रूप से नहीं हो पाएगा यह कहा नहीं जा सकता. संभवतः इसीलिए अब यह पूरी तरह से लाइव डिजिटल प्लेटफार्म के माध्यम से व्यक्तिगत, निजी संस्थाओं द्वारा, विश्वविद्यालय, सरकारी/गैर सरकारी संस्थाओं द्वारा खूब प्रसारित हो रही है.
कुछेक संस्थाएं ही हैं जहां कलाकारों की रिकार्डिंग को चलाया जाता है. बाकी सब अपने-अपने स्तर पर इसके साथ प्रयोग कर रहे हैं. एक कलाकार के तौर पर स्वयं को उसके प्रदर्शन से रोक पाना थोड़ा मुश्किल रहता है. जिसका नतीजा यह निकला की अधिकतर कलाकार बिना कुछ लिए भी अपनी कला का प्रदर्शन लाइव के माध्यम से कर रहे हैं. वहीं कुछेक संस्थाओं ने इसे व्यवसाय के तौर पर भी अपनाया है, जिसमें किसी कलाकार को सुनने के लिए टिकट रखी जाती है और उसका कुछ प्रतिशत कलाकार को दिया जाता है, जिससे इस कठिन परिस्थिति में उसकी भी आमदनी का उपाय हो सके.
शास्त्र परंपरा बनाम डिजिटल परंपरा
लेकिन वास्तविकता यहां भी अपनी जगह रखती है कि क्या इस स्तर पर शास्त्रीय संगीत की पूर्ण प्रस्तुति दी जा रही है. क्योंकि ऐसे प्रसारण जो सोशल मिडिया के माध्यम से चलाए जा रहे हैं उसमें गायक/वादक, संगत कलाकार के अभाव में इलैक्ट्राॅनिक तबले का प्रयोग कर रहे हैं. इलैक्ट्रानिक तानपुरे की भांति इलैक्ट्राॅनिक तबला किसी भी प्रकार से मैनुअल तबले का विकल्प पूर्ण प्रस्तुति के लिए नहीं हो सकता. वहीं शास्त्रीय नृत्य के प्रदर्शन में जहां 4-5 सहायक कलाकार रहते हैं उन सबका स्थान रिकार्डिंग ने ले लिया है.
तो ज़रा सोचिये कि इस प्रकार की संगीत प्रस्तुति या प्रदर्शन हमें किस भ्रम नगरी में बसा रहा है, जहां शास्त्र परंपरा स्वयं को डिजिटल परंपरा में उतारने के लिए किस स्तर तक समझौते करती चली जा रही है. क्या इस बारे में कलाकार सोच रहे हैं, यदि नहीं तो उन्हें सोचना चाहिए. क्या इस प्रकार के प्रदर्शन से भारतीय शास्त्रीय संगीत परंपरा का स्तर गिर नहीं जाएगा या फिर वह गिरने की ओर अग्रसर हो चुका है.
उपरोक्त समस्त तथ्यों में जहां शास्त्र की परंपरा प्रश्न उठा रही है, वहीं कोरोना काल में इसके एकमात्र माध्यम ‘तकनीक’ से जुड़ी अन्य समस्याएं भी सर उठाए खड़ी हैं और उनके साथ भी समझौते की नीति अपनाई जा रही है.
कोरोना के उपरोक्त प्रभावों के अतिरिक्त एक अन्य प्रभाव जो मेरी दृष्टि में इनके समतुल्य ही संवेदनशील है वह है ज़मीनी स्तर पर कलाकारों की आर्थिक स्थिति का बिगड़ना. कार्यक्रमों के आयोजन ना हो पाने के कारण कलाकार के सामने आमदनी का संकट खड़ा हो रहा है. किसी भी प्रकार के संरक्षण के अभाव में यह स्थिति विकट रूप ले चुकी है. ऐसे में भी शास्त्रीय संगीत की हानि तो हो ही रही है.
इस प्रकार भारतीय शास्त्रीय संगीत की व्यवस्था बिना लाभ/हानि की परवाह किए बगैर व्यक्तिगत और संस्थागत दोनों तौर पर लगभग पूरी तरह से डिजीटल प्लेटफार्म पर उतर चुकी है और कलाकार और कला के इच्छुक उसे अपना भी रहे हैं.
परिवर्तन प्रकृति का नियम है और उसे अपनाना मानवीय प्रवृत्ति. इसीलिए कोरोना काल में हम कला को ऐसे नहीं देख सकते जैसे कि सामान्यतः देख सकते हैं, क्योंकि वर्तमान में जीवन भी सामान्य नहीं है. लेकिन दूसरी ओर यह प्रश्न भी विचारणीय है कि यह व्यवस्था जो बिना किसी पूर्व-नियोजन के अकस्मात् ही लागू कर दी गई है इसके परिणाम क्या भारतीय शास्त्रीय संगीत के भविष्य के लिए लाभकारी हो पाएगा और यदि यही एकमात्र विकल्प है तो निश्चय ही इसके नियोजन के नियम तय होने अति आवश्यक हैं, जिससे इसके दुष्प्रभावों पर नियंत्रण लगाया जा सके.
भारत में कला मात्र मनोरंजन का साधन नहीं है बल्कि मनोपरिवर्तन का भी माध्यम है. ऐसे में जो प्रयोग कोरोना काल में इसके साथ किए जा रहे हैं वह किस दिशा में स्थापित होंगे, इसके बारे में सोचने की आवश्यकता है. कोरोना के प्रभाव से उत्पन्न ‘डिजिटल वायरस’ कहीं धीरे-धीरे भारतीय शास्त्रीय संगीत जैसी कला की तबीयत को बिगाड़ने का काम नहीं कर रहा?
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यहां प्रश्न एक कलाकार की आधारभूत मानसिकता का है जो उसे कला के प्रति अपने दायित्व के लिए प्रेरित करती है, कहीं डिजिटल की राह पर शास्त्र परंपरा बहुत पीछे नहीं छूट जाएगी? यह प्रश्न प्रत्येक कलाकार को स्वयं से करना चाहिए और यदि वह नहीं कर रहा है तो वह वास्तविकता को अनदेखा कर रहा है और भारतीय शास्त्रीय संगीत की तबीयत को बिगाड़ने की दिशा में ‘डिजिटल वायरस’ को प्रोत्साहित कर रहा है.
(लेखिका शास्त्रीय संगीत स्कॉलर है. ब्राह्मी और शारदा जैसी लिपियों को डिकोड करने में भी सक्षम हैं.यहां व्यक्त विचार उनके निजी हैं)