महामारी से बचाव के तर्क पर अचानक समूचे देश में सब कुछ बंद कर दिए जाने के बाद जो सबसे त्रासद हालात पैदा हुए, उसके सबसे बुरे शिकार लाखों गरीब-मजदूर बने जो हजारों किलोमीटर पैदल ही अपने गांव-घर की ओर चल पड़े. जब इनसे जुड़ी त्रासदी और मौत की खबरें सोशल मीडिया और समांतर वेबमीडिया के जरिए मुख्यधारा के मीडिया का भी हिस्सा बनने लगीं, तब कुछ लोगों की संवेदना भी जागने लगी. कई लोगों ने इन मजदूरों की मदद भी की, जो निस्संदेह प्रशंसनीय है.
लेकिन सवाल उठता है कि क्या व्यक्तिगत संवेदना और उससे जनित दान और परोपकार से देश के उन 10 करोड़ से ज्यादा प्रवासी मजदूरों के एक छोटे हिस्से की भी मदद हो पाएगी, जिन्हें इसकी सख्त दरकार है?
ये सही है कि अगर लोगों ने निजी स्तर पर, सड़क पर धकेल दिए गए लोगों की मदद नहीं की होती, खाना नहीं खिलाया होता, तब कैसी त्रासद तस्वीर बनती और कितने लोगों की मौत भूख से हुई होती. इस तरह की मदद के कई स्वरूप थे. किसी ने लाचार लोगों की मदद कुछ पैसों से की तो किसी ने अपने वाहन में बैठा कर लोगों को कुछ दूर का सफर कराया. निश्चित रूप से निजी स्तर पर की जाने वाली मदद की ऐसी गतिविधियां इंसानी संवेदना में हमारा विश्वास बढ़ाती हैं.
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इसी क्रम में एक बड़ी खबर यह भी सुर्खियों में रही कि नोएडा की एक बारह साल की बच्ची ने अपनी बचत के करीब साढ़े अड़तालीस हजार रुपए से तीन मजदूरों को हवाई जहाज से उनके घर भेज कर उनकी मदद की. गरीब तबकों के प्रति उपेक्षा और सामाजिक उदासीनता की आम हालत में एक बारह साल की बच्ची के भीतर ऐसा हौसला बेशक चौंकाता है, हो सकता है कि किसी के मन में यह सवाल आए कि बारह साल की बच्ची के पास करीब पचास हजार रुपए की बचत का स्रोत क्या हो सकता है, लेकिन अलग-अलग सामाजिक तबकों के बीच आर्थिक हैसियत और खर्च के स्तर अलग-अलग होते हैं. इसलिए इस सवाल का जवाब संदर्भों पर निर्भर करता है. इसके बावजूद प्रथम दृष्ट्या बच्ची की ओर से की गई मदद सबका ध्यान खींचती है.
मगर एक बेहद सकारात्मक और उम्मीद से भरा वाकया होने के बावजूद इस तरह की कवायदों ने विचार के लिए यह जगह भी बनाई है कि इस तरह की मदद मानवीय संवेदनाओं के लिहाज से कितनी राहत की बात है और दया या मेहरबानी के जरिए मूल समस्या को दूर करने में कितनी मदद मिल सकती है या फिर कहीं इस तरह की दया खुद में एक समस्या तो नहीं है!
दरअसल, भारतीय समाज में ‘दान’ को एक उदार मानवीय स्वभाव के रूप में देखा जाता रहा है. लेकिन इस ‘दान’ में कितना निस्वार्थ मदद का तत्त्व रहता है और कितना इससे वापसी की उम्मीद यह व्यक्ति के निजी मानस पर निर्भर करता है. किसी प्राकृतिक आपदा के बाद लोगों का मदद के लिए अपनी सीमा में अधिकतम करना एक स्वाभाविक तस्वीर है. हालांकि, वैसे समय में भी मुख्य जिम्मेदारी सरकार और व्यवस्था की होती है. लेकिन महामारी से बचाव की दलील पर बिना किसी तैयारी के देश भर में सब कुछ अचानक ही बंद घोषित कर देना सरकार की व्यापक लापरवाही थी और उसका खमियाजा उठाते लोगों की मदद की प्राथमिक जिम्मेदारी सरकार की ही थी.
अचानक ही रोजी-रोटी और ठिकाने से लाचार कर दिए गए तमाम लोगों का यह अधिकार था कि सरकार उनके लिए कम से कम रोजगार का विकल्प और भोजन मुहैया कराए. लेकिन आधी-अधूरी सरकारी कोशिशों के बीच निजी स्तर पर मदद की कुछ घटनाएं सुर्खियों में रहीं. जबकि देश भर में अपने संसाधनों से अपनी सीमा में लाचार बना दिए गए भूखे लोगों को खाना खिलाने से लेकर की तरह से मदद करने वालों की संख्या काफी थी. क्या यह सच नहीं है कि कुछ चुनी हुई मदद की घटनाओं को कथित मुख्यधारा के मीडिया में जोर-शोर से प्रचारित करके समूचे समाज को ऐसा ही करने का एक परोक्ष संदेश दिया जाता है. लेकिन अगर आम लोग ‘दान’ की इस परंपरा को आगे बढ़ाते हैं तो इसका सिरा कहां जाकर खत्म होगा? खासतौर पर भारतीय हिंदू समाज में दान प्राप्त करना किस सामाजिक समूह के ‘पारंपरिक अधिकार’ की तरह देखा गया गया है? तो क्या मदद के नाम पर एक रास्ते से किए गए दान के जरिए उसी ‘पारंपरिक अधिकार’ की जमीन मजबूत की जाती है!
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दूसरी ओर, एक बड़े जनसमुदाय के साथ सामाजिक वंचना की व्यवस्था में की बेईमानियों और उन्हें सभी संसाधनों से वंचित कर दिए जाने की भरपाई के दौर पर ‘गरीबों को दान’ या सच कहें तो भीख के रूप में की जाती है. यह सभी संसाधनों पर कब्जा जमा कर बैठे ‘दाता’ के लिए पुण्य कमाने और कब्जे पर पर्दा डालने का अवसर होता है और इस तरह ‘दान’ हासिल करने वाले के लिए अपने अधिकारों के बारे में सोचने के बजाय कृतज्ञ होने का.
यानी ‘दान’ और ‘दया’ की यह परंपरा जितनी महान दिखाई देती है, उससे ज्यादा यह एक जटिल मनोवैज्ञानिक समस्या को बनाए रखने का औजार है.
सवाल है कि दया या संवेदनशीलता के स्रोत से की निजी मदद क्या असीमित और अनिश्चितकाल तक जारी रह सकती है! इस तरह की सामाजिक गतिविधियां संवदेनशील और सकारात्मक होने के बावजूद राज्य को उसके दायित्वों से राहत देती हैं. राज्य के किसी फैसले से जिन करोड़ों लोगों की आजीविका छिन जाती है, उनके लिए न केवल रोजी-रोटी के वैकल्पिक इंतजाम, बल्कि मुआवजा सुनिश्चित करने की व्यवस्था सरकार को ही क्यों नहीं करनी चाहिए!
(लेखक वरिष्ठ राजनीतिक विश्लेषक हैं और यह इनके निजी विचार हैं)