विचारों की भी एक उम्र होती है लेकिन जहां तक ‘कुविचारों’ का सवाल है, वे अपनी उम्र गुजर जाने के बाद भी बने रहते हैं, शेखर गुप्ता ने कट द क्लटर की अपनी नवीनतम प्रस्तुति में इस बात को बड़ी खूबी से याद दिलाया है और, बहुत कुछ यही बात किशोरपने के वक्त में जन्मी चिन्ताओं के बारे में भी कही जा सकती है, खासकर उन लोगों के किशोरपने की चिन्ताओं के बारे में जो शीतयुद्ध के दौर की विचारधारात्मक बहसों के बीच पले-बढ़े. सार्वजनिक जीवन में इसका नतीजा हमें दो तरह के आर्थिक विचारों के रुप में देखने को मिलता है और ये दोनों ही आर्थिक विचार समान रुप से बुरे हैं. एक है पुराना-धुराना, गया-बीता समाजवादी आर्थिक विचार और इसके समर्थक, इन समर्थकों को स्टालिन के आर्थिक विचारों की याद कचोटती है और ये समर्थक उसी हूक में नौकरशाही का वैसा ही विकराल तंत्र खड़ा करना चाहते हैं जैसा सोवियत समाजवादी गणतांत्रिक संघ के रुप में सामने आया था. और, ठीक इसी तरह पुराने-धुराने और पूंजीवाद के सबसे घटिया संस्करण के समर्थक हैं, ये उन लोगों में हैं जो अयन रैंड और मिल्टन फ्रीडमैन के विचारों के घटिया सार-संक्षेप पेश करने वाली किताबों से आगे कभी बढ़े ही नहीं. ये वही लोग हैं जो मार्गरेट थैचर के जमाने के इंग्लैंड की याद में दुबले होकर उसे फिर से खड़ा करने के सपने देखते हैं.
सात-सूत्री एक्शन प्लान का प्रस्ताव कई प्रसिद्ध अर्थशास्त्रियों, जन-बुद्धिजीवियों और मेरे जैसे कुछ कार्यकर्ताओं ने रखा था और शेखर गुप्ता ने जब इस सात-सूत्री एक्शन प्लान की आलोचना की तो मुझे उनकी आलोचना में पुराने आर्थिक (कु)विचारों को फिर से जिन्दा करने की उसी बीमारी की झलक मिली जिसकी चर्चा हम ऊपर कर आये हैं. सात-सूत्री एक्शन प्लान की आलोचना करने वाले सिर्फ शेखर गुप्ता ही नहीं कुछ और भी हैं लेकिन यहां मैंने अपनी बात रखने के लिए शेखर गुप्ता को चुना है तो इसलिए कि वे सबसे ज्यादा प्रभावशाली और साफ नजर वाले उन मुखर वक्ताओं में एक हैं जो मतभेदों को पहचानने और उन्हें जाहिर करने में यकीन करते हैं. बहस के लिए मैंने शेखर गुप्ता को चुना क्योंकि कई मुद्दों (जैसे पाकिस्तान, पूर्वोत्तर, सशस्त्र-बल तथा राजनीति आदि) पर उनके विचारों का मैं कायल हूं और बहुधा उन्हें ठीक मानकर चलता हूं. एक बात ये भी है कि आप शेखर गुप्ता के साथ बिना कोई निजी खुंदक पाले बहस कर सकते हैं और ये बात बहुत मायने रखती है क्योंकि अभी ज्यादातर सार्वजनिक बहसों में आपसी खुंदक ही हावी होती दिख रही है. अर्थव्यवस्था को लेकर शेखर गुप्ता के विचारों के बारे में मेरे मन में जो कुछ आ रहा है उसे मैं बेखटके कह सकता हूं और ऐसा करने के बावजूद ये उम्मीद पाल सकता हूं कि दिप्रिंट का कॉलमनिस्ट बना रहूंगा!
ट्विटर की प्याली में तूफान
सबसे पहले तो जिक्र उस तूफान का जो ट्वीटर की प्याली में उठा. वित्तमंत्री के आर्थिक पैकेज से असंतुष्ट होने के कारण हम में से कई लोगों को लगा कि देश को वैकल्पिक एक्शन प्लान की जरुरत है, जो सीधी-सरल भाषा में बिन्दुवार प्रस्तुत किया गया हो. हमारा जोर उन शुरुआती छह मसलों पर था जहां सरकार के फौरी हस्तक्षेप की जरुरत है. ये छह मसले हैं, आप्रवासी मजदूरों के लिए परिवहन की व्यवस्था, कोविड के मरीजों तथा कोविड से बचाव और रोकथाम में लगे अग्रिम पंक्ति के कामगारों के लिए स्वास्थ्य सुविधा की व्यवस्था, एक निश्चित समय तक सर्वजन के लिए राशन की मदद, रोजगार के अवसर का व्यापक विस्तार, जीविका का नुकसान सहने को मजबूर लोगों को नगदी की सहायता और कोरोना-संकट के समय में सूद चुकाने की जिम्मेदारी से छूट. इन छह बातों के लिए धन जुटाने के किसी व्यापक कार्यक्रम की चर्चा करने की जगह हमने सातवें बिन्दु में एक सैद्धांतिक बात लिखी थी ताकि ध्यान ऊपरले छह ठोस मसले पर केंद्रित रहे ना कि धन जुटाने के तरीके पर.
लेकिन हमलोग एकदम ही गलत थे. हम कहना ये चाहते थे कि राष्ट्रीय संकट की इस घड़ी में ऐसी कोई राष्ट्रीय संपदा नहीं जिसके इस्तेमाल में हिचक से काम लिया जाये और बिन्दुवार सुझाये गये छह मसलों पर काम धन की कमी के कारण बाधित नहीं होना चाहिए. हमारा नजरिया था कि मौजूदा राष्ट्रीय संकट से निपटने के लिए ‘जो कुछ लगता है, सो लगाइए’ (अब चूंकि शेखर गुप्ता को इस जुमले में स्टालिनवाद की आहटें सुनायी दे रही हैं तो फिर मुझे यहां याद दिलाना चाहिए कि मौजूदा महामारी के वक्त में इस जुमले का इस्तेमाल ब्रिटेन के वित्तमंत्री ऋषि सुनक ने भी किया है और अभी तक किसी ने ये नहीं सुना कि इस टोरी (कंजरवेटिव) नेता ने साम्यवाद (कम्युनिज्म) का पल्ला थाम लिया है.
लेकिन हमारा शुरुआती सूत्रीकरण बड़ा बाधक (और, इसकी सारी जिम्मेदारी मेरी है) था. इस सूत्रीकरण में कहा गया था, ‘7.1 राष्ट्र के दायरे में अथवा नागरिकों के पास मौजूद संभी संसाधनों (नकदी, रीयल ईस्टेट, संपदा, बॉड आदि) को इस राष्ट्रीय संकट में उपलब्ध राष्ट्रीय संसाधन मानकर बरता जाये.’ याद रहे कि कोई खास किस्म का कर आयद किया जाता है या राजस्व के उपार्जन का ऐसा कोई तरीका अपनाया जाता है जिसमें राजस्व अदा करने वाली की इच्छा-अनिच्छा कोई मायने नहीं रखती तो उसमें बुनियादी तौर पर यही मान्यता काम कर रही होती है. ध्यान रहे कि हमारे सूत्रीकरण में ‘उपलब्ध’ राष्ट्रीय संसाधनों के इस्तेमाल की बात कही गई है, ये नहीं कहा गया कि लोकहित का तर्क देकर उपलब्ध राष्ट्रीय संसाधनों का जबरिया अधिग्रहण कर लिया जाये अथवा उनका राष्ट्रीयकरण कर दिया जाये. खैर, हमें ये समझ लेना चाहिए था कि जिस देश में संसाधनों के ‘राष्ट्रीयकरण’ का इतिहास रहा हो, वहां हमारे सूत्रीकरण को पढ़कर कोई एक अर्थ ऐसा भी लगा ही सकता है.
हुआ भी एकदम ऐसा ही. पूरा प्रस्ताव बस बिन्दु संख्या 7.1 तक सीमित कर पढ़ा गया. दक्षिणपंथी ट्रोल-सेना को मौका मिला और वो हमेशा की तरह भ्रामक सूचनाओं, अर्थशास्त्र की अधकचरी समझ और चरित्र-हनन के अपने पुराने ढर्रे पर हमलावर बनी रही.
दूसरी तरफ से मोर्चा शेखर गुप्ता ने संभाला और इस भावना से अखाड़े में उतरे कि अबकी बार कम्युनिज्म (साम्यवाद) के प्रेत से निजी संपत्ति की हिफाजत हर हाल में करके ही रहना है. एक छोटी सी भूल को तूल देते हुए उसे किसी साजिश का हिस्सा मानकर ये कहा गया कि देखिए तो भला ! ये लोग तो पिछले दरवाजे से अपने बयान में संशोधन कर रहे हैं. (याद रहे: हमारे प्रस्ताव पर दस्तखत करने वाले हर व्यक्ति के पास प्रस्ताव का वही संस्करण मौजूद था जो प्रकाशित हुआ). इस बीच, कई सदभावी और संतुलित सोच के लोगों ने भी हमें आगाह करना शुरु किया कि सूत्रीकरण में हमने जिन शब्दों का इस्तेमाल किया है, उसके अर्थ का अनर्थ किया जा सकता है. सो, जैसे ही हमें महसूस हुआ कि पूरी बहस पटरी से उतर सकती है, प्रोफेसर घटक ने अपनी तरफ से स्पष्ट किया कि बिन्दु संख्या 7.1 से हमारा अभिप्रेत क्या है. मैंने भी उनके स्पष्टीकरण से सहमति जतायी और सूत्रीकरण को दूसरे शब्दों में रखने की कोशिश में जुट गया. सूत्रीकरण को लेकर राम गुहा और आशुतोष वार्ष्णेय के कोफ्त जताने के पहले ही ये काम हो चुका था. चंद घंटों में ही प्रस्ताव पर दस्तखत करने वाले लोगों के बीच नये सूत्रीकरण पर सहमति बन गई. नये सूत्रीकरण में हमने अपनी नीयत को और ज्यादा साफ शब्दों में बयान करते हुए कहा : ‘7.1. बड़े राहत पैकेज के लिए धन मुहैया कराने के खातिर सरकार को टैक्स और लेवी जैसे सामान्य उपायों से आगे बढ़ते हुए आपात्कालिक तरीकों के बारे में सोचना चाहिए.’ मूल प्रस्ताव के 24 घंटे के भीतर ही राम गुहा और आशुतोष वार्ष्णेय सहित अन्य सभी ने नये सूत्रीकरण पर पूरी तरह रजामंदी जतायी और ये मानकर चला गया कि अब ध्यान सात बिन्दुओं वाले प्रस्ताव के मुख्य मसलों पर दिया जायेगा.
विचारधाराओं की बहस
फिर भी शेखर गुप्ता ने ढेर सारी ऊर्जा प्रस्ताव के बिन्दु-संख्या 7.1 में दर्ज ‘(कु)विचार’ पर लगायी जबकि 7.1 अपने पुराने कलेवर में था ही नहीं. क्या वे भी दक्षिणपंथी ट्रोल-सेना के कई लोगों की तरह यही मानते हैं कि मूल सूत्रीकरण में ही इन छद्म-कम्युनिस्टों की असली और गुप्त मंशा का इजहार हुआ था ? मुझे नहीं लगता कि शेखर गुप्ता ऐसा मानते होंगे. गुहा, आशुतोष वार्ष्णेय ही नहीं राजमोहन गांधी, जीएन देवी, हर्ष मंदर, टीएम कृष्णा तथा प्रस्ताव पर दस्तखत करने वाले इस नाचीज को छद्म-कम्युनिस्ट मानना कुछ ऐसा ही जैसे शेखर गुप्ता को मोदी-भक्त कहना. तो, भ्रम को फैले जाल को अगर काटना है तो फिर उसे सबसे पहले इसी मोर्चे पर काटने की जरुरत है.
आईए, अब जरा शेखर गुप्ता की उन आपत्तियों की बात कर लें जो यों तो ठोस हैं लेकिन उन्हें बड़े संक्षेप में कहा गया. शेखर गुप्ता सोचते हैं कि हमारे प्रस्ताव की कुछ बातों को पूरा कर पाना वित्तीय दृष्टि से असंभव है. उन्होंने मिसाल के तौर पर बताया कि अगर हम पहली बार लिए गए होम लोन पर तीन माह के सूद की माफी देते हैं तो फिर समझिए कि बैकिंग-व्यवस्था का तो भट्ठा बैठ जायेगा. (दरअसल, उन्होंने कहा भी बिल्कुल यही!). अगर चलते-चिट्ठे का गणित लगायें ( तीन माह के लिए 1.5 प्रतिशत मासिक के हिसाब से 10 लाख करोड़ रुपये के होम लोन का हिसाब) तो नजर आयेगा कि होम लोन के मद में सूद की माफी पर सरकार को 50,000 करोड़ रुपये से ज्यादा लागत नहीं आने वाली. अब इतनी रकम से बैंकिंग-व्यवस्था का भट्ठा कैसे बैठ सकता है ? ये तो मारे चिन्ता के अपनी सहज चतुराई से हाथ धोने वाली बात हुई.
शेखर गुप्ता को लगा कि हमने आपात्कालिक उपायों की जो बात कही है वो कुछ ज्यादा ही अधिनायकवादी (ऑथोरिटेरियन) है. अब यहां मुझे साफ दिख रहा है कि ‘आपातकाल’ जैसा शब्द कितनी पीड़ादायी यादों को उभार सकता है. लेकिन फिर किया क्या जाये ? जब तक ये नहीं तय कर दिया जाता कि साल 1975-77 की घटना को छोड़कर अन्य किसी भी स्थिति के लिए आपात्काल शब्द का प्रयोग प्रतिबंधित है, तब तक ‘आपात्कालिक उपाय’ जैसे शब्द के प्रयोग में क्या हर्जा है ? साफ तो दिख रहा है कि पांच दशकों में पहली बार अर्थव्यवस्था डावांडोल होकर सिमटने की सी हालत में आ गई है और बेरोजगारी इस कदर बढ़ चली है कि देश के आर्थिक इतिहास में उसकी कोई मिसाल ही नहीं मिलती. अगर ये स्थित आर्थिक कोण से आपातकाल ना कहलायेगी तो आखिर आपातकाल शब्द को फिर किन हालातों के जिक्र के लिए बचाकर रखें ?
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एक अफसोस यह भी है कि शेखर गुप्ता ने प्रस्ताव पर असली आपत्ति ‘आये, ठीक से बैठे भी नहीं कि चले गये’ वाले अंदाज में जतायी. उनकी असली आपत्ति ये थी कि आखिर, और ज्यादा टैक्स क्योंकर लिए जायें? कराधान (‘टैक्सेशन) तो पहले ही बहुत ज्यादा है जिसकी वजह से राजस्व की उगाही कम हो चली है, उद्यमशीलता कम हुई और गरीबी बढ़ी. बात ये है कि आम ढर्रे पर चलने वाला कोई वक्त होता तो मैं शेखर गुप्ता की ऐसी बातों में से में बहु कुछ के साथ जरुर ही सहमति जताता. टैक्स की बढ़ती हुई दर को टैक्स-कलेक्शन की घटती हुई दर और पूंजी के कहीं और पलायन कर जाने की आशंकाओं के साथ संतुलित करके चलना होता है. लेकिन इस फार्मूले को महामारी के वक्त में, जब पूंजीवादी अर्थव्यवस्थाएं भी ऊंचे कराधान की बात करने लगी हैं और इसमें एक उपाय संपत्ति-कर (वेल्थ टैक्स) लगाना भी है, दोहराना दरअसल इस बात की निशानदेही करता है कि आप बात को विचारधारा के अपने कोण पर खड़े होकर सोच रहे हैं. यह बहुत कुछ बुनियादपरस्त उन वामपंथी लोगों की सोच की ही तरह है जो मानकर चलते हैं कि सरकारी क्षेत्र के सारे उपक्रम चाहे जो भी कमाते-गंवाते हों, उनका हर हाल में बने रहना जरुरी है. इसी तरह, अभी के वक्त में जब अर्थव्यवस्था एकदम से चरमरा गई है, कोई आर्थिक वृद्धि, ट्रिकल डाऊन (यानि ऊपर फलेगा तो पककर नीचे भी झड़ेगा) और कम दर के कराधान जैसी बातों का मंत्रपाठ करे तो इसे बाजारपरस्ती का ही नमूना माना जायेगा. इन दो खेमों के बीच बंधे-बंधाये फार्मूले पर जो बहस चलती है, उसमें कोई हर्जा नहीं लेकिन सामान्य समय में भी ऐसी बहस बहुत थकाऊ साबित होती है. अभी के संकट के समय में तो ऐसी बहस के खेल में उतरना ‘निठल्ला चिन्तन’ ही कहलाएगा.
Leading economists, intellectuals and activists propose a 7-point Plan of Action to respond to the current crisis pic.twitter.com/YbEitn6XQw
— Yogendra Yadav (@_YogendraYadav) May 22, 2020
असली सवाल
दिल चाहता है कि शेखर गुप्ता विचारधारा के अपने चश्मे को उतारकर भ्रमजाल काटने के काम में लगें जैसा कि उन्होंने कट द क्लटर में ढेर सारे मुद्दों की तह तक पहुंचने में किया है और यहां असल मुद्दा ये है कि बड़ी आर्थिक मदद या राहत पैकेज के लिए हमें अतिरिक्त संसाधन जुटाने की जरुरत है या नहीं ? हम या तो ये कह सकते हैं कि सरकार ने अभी तक जो कुछ किया है उसके अतिरिक्त हमें ऐसा कोई पैकेज लाने की जरुरत नहीं है या फिर, हमें ये बताना होगा कि सरकार के पास पहले से ही अतिरिक्त संसाधन मौजूद हैं. और, जो ऐसा नहीं है तो फिर हम इस कठिन सवाल से पीछा नहीं छुड़ा सकते कि आखिर इतने बड़े पैमाने पर अतिरिक्त संसाधन कहां से जुटाया जाये ?
यूरोप पर एक साया मंडरा रहा है– ‘साम्यवाद का साया.’ साल 1848 के कम्युनिस्ट मेनिफेस्टो की शुरुआत इसी पंक्ति से होती है. साम्यवादी राजसत्ता और उसकी विचारधारा कबकी मर चुकी. लेकिन साम्यवाद का साया यूरोप से कई मील दूर और 172 साल की दूरी पर खड़े बहुत से लोगों पर मंडरा रहा है. अपने कब्र में पड़े मार्क्स के होठों पर निश्चय ही इस दृश्य से मुस्कान खिल रही होगी.
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(योगेंद्र यादव राजनीतिक दल, स्वराज इंडिया के अध्यक्ष हैं. यह लेख उनका निजी विचार है)
Sir u have to rest on some days….aap bhut jyada load le rahe ho….Bina Matlab ke….apki bat na to koi sunta hai …or sabse badi bat koi sunnna b nahi chata…..pata nahi kun tum jaise log apne aap ko tees mar Khan kun samjhte ho…….tumko yadi desh ke ya desh ke nagriko ki chinta hai to….kisi Sikh bhai ko Dekho…..Puri duniya mai bo log logo ki madad Kar rahe hai…..tmhre jaise har mamale Mai raita nahi failate…..nahi tumnhre jaise famous hone ki ummid karte hai…….tum logo ki kin lagta hai ki har chiij ka Gyan tmhre pass hai……is bat ko socho…or Ghar se Bahar nikalo logo ki sacchai seba karo…unko Khana khilao….Pani pilao….tab tum samjhoge sahi Kya hai……AC room Mai baith Kar bakwass karna asan ha…….mujhe umiid hai thoda realistic Kam b karoge
शेखर जी, जो बात मैं साल भर से कह रहा हूँ उसे आखिरकार योगेन्द्र ने कह ही दिया. शेखर जी, छोड़ दो मोदी की भक्ति. कितने दिन ज़मीर को मारोगे…..