नई दिल्ली: ‘आपको क्या लगता है, यह (संक्रमण) आपको कैसे हुआ होगा?’ यह संभवत: प्रत्येक ठीक हो चुके कॉविड -19 रोगी से पूछे जाने वाले पहले प्रश्नों में से एक है. वैसे तो यह अपने आप में एक मासूम सा सवाल है फिर भी इसके पीछे इस बीमारी से जुड़े रहस्यमय पहलुओं के बारे में सब कुछ जान लेने की जिज्ञासा सी छुपी होती है.
29 अप्रैल को पहली बार कॉविड पॉज़िटिव होने की रिपोर्ट आने से पहले ही दिप्रिंट की हमारी टीम, जिसमें फोटोग्राफर प्रवीण जैन, ड्राइवर अनिल कपूर और मैं शामिल थे, राजस्थान और गुजरात में 3,000 किलोमीटर से भी अधिक की यात्रा कर चुके थे, और उन 14 दिनों के दौरान हम दर्जनों लोगों से मिले होंगे. हम आपस में अभी भी इस बारे में चर्चा करते हैं कि हमें यह संक्रमण कहां से मिला होगा, और शायद अभी भी हमारे पास इसका सटीक कोई जवाब नहीं है.
कोरोना के मरीजों के रूप में, हमने पहले सबसे पहले यह जाना कि इस संक्रमण के होने और इसके काम करने के तरीकों के (मोडस ओपेरांडी) बारे में किसी के पास भी कोई स्पष्ट जवाब नहीं था. इस तथ्य ने हमें थोड़ा सा आशंकित कर दिया, क्योंकि हमें बिल्कुल नहीं पता था कि अगले दो सप्ताह में हमारे साथ क्या होने वाला है. लक्षण काफ़ी अप्रत्याशित हो सकते थे, और इंक्युबेशन पीरियड के दौरान काफ़ी देर से भी प्रकट हो सकते थे. प्रवीण और अनिल दोनों की उम्र पचास के दशक के अंत वाली है और दुनिया भर के विशेषज्ञों के अनुसार इस आयु वर्ग के लिए यह वायरस काफ़ी ख़तरनाक माना गया है.
पर हमने जल्द ही यह भी जान लिया कि इस वायरस से डरने जैसी की कोई खास बात नहीं है और ज़्यादा डर और चिंता हमारे लिए और कठिन परिस्थिति ही उत्पन्न करने वाली है. जमीन से जुड़ी रिपोर्टिंग करने के बाद हम यह भी समझ गए थे कि यह वायरस अभी और दूर-दूर तक फैलने वाला है और हमारे अलावा भी कई लोग इससे प्रभावित होने वाले हैं, हम सिर्फ़ उन कुछ लोगों में से हैं जो इससे संक्रमित हो चुके हैं और अब अगला एवं सही कदम इस हालत से सही-सही गुजर जाना ही है.
कोरोनावायरस के रिपोर्ट के पॉज़िटिव आने के तुरंत बाद ही हमने अपने आप को हाई स्पीड रेल ट्रेनिंग इंस्टीट्यूट, वडोडरा के एक क्वॉरेंटीन सेंटर के हवाले कर दिया, जहां हमारी पूरी देखभाल की गयी और हमने पूरी तरह ठीक होने तक का दो सप्ताह का समय बिताया.
दो सप्ताह तक लगातार समाचार संकलन और रिपोर्टिंग के बाद हम तीनों के लिए चुप-चाप बैठे रहना और निगेटिव रिपोर्ट का इंतजार करना एक अजीब सा अनुभव था , शुरुआत में थोड़ा थका- थका सा होने के बावजूद, यहां रहने का हमारा अनुभव कतई बोझिल नहीं था. हमें जीवन के विभिन्न क्षेत्रों के ऐसे कई लोगों से मिलने और बातचीत करने का अवसर मिला जिनकी रिपोर्ट पॉज़िटिव आईं थीं, और इस अनुभव ने हम सभी को एक साथ ला दिया था.
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क्वॉरेंटीन में बिताए गये दिन
हमें संस्थान में स्थित एक क्वार्टर में रखा गया था. यह एक बड़ा, आयताकार आकार का भवन था जो केंद्रीय प्रांगण के ठीक सामने बना है. इसे देश में भविष्य के उच्च गति वाले रेलवे इंजनों में प्रतिस्थापित होने वाले कार्यबल को प्रशिक्षित करने के लिए स्थापित किया गया था, हाल ही में बना यह भवन अच्छी रोशनी वाला, विशाल कमरों और नए प्रकार के साजो सामान के साथ बनाया गया था.
हालांकि, हर कमरे में दो व्यक्ति आराम से रह सकते हैं लेकिन सामाजिक दूरी को सुनिश्चित करने के लिए सभी कमरों में एक ही व्यक्ति को रखा गया था. अपने कमरे से बाहर निकलना ठीक नहीं माना जाता था और अपने तल (फ्लोर) को छोड़ने की तो बिलकुल इजाज़त नहीं थी.
हमें अपने कोरोना पॉज़िटिव होने के बारे में जानकारी मिलने के कुछ ही घंटों बाद एम्बुलेंस के द्वारा इस परिसर मे लाया गया. हमारी वह सुबह और दोपहर उन लोगो के बारे मे अपराधबोध के साथ सोचने में बीती जो हमारी वजह से इस वायरस के संपर्क में आ सकते थे. कुछ हीं घंटों पहले, हमने वडोडरा में एक सरकारी सर्किट हाउस में चेक इन किया था और एक बुजुर्ग से सेवादार ने हमें सुबह का नाश्ता परोसा था.
इससे पहले, हम कई महत्वपूर्ण सरकारी अधिकारियों से भी मिले थे, कई होटलों में रुके थे, कई अन्य पत्रकारों और संपादकों की मदद ली थी. हमारे पास यह जानने का कोई तरीका नहीं था कि कौन-कौन संक्रमित हो सकता है, और क्या वे इस वायरस से प्रभावित हो चुके होंगे?
मैंने उन सब लोगों की एक सूची तैयार की, जिनसे हम मिले थे तथा जिन स्थानों पर हम गए थे, और फिर इसे वडोडरा जिला प्रशासन को सौंप दिया. हमारा अपराधबोध अंततः इस तथ्य की स्पष्ट रूप से स्वीकृति के रूप में ख़त्म हुआ की इस संक्रमण के फैलने के जुड़े बहुत सारे कारक हमारे नियंत्रण से परे थे.
क्वॉरेंटीन के दिन काफी हद तक नियमित थे: नाश्ता आमतौर पर सुबह 10.30 बजे के आसपास मिलता था, इसके बाद दोपहर का भोजन लगभग 1.30 बजे, और फिर रात का खाना 8.30 बजे तक. हर सुबह शरीर के तापमान की नियमित जांच की जाती थी. हमारे दिन इस तीनों समय के भोजन के साथ बीतने लगे और हमारे सहित सभी क्वॉरेंटीन में रहने वाले लोगों को एक विशेष समय पर उन्हें परोसे जाने की आदत सी हो गयी थी.
हालांकि, एक दिन, बिना किसी पूर्व सूचना अथवा स्पष्टीकरण के सेंटर में खाना आने में देरी हो गयी थी. इस बीच सारे बेचैन मरीज़ अपने-अपने कमरों से बाहर निकल कर गलियारों में खड़े हो गए, खाने के खाली पड़े कार्ट्स को घूरते हुए तत्काल खाना दिए जाने की मांग करने लगे. हमारे साथ रहने वाले लोगों में से कुछ 70 वर्ष से अधिक उम्र के बुजुर्ग भी थे, क्वॉरेंटीन में रहने वाला प्रत्येक व्यक्ति अपने भोजन और आश्रय के लिए पूरी तरह से प्रशासन पर निर्भर था, और यह देखना काफ़ी दिलचस्प था कि नियमित दिनचर्या और जीविका की अपेक्षाओं में आए हल्के से व्यवधान से भी कोई कितनी आसानी से उत्तेजित हो जाता है. ख़ासतौर पर तब जब यह अच्छी तरह से पता हो कि अगले वक्त का भोजन निश्चित रूप से आ ही जाएगा.
अपनी यात्रा के दौरान, हम ऐसे अनगिनत बेघर लोगों और प्रवासी श्रमिकों से मिले थे जिनकी जीविका के प्रति चिंता अक्सर हिंसक हो जाती थी, क्योंकि अगले समय के भोजन के उन तक पहुंच पाने की कोई गारंटी नहीं थी. हालांकि दोनों परिस्थतियों की तुलना नहीं की जा सकती फिर भी चिंता की प्रतिछाया को नज़रअंदाज करना मुश्किल था.
इस परिसर में रहना हमें हमारे सभी विशेषाधिकार की याद दिलाता था, और इसने हमें अच्छी तरह से सिखाया कि उन्हें कभी भी हल्के में नहीं लेना चाहिए.
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उपचार और छुट्टी
क्वॉरेंटीन में हमारे अधिकांश दिन बिना किसी रोचक घटना के साथ गुजरे, और हम पूरा दिन अपने शुभचिंतकों के द्वारा किए जाने वाले फोन कॉल और संदेशों के साथ घिरे रहते थे. अधिकांश लोग यह जानने के लिए उत्सुक थे कि हमारे लक्षण क्या थे और हम कैसे उनका सामना कर रहे थे? हमने अपने क्वॉरेंटीन सेंटर के पड़ोसियों से भी खूब बातें कीं, जिनमें से कई हमारे जैसे ही यह नहीं जानते थे कि उन्हें यह बीमारी कैसे हुई और सभी जल्द ठीक होने और अपने-अपने घर जाने के लिए बेताब हो रहे थे. हमें कई लोगों – जिनमें बूढ़े और महिलाएं भी शामिल थी – को पूरी तरह से ठीक हो विदा होते देखने के लिए प्रोत्साहित भी किया जाता था.
प्रवीण और मुझे तब चिंता होने लगी जब अनिल, हमारा ड्राइवर जो वैसे तो बड़ी बहादुरी दिखा रहे थे, एक दिन प्रवीण के कमरे में आए और थके से लगने लगे. साथ रखे थर्मामीटर से उनके बुखार की त्वरित जांच में उन्हें 103 डिग्री का उच्च बुखार था.
इसके तुरंत बाद हमने इस सुविधा केंद्र की देखरेख करने वाले डॉक्टर से संपर्क किया और अनिल को एक एम्बुलेंस द्वारा उस अस्पताल तक ले जाने का प्रबंध किया गया जहां स्पष्ट लक्षण वाले रोगियों की निगरानी की जा रही थी.
अनिल को अगले दो दिनों तक बुखार, खांसी, कमजोरी और शरीर में दर्द की शिकायत रही और उन्हें शहर के गोटरी मेडिकल कॉलेज एंड हॉस्पिटल में रखा गया था. उन्हें कुछ समय के लिए पानी भी चढ़ाया गया था, लेकिन वे जल्दी ही ठीक हो गए और अस्पताल में तीन दिन बिताने बाद वापस क्वॉरेंटीन सेंटर में लौट आए. प्रवीण को हल्का बुखार और शरीर में दर्द हो रहा था, जबकि मुझे थोड़ी सी थकान और सूंघने की क्षमता कम होने के अलावा कोई भी लक्षण नहीं था.
हम तीनों के लिए उपचार लगभग समान था: विटामिन और अन्य पूरक दवाओं का 14 दिनों का कोर्स. साथ ही अत्यधिक बहस का केंद्र बन रहे हाइड्रोक्सीक्लोरोक्वीन का भी 5-दिन का कोर्स था. हालांकि कोविड – 19 की दवा और उपचार से संबधित तमाम विवादों के बारे में हमें पता था, लेकिन कई परस्पर विरोधी रिपोर्टों और विचारों के बीच हमने यह फैसला किया कि इस केंद्र के डॉक्टरों द्वारा निर्धारित कोर्स को पूरा करना ही सबसे अच्छा उपाय है.
बीमारी और उपचार के बारे में अत्यधिक पढ़ना हमारे जोश और मनोबल को ऊंचा रखने के लिए प्रतिकूल ही साबित हो रहा था, इसलिए हमने महसूस किया कि देश में चल रही महत्वपूर्ण घटनाओं के बारे में जानने के अलावा अन्य समाचार से भी दूरी बनाए रखना महत्वपूर्ण है.
लेकिन इन 14 दिनों में से एक दिन ऐसा भी था जब प्रवीण और मैं दोनों हिल से गए. दरअसल, 10 वें दिन, हम तीनों की कोविड वायरस की रिपोर्ट निगेटिव आई थी और हम जश्न मनाने लगे थे. हमारे एक सहयोगी के पास में ही रहने वाले रिश्तेदारों ने हमें एक केक भी ला दिया. हमारे उल्लास में, हम इस केंद्र के डॉक्टरों और नर्सों के पास जा पहुंचे और उन्हें केक की पेशकश कर दी. उन्होंने बड़ी विनम्रता से हमें मना कर दिया और हमें याद दिलाया कि स्वास्थ्य दिशानिर्देशों के अनुसार, छुट्टी दिए जाने से पहले हमारा एक और नकारात्मक परीक्षण आवश्यक था.
हमने उस दोपहर फिर से जांच के लिए सैंपल दिए. अगले दिन जब परिणाम आया, तो इसने प्रवीण और मुझे फिर से पॉज़िटिव दिखाया, जबकि अनिल अब भी निगेटिव था. हम एक दम से टूट से गये थे, और हमारा सारा उत्साह धराशायी हो गया था. अचानक, हमने परीक्षणों की सत्यता से लेकर, हमारी खुद की ठीक होने की प्रक्रिया, हमारे शरीर पर वायरस का और क्या प्रभाव हो सकता है? आदि तमाम सवालों पर शक करना शुरू कर दिया.
क्वॉरेंटीन में रहने के दौरान, हम एक ऐसे युवक से मिले जिसकी सात बार पॉज़िटिव रिपोर्ट आई थी और वह लगभग एक महीने से क्वॉरेंटीन में ही रहा था. हम सोचने लगे थे कि क्या हमारे साथ भी कुछ ऐसा ही होने वाला है.
प्रशासन ने हमें दोबारा परीक्षण से पहले एक या दो दिन और इंतजार करने की सलाह दी. सौभाग्य से, चौथा परीक्षण फिर से नेगेटिव आया, यह दर्शाता था कि बीच में जो पॉज़िटिव रिपोर्ट आई थी वह गलत थी, क्वॉरंटीन में 14 दिन बिताने बाद हमें अंततः इसे छोड़ने की अनुमति दी गई.
हमें लगता था कि हमें इस (रिहा होने की) संभावना से अत्यंत राहत का एहसास होगा लेकिन जब वाकई में विदा होने का समय आया, तो हम दुख की एक भावना से भर उठे. शायद यह हमारे द्वारा पिछले कुछ दिनों के प्रवास के दौरान बनाए गए दोस्तों को पीछे छोड़ने की चिंता थी और शायद हम यह भी सोच रहे थे कि जाने कब वे अपने घरों और परिवारों के पास वापस जा पाएंगे.
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हमने अपना सामान समेटा और अपने एकदम निकट के पड़ोसियों – जिनमे एक ऐसे मां और बेटा की जोड़ी भी शामिल थी जिनकी निगेटिव रिपोर्ट आनी अभी बाकी थी – को अलविदा कहा. उसी समय प्रवीण ने इस क्वॉरेंटीन सेंटर की एक आखिरी तस्वीर लेने के लिए अपना कैमरा निकाल लिया और जब हमने पीछे मुड़ कर देखा, तो इस केंद्र के कई अन्य लोग हमारी भी फोटो खींच रहे थे. हर कोई एक साथ साझा किए गये इस असामान्य अनुभव की एक याद साथ रखना चाहता था.
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