जम्मू-कश्मीर में आतंकवाद विरोधी कार्रवाइयों में दो अहम बातें सामने आ रही हैं. सुरक्षा बल आतंकवादियों का जनाज़ा खुले तौर पर नहीं निकालने दे रहे हैं और सेना मुठभेड़ों में मारे जा रहे आतंकवादियों के नाम नहीं बता रही है, जिनमें से बहुत से अब ट्विटर पर आ रहे हैं.
पहला क़दम तो सही है क्योंकि ये जनाज़े नई आतंकी भर्तियों के लिए ब्रीडिंग ग्राउण्ड्स और प्रतिबंधित गुटों के लिए शक्ति प्रदर्शन का मौक़ा बन गए थे. लेकिन दूसरा क़दम एक ऐसी फिसलन भरी ढलान है, जिसपर चलने से सेना को बचना चाहिए.
हालांकि आतंकवादियों को आम लोगों की निगाहों से दूर ले जाकर दफनाया जा रहा है, लेकिन कश्मीर पुलिस सुनिश्चित करती है कि अगर मरने वाले आतंकी स्थानीय निवासी हैं, तो उनके परिवार वाले उन्हें आख़िरी विदाई दे सकें.
प्रोटोकोल निभाते हुए अमेरिका ने भी, ओसामा बिन लादेन के शव को समुद्र में दफ़न करने से पहले, उसे सऊदी अरब को देने की पेशकश की थी. बेशक सऊदी अरब ने उसे लेने से इनकार कर दिया. सऊदी अरब या अमेरिका कोई नहीं चाहता था कि उस आतंकी की क़ब्र एक तीर्थ स्थान बन जाए.
नाम छिपाने के पीछे सेना का तर्क
सेना का मानना है कि आतंकवादियों के नाम बताने से उनका महिमागान होने लगता है. अगर कोई कार्रवाई चल रही हो तो उसके बीच, तात्कालिक सुरक्षा कारणों से ऐसा करना समझ में आता है, लेकिन मुठभेड़ ख़त्म हो जाने के बाद भी, आतंकियों के नाम छिपाने से क़ानून, मानवाधिकार, और पारदर्शिता से जुड़े बड़े नतीजे सामने आ सकते हैं.
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शुक्र है कि गृह मंत्रालय (एमएचए), जम्मू-कश्मीर पुलिस और केंद्रीय रिज़र्व पुलिस बल (सीआरपीएफ) ने सेना की इस लाइन का पालन नहीं किया है और अधिकारिक प्रेस रिलीज़ व मीडिया बाइट्स के ज़रिए, वो लगातार मुठभेड़ों में ढेर आतंकियों के नाम और उनकी अपराधिक गतिविधियों का ब्यौरा देते आ रहे हैं.
सेना की इस नई पॉलिसी को उसके प्रवक्ता कर्नल अमन आनंद ने उस समय आम किया, जिस दिन आतंकी संगठन हिज़्बुल मुजाहिदीन का मुखिया रियाज़ नायकू मारा गया.
6 मई को दोपहर 3.17 बजे, पत्रकारों को भेजे गए एक लिखित मैसेज में कर्नल आनंद ने दो आतंकवादियों के मारे जाने की पुष्टि की, लेकिन साथ ही कहा कि सुरक्षा कारणों से उनके नाम ‘रोके’ जा रहे हैं.
ये बात आश्चर्य में डालने वाली थी, क्योंकि शवों के निकालने और ऑपरेशन ख़त्म हो जाने के बाद, जम्मू-कश्मीर पुलिस और सीआरपीएफ के अधिकारियों ने आतंकियों की शिनाख़्त करके आधिकारिक रूप से उनके नाम बताए थे. इससे काफी कनफ्यूज़न पैदा हुआ.
बाद में, जब पत्रकारों ने स्पष्टीकरण के लिए उनसे सम्पर्क किया, तो कर्नल आनंद ने कहा कि आतंकवादियों के नाम जारी करके सेना, उनका महिमागान नहीं करेगी.
Col. Aman Anand, Indian Army Spokesperson tells me: ‘Indian Army won’t name the terrorists killed in #Pulwama. Security forces are the heroes who eliminated 4 terrorists within 24 hours. We shall not glorify these terrorists by releasing their names. They are just terrorists.’ ??
— Aditya Raj Kaul (@AdityaRajKaul) May 6, 2020
ये कनफ्यूज़ देर रात तक रहा, जब 15 कोर कमांडर लेफ्टिनेंट जनरल बीएस राजू ने, टाइम्स नाऊ को दिए एक इंटरव्यू में, ऑपरेशन का ब्यौरा दिया और नायकू का नाम बताया.
Super #Exclusive |This operation began in the late evening of May 5. We are were able to neutralise Riyaz Naikoo & his accomplices by the morning of May 6: Lt Gen BS Raju, Chinar Corps Commander tells Navika Kumar on @thenewshour. | #IndiaAvengesHandwara pic.twitter.com/FbRF3axTLU
— TIMES NOW (@TimesNow) May 6, 2020
अगले दिन, चीफ़ ऑफ़ डिफेंस स्टाफ़ जनरल बीपी रावत ने भी, न्यूज़ एजेंसी एएनआई के साथ एक इंटरव्यू में, इस एनकाउंटर के बारे में बात की.
इसलिए, सेना की ये बात कनफ्यूज़ करती है, जब वो कहती है कि आतंकवादियों के नाम सार्वजनिक करने से, उनका महिमागान होता है.
पारदर्शिता बनाम महिमागान
राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग और सुप्रीम कोर्ट दोनों ने, एक वैधानिक प्रक्रिया के तहत, मुठभेड़ों और मारे गए आतंकवादियों की शिनाख़्त के लिए, कुछ नियम तय किए हैं.
इसमें एक सवाल पारदर्शिता का भी है, क्योंकि कल कोई भी ऐसी स्थिति नहीं चाहता, जिसमें सुरक्षा बल मुठभेड़ में मारे गए किसी भी व्यक्ति पर, ‘आतंकवादी’ का ठप्पा लगाकर, उसकी डिटेल्स देने से मना कर सकते हैं. इसलिए मारे गए व्यक्ति की पहचान करना, भले ही वो आतंकी हो, एक क़ानूनी ज़रूरत है, क्योंकि हर घटना की एक क़ानूनी डायरी रखी जाती है.
कार्रवाई में मारे जाने वालों की पहचान न करना, एक ऐसी पॉलिसी है जिसपर अमल करने से, इन बलों को एक दिन पीछे हटना पड़ सकता है.
दुनिया भर के देशों में, जिनमें इज़राइल जैसा सिक्योरिटी स्टेट भी शामिल है, कार्रवाई में मारे गए आतंकवादियों, और उनकी अपराधिक गतिविधियों का का ब्यौरा देते हैं. इससे न केवल दूसरे आतंकवादियों को एक मज़बूत संदेश जाता है, बल्कि एक पारदर्शिता का माहौल भी बना रहता है.
जब ओसामा बिन लादेन मारा गया, तो उसकी मौत का ऐलान ख़ुद अमेरिकी राष्ट्रपति बराक ओबामा ने किया था. ओबामा एक आतंकवादी का महिमा गान नहीं कर रहे थे, लेकिन उसके जैसे सब लोगों के लिए एक मज़बूत संदेश दे रहे थे और ख़ुफिया व सैनिक कम्यूनिटी की कामयाबी की सराहना कर रहे थे.
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पास में ही, जब श्रीलंकाई सेना ने वेलुपिल्लई प्रभाकरण की मौत का ऐलान किया, तो क्या वो एलटीटीई के इस ख़ौफ़नाक आतंकवादी का महिमागान कर रही थी?
अगर आप सेना के तर्क से चलें, तो फिर मुम्बई हमलों के आतंकी अजमल कसाब का नाम भी सार्वजनिक नहीं किया जाना चाहिए था. ये मीडिया ही था, ख़ासकर पाकिस्तानी मीडिया, जिसने भारतीय प्रेस में कसाब का नाम आने के बाद, उसके पाकिस्तानी रिश्ते का पर्दाफाश किया.
इसपर एक बड़ी चर्चा की ज़रूरत है, कि आतंकवादियों का किस चीज़ से महिमागान होता है, किससे नहीं.
मीडिया पर दोषारोपण
रविवार को पत्रकारों को भेजे एक दूसरे मैसेज में कर्नल आनंद ने फिर दोहराया कि सेना जम्मू के डोडा में, एक कार्रवाई में मारे गए आतंकियों के नामों की पुष्टि नहीं करेगी, और ‘मीडिया से अपील करती है कि आतंकवादियों का महिमागान न करे.’
दो हफ्ते से कम समय में, ये कनफ्यूज़न का दूसरा राउण्ड था. आनंद के संदेश से बहुत पहले जम्मू-कश्मीर पुलिस ने मारे गए आतंकवादियों का ब्यौरा मीडिया को जारी कर दिया था.
बहुत से पत्रकारों द्वारा सेना और दूसरे सुरक्षा बलों के बीच, सम्पर्क के अभाव का मुद्दा उठाए जाने पर, कर्नल आनंद ने अपने निजी ट्विटर अकाउण्ट से, सेना के रुख का बचाव किया.
I can only see J&K Police ignoring Army’s version. Media can’t be selective. J&K Police released details and photographs in an official press release. There is communication gap between Army and Police. Hope it’s sorted out soon in National interest. Thanks
— Aditya Raj Kaul (@AdityaRajKaul) May 18, 2020
और ऐसा फिर हुआ. 19 मई को जम्मू-कश्मीर पुलिस और सीआरपीएफ की साझा कार्रवाई में, हिज़्बुल मुजाहिदीन के डिप्टी चीफ़ जुनैद सहराई के मारे जाने के बाद. इस लेखक समेत कई पत्रकारों ने, आधिकारिक सूचना आने और शवों के निकाले जाने के बाद, इस ख़बर को ट्वीट कर दिया. इसके बाद एक असामान्य क़दम उठाते हुए, सेना के प्रवक्ता ने आतंकी का नाम बताने पर, इस पत्रकार पर गहरा तंज़ कसा.
Such tweets claim to be celebrating Security Forces actually harm our interest. Repeated appeals to not glorify terrorists by Army overlooked by you. What is the purpose? https://t.co/rfXSKArKRv
— AMAN ANAND (@snigdhaman) May 19, 2020
जब उन्हें बताया गया कि ये ख़बर जम्मू-कश्मीर पुलिस ने साझा की थी, और आतंकियों की शिनाख़्त करना पुलिस की ज़िम्मेदारी है, तो उन्होंने वापस ट्वीट करते हुए कहा, ‘जेकेपी के पास तो कारण है, जो समझ में आता है. मीडिया के पास क्या है?’
Such tweets claim to be celebrating Security Forces actually harm our interest. Repeated appeals to not glorify terrorists by Army overlooked by you. What is the purpose? https://t.co/rfXSKArKRv
— AMAN ANAND (@snigdhaman) May 19, 2020
एक और ट्विटर जनरल नहीं
किसी ऐसी ख़बर को पहुंचाने में, जो पहले ही अधिकारिक सूत्रों द्वारा दी जा चुकी है, मीडिया की भूमिका और कर्तव्य पर सवाल उठाना, एक बदनाम ‘ट्विटर जनरल’ की याद दिलाता है.
पाकिस्तानी सेना की पीआर व्यवस्था आईएसपीआर के पूर्व मुखिया मेजर जनरल आसिफ़ ग़फ़ूर, जिन्हें ट्विटर-जनरल कहा जाता था, अपने निजी हैण्डल से अकसर पत्रकारों और दूसरे लोगों को धमकाया करते थे.
मुझे यक़ीन है कि एक संस्था के तौर पर, सेना या रक्षा मंत्रालय कोई भी इन नीतियों का समर्थन नहीं करता.
संविधान हर किसी को अभिव्यक्ति की आज़ादी देता है, जिससे मीडिया को उसकी ताक़त मिलती है, जो कुछ जायज़ पाबंदियों से बंधी होती है. लेकिन, इन पाबंदियों और हासिल किए जाने वाले मक़सद के बीच, एक तर्कसंगत संतुलन होना चाहिए.
धारा 19(2) कहती है कि राज्य की सुरक्षा के हित में, अभिव्यक्ति की आज़ादी पर कुछ उचित प्रतिबंध लगाए जा सकते हैं.
इसमें उन कारणों व मानदंडों का ब्यौरा भी दिया गया है, जिनके तहत ऐसी पाबंदियां लगाई जाएंगी. विदेशी राज्यों से दोस्ताना रिश्ते, कोई भी चीज़ जो सार्वजनिक शांति या व्यवस्था को भंग करती हो, अदालत की अवमानना, मानहानि, और अपराध के लिए उकसाना.
मेरी समझ से बाहर है कि मारे जाने के बाद किसी आतंकवादी का नाम लेना, ऊपर लिखी कौन सी तयशुदा शर्तों का अल्लंघन है.
(इस खबर को अंग्रेजी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)