कोरोनावायरस के फैलने से दुनिया मानो रुक सी गई है. कई देशों में पूर्ण तो कहीं आंशिक लॉकडाउन रहा पर जो एक चीज़ इस दौर में भी नहीं थमी वो थी राजनीति. कोविड पर राजनीति, कोविड के बहाने राजनीति, कोविड काल में राजनीति. भारत में भी जीवन कोविड से थम सा गया पर कठिनाई के इस दौर में राजनीति उरूज पर रही. इसमें कहीं कोई संकट नहीं आया बल्कि इस बीमारी ने नेताओं को एक और मुद्दा थमा दिया. राजनीति हुई कोई दुख नहीं पर नीति अनीति में राजनीतिक पार्टियों ने कोई भेद नहीं किया.
अगर आप सोच रहे थे कि इस आपदा में व्यक्तिगत नफा नुकसान और पार्टी से ऊपर उठ कर हमारे नेता सोचेंगे, विचार करेंगे और उनके आचरण में ये बदलाव दिखेगा तो ये हमारी गलत फहमी थी. नए स्वरूप की राजनीति न ब्रिटेन में दिखी न अमरीका में, फिर भारत में भला अलग तस्वीर कैसे दिखती.
आपदा में नेताओं का मूल व्यवहार बदला नहीं – सहयोग की उम्मीद बेमानी थी, प्रतिस्पर्धा हावी. सोचने की बात है कि घोड़ा घास से दोस्ती करेगा तो खायेगा क्या?
और इसी विचार पर कायम रहते हुए इस दौरान जम कर राजनीति हुई. सबसे पहले तो तबलीगी जमात से फैले मामलों के बाद, खुल कर देश में हिंदू मुस्लिम की राजनीति हुई. कोरोना के शुरूआती दौर में जमात के नाम पर राजनीतिक नफे नुकसान देखे गए.
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आपदा वाली राजनीति
फिर कोरोना महामारी में लोगों की मदद का दौर शुरु हुआ. जिन राज्यों में इस साल के अंत में या फिर आने वाले साल में चुनाव होने है मसलन पश्चिम बंगाल वहां तो कोविड के नाम पर खुल कर राजनीतिक पार्टियों ने ब्लेम-गेम खेला. भाजपा की स्थानीय ईकाई की शिकायत थी कि ममता बनर्जी सरकार और प्रशासन उनके राहत कार्य में अड़चन डाल रहीं है. उनका आरोप था कि लॉकडाउन के नियमों की आड़ में उनके कार्यकर्ताओं को रोका जा रहा है जबकि त्रिणमूल कार्यकर्ताओं को सहायता कार्य करने दिया जा रहा हैं.
ममता बनर्जी पर केंद्र में बंगाल के नेता और मंत्री, बाबुल सुप्रियो और राज्य सभा सांसद स्वपन दास गुप्ता भी लगातार आपदा को अपने राजनीतिक फायदे के इस्तेमाल का आरोप लगाते रहें. और ये निशाना भी राजनीति चमकाने के लिए ही किया जा रहा था. बंगाल सरकार के कोविड आंकड़ो से लेकर उसके आयुष्मान भारत को लागू न करने जैसे आरोप लगातार केंद्र लगाता रहा तो बंगाल राज्य के साथ केंद्र के सौतेले व्यवहार का आरोप लगाता रहा. मुख्यमंत्रियों की बैठक में तो ममता ने पॉलिटिक्स की बात भी कह भी दी ममता भी आक्रामकता प्रतिस्पर्धात्मक राजनीति करने में व्यस्त रहीं..
पलायन करते मजदूरों में मौका
सहायता सामग्री तो नेताओं के लिए हमेशा प्रचार का अच्छा ज़रिया रही है और इस समय जब इतने दिहाड़ी मज़दूर बेरोजगार हो गए हैं तब केंद्र हो या राज्य सभी को उनमें वोट दिख रहे हैं रहा है और जैसी कि कहावत है कि हर मुश्किल में एक संभावना होती है- सभी ने इसमें भी संभावनाएं खोज लीं है.
खाने के पैकेट बांटें तो उसमें भी अपना चेहरा और पार्टी का नाम जोड़ दिया. ये मर्ज़ पंजाब के मुख्यमंत्री अमरिंदर सिंह हो या हरियाणा के मुख्यमंत्री और उप मुख्यमंत्री, मनोहरलाल खट्टर और दुष्यंत चौटाला हो या छत्तीसगढ़ के मुख्यमंत्री भूपेश बघेल या फिर ममता बनर्जी – सभी को बराबर से लगा. आक्षेप भी लगाए गए जबकि इस काम में हर पार्टी बराबर की दोषी थीं. सेवा में सभी दल मेवा ढ़ूढ़ते रहे.
जब कोरोना संकट के बीच मज़दूरों के पलायन का मामला बढ़ा – सड़कों पर भूखे प्यासे चलते मज़दूरों ने सरकार के लॉकडाउन के फायदे को छूमंतर कर के दिखाया तब सभी राजनीतिक दलों को इस विपदा में बंपर राजनीतिक फसल काटने का मौका नज़र आने लगा.
नरेंद्र मोदी सरकार जो अब तक कोविड पर नियंत्रण के अपने रिकॉर्ड पर कान्फिडेंट दिख रही थी वह भी भूखे प्यासे मज़दूरों की तस्वीरें जो सोशल मीडिया और पारंपरिक संचार माध्यमों में छा गईं, से चिंतित दिखी. सभी दलों ने इसमें भी एक मौका तलाश लिया.
रेल खुलवाने पर जोर दिया जाने लगा और हर राज्य अपने प्रवासियों के लिए सबसे अच्छा दिखने की होड़ में जुट गया. संघीय सहयोग की अवधारणा जल्द ही राजनीतिक होड़ में बदल गई. कौन ज्यादा हितैशी है किसने कितनी रेल किराय़े पर ली, इस पर राजनीति की बिसात बिछने लगी. श्रमिक एक्सप्रेस के ज़रिए राजनीतिक आरोप प्रत्यारोप का दौर चला.
चूकि बंगाल में चुनाव हैं यहां मामला गर्म भी ज्यादा हुआ. ममता बनर्जी ने 105 ट्रेन रोज चलाने की बात की तो भाजपा ने तंज कसा कि ममता अपने मज़दूरों का ख्याल नहीं रख रहीं उन्हें वापिस बंगाल नहीं बुलाना चाहतीं. रेल मंत्री पीयूष गोयल भी राजनीतिक बयानबाज़ी में पीछे नहीं रहें. श्रमिकों का रेल भाड़ा कौन देगा, इस पर भी राजनीति हुई. कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी ने मजदूरों का किराया देने का ऑफर किया, राहुल गांधी ने किराये के बहाने पीएम केयर्स पर निशाना साधा, भाजपा का तर्क था कि कांग्रेस राजनीति कर रहीं हैं.
सेवा से मेवा
अब प्रियंका गांधी ने बस भेजकर मजदूरों की मदद का ऑफर दिया और यूपी सरकार को कॉर्नर करने की कोशिश की. योगी सरकार ने बसों के रजिस्ट्रेशन मांग कर कांग्रेस को बैकफुट पर लाने की कोशिश की तो प्रियंका गांधी ने सोशल मीडिया पर राजनीति न करने की योगी सरकार को हिदायत दी और कहा कि कांग्रेस सेवा भावना से काम कर रही हैं. इस बीच बसें खाली रही, मज़दूर मजबूर और राज-नीति अनीति की राह पर.
मध्य प्रदेश में तो राजनीति इस कदर हावी हुई कि न कांग्रेस नेता और राज्य के तब मुख्यमंत्री कमल नाथ और न हीं उन्हें हटा सत्ता पर काबिज हुए शिवराज चौहान का ही इसपर ध्यान था. वहां तो रिज़ोर्ट पॉलिटिक्स और बहुमत हासिल करने के दावपेंच में इतने व्यस्त थे कि जनता के प्रति ज़िम्मेदारी और बीमारी दोनों भूली जा चुकी थी. इसका नतीजा था राज्य में तेजी से बढ़ा संक्रमण और सुविधाओं की कमी.
अब भाजपा और उसके समर्थक गमछा चूर्ण के रास्ते राज्य उपचुनावों को साधने में जुट गए है. नेता चुनावी राजनीति में व्यस्त है और सभी घोषणाओं के केंद्र में वोट बैंक को साधना है.
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किसान के बहाने बिहार
बिहार साधने के लिए जहां वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण को सरकार के 20 लाख करोड़ के आर्थिक पैकेज में मखाने की खेती करने वाले किसान याद आए जैसे मोदी को हुनर हाट में लिट्टी का स्वाद चोखा लगा था. वहीं राज्य में कोरोना पर जम के राजनीति हो रही है. राशन वितरण से लेकर टेस्टिंग, क्वारेंटाइन व्यवस्था और प्रवासी मजदूरों की हालत राजनीतिक बयानबाज़ी की उपजाऊ जमीन बन गए. तेजस्वी यादव एक्टिव दिखे, प्रवासियों के लिए बसों का इंतजाम किया और सत्ताधारी भाजपा पर आक्रामक रहें.
कुल मिलाकर कोविड ने राजनीतिक रस्साकशी कम नहीं की बल्कि इस दौर में जमकर राजनीति हुई औऱ ये सारी राजनीति स्वस्थ्य राजनीति नहीं थी- इसमें उतनी ही नकारत्मकता और प्रतिद्वंदिता थी जैसे आम दिनों में होती है. फर्क ये था कि न जलसे थे, न जुलूस, न विरोध प्रदर्शन – लॉकडाउन के दौर में और उसके बाद भी ज़ूम एप के जरिए और सोशल मीडिया की सहायता से आक्रामक राजनीति जारी रही और नेता नीति अनीति का भेद भूल वैसी राजनीति में जुटे रहें जिसपर श्रीलाल शुक्ल रागदरबारी लिख गए और जिसने जनता के मन में राजनीति और नेताओं के प्रति घृणा का भाव ही पैदा किया है.
(उक्त विचार निजी हैं)