वित्तमंत्री निर्मला सीतारमण द्वारा ‘आत्मनिर्भर भारत पैकेज’ के पांचवें और अंतिम भाष्य से पहले नरेन्द्र मोदी सरकार के कट्टर आलोचकों को भी उम्मीद नहीं रही होगी कि प्रधानमंत्री ने देशवासियों के नाम अपने संदेश में कोरोनावायरस की आपदा को अवसर में बदलने की जो बात कही है, उसका अर्थ यह है कि आपदा जब तक आपदा रहेगी, देशवासियों के नाम रहेगी और जैसे ही अवसर में बदलेगी, निजी क्षेत्र के नाम हो जायेगी.
गत रविवार को वित्त मंत्री ने संवाददाताओं के समक्ष किये गये उक्त भाष्य में बताया कि आपदा को अवसर बनाने के क्रम में सरकार ऐसी नई लोक उपक्रम नीति ला रही है, जिसमें सारे सेक्टरों को निजी क्षेत्र की कम्पनियों के लिए खोल दिया जायेगा. लोक उपक्रम सरकार द्वारा अधिसूचित चुनिन्दा रणनीतिक क्षेत्रों में ही कारोबार कर पायेंगे और इन अधिसूचित क्षेत्रों में भी उनकी संख्या चार से ज्यादा हुई नहीं कि उनका निजीकरण कर दिया जायेगा.
इस दौरान न किसी ने उन्हें बताने की जुर्रत की और न उन्होंने खुद याद करने की जरूरत समझी कि इसी निजी क्षेत्र के दबाव में किये गये कई मजदूर विरोधी श्रम सुधारों की ‘असीम अनुकम्पा’ से लाॅकडाउन के दो महीनों में ही बड़ी संख्या में प्रवासी और दिहाड़ी मजदूर न घर के रह गये हैं और न घाट के.
लाॅकडाउन ने उनकी कलाई मरोड़कर न सिर्फ उनसे उनके पुराने रोजगार छीन लिये हैं बल्कि नये का सपना तक उनके पास नहीं रहने दिया है इसका सारा ‘श्रेय’ उस निजी क्षेत्र को ही जाता है. जिसने आपदा के वक्त उनके हकों से तो मुंह फेर ही लिया है, चैरिटी या कि दान-पुण्य की परम्परागत भावना से भी उन पर कोई रहम करने को तैयार नहीं है.
स्वास्थ्य के क्षेत्र में बदलाव की कहानी
गनीमत है कि वित्तमंत्री ने स्वास्थ्य क्षेत्र में सरकारी निवेश बढ़ाने, बुनियादी स्वास्थ्य सुविधाओं के ढांचे को मजबूत करने और राष्ट्रीय डिजिटल स्वास्थ्य मिशन का ब्लू प्रिंट बनाने की बात कही है. साथ ही उन्होंने यह भी बताया कि सारे सरकारी जिला अस्पतालों में संक्रामक रोगों के लिए विशेष ब्लाॅक और प्रखंड स्तर पर जनस्वास्थ्य प्रयोगशालाएं बनाई जायेंगी.
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इससे लगता है कि वे अपने मुंह से भले न कहें, उन्हें इसका इल्म है कि कोरोना के विरुद्ध लड़ाई में निजी अस्पतालों और संस्थानों को शामिल करने के सरकार के प्रयत्नों को निजी क्षेत्र ने कितने असहयोगी और निरुत्साहित करने वाले अन्दाज में लिया.
हम जानते हैं कि पिछले कई दशकों से निजी स्वास्थ्य क्षेत्र के मुनाफे का मार्ग बढ़ते-बढ़ते गरीबों के गुर्दों और दूसरे अंगों की चोरी व कारोबार तक जा पहुंचा है, जबकि सरकार सरकारी स्वास्थ्य सुविधाओं को बाकायदा नीतियां बनाकर बदहाल करती आ रही हैं. ऐसे में कठिन कोरोनाकाल से सामना हुआ तो आम स्वास्थ्य सेवाएं सुलभ कराने में ही हांफ रहे इस क्षेत्र की संक्रमण जांच की क्षमता को जवाब देना ही था. तब सरकार ने निजी क्षेत्र की प्रयोगशालाओं को इस जांच से जोड़ने की कोशिश की तो जैसा कि बहुत स्वाभाविक था, वे अपनी मुनाफाखोरी से कोई समझौता करने को तैयार नहीं हुईं. इसके लिए उन्होंने अदालत का दरवाजा भी खटखटाया और सरकार पर दबाव भी बनाया.
आज की तारीख में सरकार नहीं कह सकती कि कोरोना के खिलाफ उसकी जंग में निजी क्षेत्र उसका दाहिना तो क्या, बायां हाथ बनकर भी सहयोग को उपस्थित है. ऐसा होता तो दो एक मिलकर ग्यारह हो जाते और बहुत संभव था कि अब तक कोरोना के संक्रमण की चेन टूट गई होती. लेकिन इसके विपरीत निजी क्षेत्र के सुपरस्पेशियलिटी अस्पताल भी हालात की गम्भीरता से आपराधिक निर्लिप्तता बरत रहे हैं और उनके डाॅक्टर व चिकित्साकर्मी जरा-सा भी जोखिम उठाने को तैयार नहीं हैं.
एक ओर मजबूर सरकार संक्रमितों को क्वारेंटीन करने के लिए होटलों वगैरह के अधिग्रहण जैसे कदम उठा रही है और दूसरी ओर निजी अस्पताल क्वारेंटीन सेंटरों के तौर पर भी अपना उपयोग कराने में बहाने बना रहे हैं. इस कठिन समय में कई गम्भीर गैरकोराना बीमारियों से पीड़ित कई मरीजों की जान इसलिए नहीं बचायी जा सकी कि निजी अस्पतालों ने उन्हें ऐन वक्त पर भर्ती करने और उनका समुचित इलाज करने से इनकार कर दिया.
उत्तर प्रदेश में एक निजी अस्पताल ने तो मरीजों को भर्ती करने के लिए अजीबोगरीब शर्त रख दी. यह कि वे अपने कोरोनासंक्रमित न होने का प्रमाणपत्र लेकर ही भर्ती होने आये.
सरकारी अस्पताल और डाॅक्टर इस काल से पहले जैसे भी रहे हों और उनकी कितनी भी आलोचना क्यों न की जाती रही हो, आज इस बात को शिद्दत से महसूस किया जा रहा है कि कहीं वे भी निजीकरण की आंधी के शिकार हो गये होते तो आज कोरोना को हराने के हमारे प्रयत्नों का कितना बुरा हाल होता.
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सरकार को इस स्थिति से सबक लेना चाहिए था और इसकी रौशनी में सार्वजनिक उपक्रमों की अंधाधुध बिक्री और निजी क्षेत्र के लिए पलक-पांवड़े बिछाने की नीति से कदम पीछे खींच लेने चाहिए थे. लेकिन जानकारों की मानें तो उसके द्वारा स्वास्थ्य के क्षेत्र में सरकारी निवेश बढ़ाने का भी शायद ही कोई बड़ा फायदा हो, क्योंकि इससे इस क्षेत्र को निजी स्वास्थ्य क्षेत्र के बेवजह के लटकों-झटकों से अस्वस्थ प्रतिद्वंद्विता से निजात नहीं मिलने जा रही. उलटे सरकार जिस तरह निजी क्षेत्र के लिए सारे दरवाजे खोल रही है, इसके और बढ़ने के ही अंदेशे हैं.
आमने-सामने
सरकार वास्तव में इस आपदा को अवसर में बदलना चाहती तो उसे समग्र स्वास्थ्य नीति के साथ बिना किसी राजनीतिक राग-द्वेष के केरल व राजस्थान जैसे राज्यों के कोरोना से लड़ने के सफल माॅडलों का, जो सरकारी स्वास्थ्य तंत्र के बेहतर इस्तेमाल से ही संभव हुए हैं, देश भर में उपयोग करना चाहिए था. लेकिन उसका बेहद अस्वस्थ किस्म का पुराना अहं कोरोनाकाल में भी उसे विपक्ष के साथ मिलकर कदम बढ़ाने से रोके हुए है. इस कदर कि प्रमुख विपक्षी पार्टी कांग्रेस द्वारा मजदूरों की घर-वापसी के लिए जुटाई गई बसों के इस्तेमाल में भी उसे अपनी हेठी और उसका ड्रामा दिख रहा है.
यह और बात है कि उसके पास न विपक्ष के इस सवाल का जवाब है कि क्या मजदूरों की दुर्दशा उसे ड्रामा नजर आती है, न इस सवाल का कि क्या वह महामारी के बहाने सारा देश निजी क्षेत्र को बेच देगी और न इसका कि क्या उसे देश के लोकतंत्र की तनिक भी चिन्ता नहीं रह गई है? गौरतलब है कि ये सवाल तब पूछे जा रहे हैं, जब सरकार और उसकी आर्थिक नीतियों का नीतिगत विपक्ष बचा ही नहीं है. इस विपक्ष को भी सरकार द्वारा पकड़ ली गई अंधाधुंध निजीकरण की राह रास नहीं आ रही तो कल्पना जा सकती है कि हालात कितने संगीन हैं.
प्रसंगवश, निजी क्षेत्र का हमारे देश का ही नहीं, दुनिया भर का इतिहास गवाह है कि जब भी अर्थव्यवस्था में बूम आता है, वह उसके लाभों में सबसे बड़ा हिस्सेदार बन जाता है, लेकिन जैसे ही बुरे दिन आते हैं, वह बूम के पीड़ितों से ही उनकी भरपाई कराने पर आमादा हो जाता है.
गरीबी-मौका और महंगाई
आम जनता के महंगाई, बेकारी, काम-धंधों में गिरावट और घर, शिक्षा व स्वास्थ्य वगैरह के संकटों में भी उसे अपने मुनाफे की ही तलाश रहती है. वह चाहता है कि उसकी लूट की छूटों पर कतई किसी तरह की कोई आंच न आये, जबकि आम लोगों को तिनके के सहारे की तरह मिल रही सब्सिडियां भी समाप्त कर दी जायें. लाभ के निजीकरण और घाटे के राष्ट्रीयकरण का उसका पुराना राग अभी भी मद्धम नहीं पड़ा है. ऐसे में उसने संकट की इस घड़ी में हमें रोजगारहीन विकास की थोड़ी-बहुत सौगात दी भी, तो देश के लिए उसका हासिल क्या होगा? खासकर उन मजदूरों के लिए, तब उसकी दया-माया पर जिनकी निर्भरता और बढ़ जायेगी.
फिर भी सरकार समझती है कि कोरोना काल में यह क्षेत्र किसी और तरह से रिएक्ट करेगा और इसीलिए वह उसके जी भर कुलांचने के लिए देश को उसका अभयारण्य बना रही है, तो वह दिन में तारे देखने की गलती कर रही है. हां, यहां रेखांकित करने की जरूरत है कि आपदा को इस तरह अवसर में बदलने के काम में वह अकेली ही नहीं लगी हुई है. वे शक्तियां भी सक्रिय हैं, जो इस आ पदा को भी अपने साम्प्रदायिक एजेंडे के लिए इस्तेमाल करना चाहती हैं.
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कई संगठनों के निकट यह आपदा किसी मजबूर को एक वक्त का खाना खिलाकर अथवा एक किलो आटा देकर उसके साथ फोटो खिंचाने और अपनी दरियादिली प्रदर्शित व प्रचारित करने का अवसर बन गई है, जबकि उन निजी भारवाहनों के लिए भी यह अवसर ही है, जो सरकारी अमले की मिली भगत से मजदूरों से अनाप-शनाप किराया लेकर उन्हें मवेशियों की तरह लादकर ले जा और ठग या हादसों का शिकार बना रहे हैं. तिस पर ऐसे लोगों की भी कमी नहीं है, जो फिजिकल डिस्टेंसिंग को बार-बार सोशल डिस्टेंसिंग का नाम दे रहे और उसकी बिना पर छुआछूत के पुराने कोढ़ का औचित्य सिद्ध कर उसे वैध करार देने में लगे हैं.
सवाल है कि इस आपदा को ऐसे ही अवसरों में बदला गया तो हमारे हाथ आने वाले अवसर किसी नई आपदा से क्यों कर कम होंगे? बेहतर होगा कि समय रहते इस सवाल के जवाब की तलाश आरंभ कर दी जाये.
(लेखक जनमोर्चा अख़बार के स्थानीय संपादक हैं, इस लेख में उनके विचार निजी हैं)