उत्तरी कश्मीर के हंदवाड़ा में रविवार को एक मुठभेड़ में चार सैनिकों और एक पुलिसकर्मी की मौत से भारत के सुरक्षा प्रतिष्ठान में चिंता और दुख की लहर दौड़ गई. इन पांच मृतकों में दो बार सेना पदक (वीरता) से सम्मानित सेना की 21 राष्ट्रीय राइफल्स यूनिट के कमांडिंग ऑफिसर भी शामिल थे.
अगले ही दिन आतंकवादियों के एक गिरोह ने सीआरपीएफ के तीन जवानों की जान ले ली. इस हमले से संबंधित तस्वीरों को देखकर साफ पता चल जाता है कि जवानों की मौत अंधाधुंध गोलीबारी से नहीं हुई, जैसा कि रिपोर्टों में बताया गया था, बल्कि उन्हें सिर में गोली मारी गई थी.
और बुधवार को, सुरक्षा बलों ने कश्मीर में भारत के मोस्ट वांटेड आतंकवादी रियाज़ नायकू को एक मुठभेड़ में मार गिराया.
सोशल मीडिया में खुशी की लहर दौड़ गई और कइयों ने हंदवाड़ा का बदला लिए जाने का दावा किया. लेकिन कैसे, मैं समझ नहीं पा रहा हूं?
समयपूर्व जश्न
हंदवाड़ा मुठभेड़ में शामिल आतंकवादी लश्करे तैयबा के थे, जबकि नायकू का संबंध हिज़बुल मुजाहिदीन से था.
वैसे लश्कर प्रमुख को भी मार दिया जाता है तो उसे भी बदला लेना नहीं माना जाएगा. उसके लिए पाकिस्तानी सेना या आईएसआई को चोट पहुंचनी चाहिए.
पाकिस्तानी जनरलों के लिए आतंकवादियों की अहमियत गोला-बारूद से अधिक नहीं है. और भारत के लिए, उन आतंकवादियों को मार गिराना हौसला बढ़ाने वाली उपलब्धि होती है.
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भारत के सुरक्षा बल अपना दायित्व निभा रहे हैं, लेकिन यदि आंकड़ों पर गौर करें तो सुरक्षाकर्मियो की मौत बनाम आतंकवादियों की मौत के आंकड़े चिंता का कारण प्रतीत होते हैं.
पहली अप्रैल से आज की तारीख तक नियंत्रण रेखा पर और कश्मीर के अंदरूनी इलाकों में कुल करीब 36 आतंकवादी मारे गए हैं.
उसी अवधि में आतंकवादियों से मुठभेड़ में या आतंकी हमलों में कम-से-कम 20 सुरक्षाकर्मियों की मौत हो गई. इनमें सेना, सीआरपीएफ और जम्मू कश्मीर पुलिस के जवान शामिल थे.
सबसे अच्छा तो ये होगा कि किसी आतंकरोधी अभियान में सभी आतंकवादियों को मार गिराते हुए कोई सुरक्षाकर्मी हताहत नहीं हो, पर हमें पता है कि ऐसी आदर्श स्थिति संभव नहीं हो सकती.
फिर भी, बड़ी संख्या में सुरक्षाकर्मियों का जान गंवाना संबंधित अधिकारियों के लिए चिंता का सबब होना चाहिए.
मौत का महिमामंडन रुके
सबसे पहले तो भारत को सैनिकों की मौत का महिमामंडन रोकना होगा. निश्चय ही हमें संघर्ष में जान गंवाने वाले हर सैनिक का सम्मान और आदर करना चाहिए, लेकिन उनका बलिदान बस गिनतियों में शामिल होकर नहीं रह जाए. सोशल मीडिया पर और व्हाट्सएप पर फॉरवार्ड किए जाने वाले संदेशों में महिमामंडन से आगे मृत सैनिक महज आंकड़ा बनकर रह जाते हैं.
सुरक्षा प्रतिष्ठान के आला अधिकारियों को हर सैनिक की मौत पर आक्रोशित होना चाहिए. भारत को इस संबंध में बिल्कुल बर्दाश्त नहीं करने की नीति अपनानी चाहिए.
पूर्व सैनिक कमांडर जनरल एचएस पनाग (सेवानिवृत) का मानना है कि सेना को दिखावे के प्रदर्शन के बजाय अब कश्मीर में अपनी कमज़ोरियों पर ध्यान केंद्रित करना चाहिए.
तत्कालीन रक्षा मंत्री मनोहर पर्रिकर 2015 में कश्मीर में भारतीय पक्ष में लगातार हो रही जनहानि को लेकर परेशान थे. उन्होंने कहा था, ‘सेना को मेरा निर्देश बिल्कुल स्पष्ट है. जहां तक संभव हो, ये सुनिश्चित करें कि आपके लोग नहीं मारे जाएं.’
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अत्यंत क्रुद्ध पर्रिकर ने तत्काल मुठभेड़ पर उतारू होने की ज़रूरत पर सवाल खड़ा किया था. उनका मानना था कि सुरक्षा बलों को अनावश्यक जोखिम उठाने के बजाय इंतजार करना चाहिए. पर्रिकर एक सैनिक की ज़िंदगी को उसकी ‘शहादत’ के मुक़ाबले अधिक महत्वपूर्ण मानते थे.
दुनिया भर की सेनाएं शत्रु से लड़ाई में हुई मौत को अधिक सम्मान और इज़्ज़त देती हैं. लेकिन समस्या जान गंवाने वाले सैनिकों के सम्मान की नहीं, बल्कि उनकी मौत को इतना अधिक महिमामंडित करने की है कि जिसके कारण हम ऐसी क्षतियों को लेकर असंवेदनशील हो जाते हैं.
‘शहीद’ कहना भर ही पर्याप्त नहीं
समस्या ‘शहीद’ शब्द के इस्तेमाल की भी है.
पाकिस्तानी सेना और दुनिया के अनेक इस्लामी देशों की सेनाएं अपने सैनिकों की मौत को शहादत का दर्जा देती हैं. ऐसा इसलिए क्योंकि उनका हर काम अल्लाह के नाम पर होता है. ऑक्सफोर्ड शब्दकोश के अनुसार शहीद वो व्यक्ति है ‘जिसने अपनी धार्मिक या राजनीतिक आस्था के कारण जान गंवाई हो’.
रक्षा और गृह मंत्रालय दोनों ने ही 2017 में केंद्रीय सूचना आयोग को सूचित किया था कि सेना और पुलिस की शब्दावली में ‘मार्टर’ या ‘शहीद’ जैसा कोई शब्द नहीं है, इसके बजाय कार्रवाई के दौरान मारे गए सैनिकों या पुलिसकर्मियों के लिए क्रमश: ‘बैटल कैजुअल्टी’ और ‘ऑपरेशंस कैजुअल्टी’ का इस्तेमाल किया जाता है.
इसी तरह, 2016 में गृह मंत्रालय ने लोकसभा को सूचित किया था कि संघर्ष में भारतीय सशस्त्र बलों के हताहत सदस्यों के लिए ‘शहीद’ शब्द का उपयोग नहीं किया जाता है. रक्षा मंत्रालय ने भी 2015 में यही जानकारी दी थी.
लेकिन, नियमों में स्पष्टता के बावजूद बहुत से लोग संघर्ष में मृत जवानों के महिमामंडन के लिए उत्तरोत्तर शहीद शब्द का उपयोग करते जा रहे हैं. इसका उपयोग इस कदर बढ़ चुका है कि अब तो सशस्त्र सेनाएं भी अपनी प्रेस विज्ञप्तियों और ट्वीटों में संघर्ष में जान गंवाने वाले सैनिकों को शहीद कहने लगी हैं.
मौत के महिमामंडन से बचा जाना चहिए. ये वक्त ज़िंदगी को महिमामंडित करने का है.
(व्यक्त विचार लेखक के निजी हैं.)
I agree with you and the army should change their strategy.
Good one sir