प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने 14 अप्रैल को देश में लॉकडाउन 2.0 का ऐलान करते हुए देशवासियों से सप्तपदी का पालन करने की अपील की थी. इन सात अपीलों में उनकी एक अपील उद्योग जगत से भी थी. प्रधानमंत्री ने देश के उद्योगपतियों और कारोबारियों से अनुरोध किया था कि वे इस मुश्किल दौर में अपने कर्मचारियों को काम से न हटाएं.
लेकिन जीवन और जीविका बचाने की इस जंग में रोजगार का मोर्चा कमजोर दिखाई देने लगा है.
कंपनियों ने अब साफ तौर पर कहना शुरू कर दिया है कि सिर्फ अपील से क्या होता है? सरकार से बड़े राहत पैकेज मिले बगैर उद्योगों के लिए कर्मचारियों को ज्यादा दिन तक बिठाकर वेतन देना मुश्किल होगा. कुछ सेक्टरों में छंटनियां शुरू हो चुकी हैं और कुछ सेक्टरों में बड़ी तादाद में लोगों को नौकरियां से निकाले जाने का अंदेशा है.
बेरोजगारी की भयावह तस्वीर
तस्वीर चिंताजनक है. अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष (आईएमएफ), वर्ल्ड बैंक और अंतराष्ट्रीय श्रमिक संगठन (आईएलओ) और सीएमआईई जैसी संस्थाओं और एजेंसियों ने बड़े पैमाने पर नौकरियां जाने की आशंका जताई है. भारतीय अर्थव्यवस्था की हालत को ट्रैक करने वाली सीएमआईई के मुताबिक लॉकडाउन की वजह से शहरों में बेरोजगारी दर 23 फीसदी तक चले जाने की आशंका है. आईएलओ ने कहा है कि भारत में कोरोनावायरस संक्रमण असंगठित क्षेत्र में काम करने वाले लगभग 40 करोड़ लोगों को और गरीबी में धकेल देगा. ऑक्सफैम की रिपोर्ट कहती है इस संक्रमण की वजह से आई मंदी से दुनिया के 50 करोड़ लोग और गरीबी के गर्त में चले जाएंगे. इनमें बड़ी तादाद भारतीयों की होगी.
लॉकडाउन की फिलहाल सबसे बड़ी मार टूर-ट्रैवल, हॉस्पेटिलिटी, एक्सपोर्ट सेक्टर और सप्लाई चेन से जुड़ी कंपनियों पर पड़ी है. केपीएमजी की एक रिपोर्ट के मुताबिक लॉकडाउन की वजह से भारत की टूरिज्म और हॉस्पेटिलिटी इंडस्ट्रीज में काम करने वाले 3.80 करोड़ लोग बेरोजगार हो सकते हैं. यह इन दोनों इंडस्ट्रीज में काम करने वाले लोगों का 70 फीसदी हिस्सा है.
लॉकडाउन ने भारत से टेक्सटाइल, ज्वैलरी, स्पोर्ट्स गुड्स, कारपेट और दूसरे कंज्यूमर आइटम एक्सपोर्ट करने वाली कंपनियों का कामकाज ठप कर दिया है. इन उद्योगों में पांच करोड़ लोग काम करते हैं. टेक्सटाइल भारत में सबसे ज्यादा लोगों को रोजगार देने वाले सेक्टर में शुमार है.
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लॉकडाउन की सबसे पहली मार सप्लाई चेन से जुड़ी कंपनियों पर पड़ी है और इसकी सबसे ज्यादा शिकार हुए हैं मैन्यूफैक्चरर्स और इसके कर्मचारी. फैक्टरियों में काम रुका पड़ा है. लॉजिस्टिक सेक्टर के पहिये थमे हुए हैं. वर्कर्स घरों में कैद हैं. जो ऑर्डर तैयार हैं उनके भी कैंसिल होने की खबरें आ रही हैं.
इस मुश्किल दौर में भी ये चुप्पी क्यों?
आईएमएफ से लेकर स्टैंडर्ड पुअर्स और यूएन से लेकर क्रिसिल और बार्कलेज बैंक जैसी तमाम एजेंसियां कोरोनावायरस संक्रमण से भारत के ग्रोथ रेट के अनुमान में भारी कटौती कर चुकी हैं. दुनिया भर में 1930 के बाद सबसे बड़ी मंदी की आशंका जता चुके आईएमएफ ने 2020-21 के लिए भारत का ग्रोथ रेट अनुमान 5.8 फीसदी से घटा कर 1.9 फीसदी कर दिया है. बार्कलेज ने पहली बार भारत का ग्रोथ रेट एक फीसदी से भी कम (0.8 फीसदी) कर दिया. यह भारत के इतिहास का सबसे कम ग्रोथ रेट अनुमान है. ऐसा इससे पहले कभी नहीं हुआ था.
लेकिन इससे भी बड़ी चिंता की बात यह है कि दुश्चिंताओं, अनिश्चतताओं और आशंकाओं से भरी अर्थव्यवस्था की इस भयावह तस्वीर के सामने होते हुए भी भारत सरकार से जिस फायर फाइटिंग की उम्मीद थी वह दूर-दूर तक नहीं दिख रही है. कोरोनावायरस से जूझ रहे दूसरे देशों ने अपनी अर्थव्यवस्था और लोगों के रोजगार को बचाने के लिए अपने खजाने खोल दिए हैं. इसकी तुलना में भारत द्वारा अब तक दिया गया पैकेज बेहद कम है.
घटाटोप अंधेरे में इस छोटे से पैकेज से क्या होगा?
अमेरिका ने इस संकट से अपनी अर्थव्यवस्था को उबारने के लिए 2 ट्रिलियन डॉलर यानी अपनी जीडीपी का 10 फीसदी राहत पैकेज के तौर पर दे दिया है. ब्रिटेन अपनी जीडीपी का 15 फीसदी तक बेलआउट पैकेज के तौर पर खर्च करेगा. जर्मनी 10 और जापान अपनी जीडीपी के 20 फीसदी तक राहत पैकेज के तौर पर दे रहा है. फ्रांस ने 5 और कनाडा ने जीडीपी के 4.5 फीसदी के राहत पैकेज का ऐलान किया है. इसकी तुलना में भारत का 1.70 लाख करोड़ रुपये का राहत पैकेज इसकी जीडीपी का महज 0.71 फीसदी के आसपास बैठता है.
प्रधानमंत्री गरीब कल्याण योजना के जरिये दिए गए इस पैकेज का एक बड़ा हिस्सा पेंशन, जन-धन खाता के जरिये लोगों तक पहुंचेगा और तब फिर इकनॉमी में आएगा. इसमें काफी देर होगी. जो पैकेज दिया गया है कि उसकी एक तिहाई रकम सेस के तौर पर पहले ही संग्रह कर लिया गया था. इसका मकसद कांट्रेक्ट पर काम करने वाले मजदूरों के कल्याण स्कीमों में खर्च करना था. इस हिसाब से देखें तो यह पैकेज जीडीपी के 0.71 फीसदी से भी कम बैठता है.
दस लाख करोड़ रुपये का पैकेज भी कम पड़ेगा
देश-विदेश के दिग्गज अर्थशास्त्री दूसरे देशों के मुकाबले कोरोनावायरस से पैदा होने वाली मंदी से लड़ने के लिए मोदी सरकार की ओर से जारी पैकेज से बेहद निराश हैं. खुद सरकार के मुख्य आर्थिक सलाहकार रह चुके अरविंद सुब्रमण्यम ने कहा है कि आईएमएफ और वर्ल्ड बैंक भारत की ग्रोथ का जो अनुमान लगा रहे हैं, वो बहुत उम्मीद भरी तस्वीर है. दरअसल कोरोना की वजह से अगर भारत में एक महीने का उत्पादन भी रुकता है तो ग्रोथ रेट सीधे निगेटिव जोन में चला जाएगा. ऐसे में सरकार को तुरंत बड़ा आर्थिक पैकेज लाना चाहिए.
दुनिया का कोई भी देश इस वक्त न तो अपने राजकोषीय घाटे की चिंता कर रहा है न तो रेटिंग खराब होने की. लोगों के रोजगार और इकनॉमी को बचाने के लिए हर देश ने अपने खजाने खोल दिए हैं. अमेरिका में सीधे लोगों को कर्ज दिया जा रहा है. बेरोजगारी भत्ते के तौर पर कैश मिल रहा है. स्टूडेंट को खुल कर लोन दिया जा रहा है. किरायेदारों को संरक्षण मिल रहा है. बिजनेस में दिक्कत आ गई है तो तुरंत लोन ऑफर किया जा रहा है.
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अमेरिकी सेंट्रल बैंक फेडरल रिजर्व ने तो इन कर्जों की गारंटी ले रखी है. कहने का मतलब यह है कि अगर कर्जदार लोन नहीं चुका पाएगा तो इसकी चिंता बैंकों को नहीं करनी है. फेडरल रिजर्व इसकी भरपाई करेगा. भारत में आरबीआई ने 0.75 बेसिस प्वाइंट यानी पौन फीसदी की रेपो रेट कटौती के जरिये लिक्विडिटी बढ़ाई है. और अब इसने शुक्रवार को एलटीआरओ और रिवर्स रेपो रेट में कटौती के जरिये और एक लाख करोड़ रुपये की लिक्विडिटी बढ़ाई है. लेकिन सरकार की ओर से कोई साफ निर्देश न देने से बैंक खुल कर कर्ज नहीं दे पा रहे हैं. बैंकों को अपने बैलेंसशीट की चिंता है.
करो या मरो के हालात
अब जब भारत में रोजगार, कारोबार और अर्थव्यवस्था एक बड़े भंवरजाल में फंस चुकी है, तो सरकार को तुरंत बड़े राहत पैकेज का ऐलान करना चाहिए. टुकड़े-टुकड़े में छोटे राहत पैकेजों से अब काम नहीं चलने वाला. खास कर रोजगार के मोर्चे से जिस तरह की भयावह खबरें आने लगी हैं, उसमें सरकार को तुरंत कम से कम दस लाख करोड़ रुपये के पैकेज का ऐलान करना चाहिए. ऐसा करना आपात धर्म है. वरना देश को लॉकडाउन के बाद बहुत बड़ी आर्थिक इमरजेंसी का सामना करना होगा. यह इमरजेंसी देश को लगभग दो दशक पीछे ले जाएगी. दूसरे विश्वयुद्ध के बाद की यह सबसे बड़ी त्रासदी भारतीय अर्थव्यवस्था की रीढ़ हमेशा के लिए तोड़ देगी. करोड़ों लोगों की रोजी-रोटी छिन जाएगी और इससे जो सामाजिक तनाव पैदा होगा वह संभाले नहीं संभलेगा.
(लेखिका वरिष्ठ पत्रकार हैं. उन्होंने हिंदी साहित्य पर शोध किया है)