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Friday, 22 November, 2024
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नव-प्रगतिशील सेक्युलर लोगों से पूछा जाना चाहिए कि तबलीगी जमात का मतलब मुसलमान कैसे हो गया

तबलीगी जमात के लोग अपने कृत्यों से दो तरह का नुकसान कर रहे हैं. पहला तो कोरोना संक्रमण को रोकने के लिए सरकार व समाज के अभूतपूर्व प्रयासों में पलीता लगा रहे हैं और दूसरा अपने समुदाय के प्रति समाज में घृणा और अविश्वास की भावना को बल देने का काम भी जानबूझकर कर रहे हैं.

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उत्तर प्रदेश के मुरादाबाद स्थित कोविड-19 हॉटस्पॉट इलाके नवाबपुरा क्षेत्र में हुई एक कोरोना संक्रमित व्यक्ति सरताज की मृत्यु के बाद उसके परिजनों को क्वारेंटाइन कराने के लिए गयी चिकित्सकों की जांच टीम पर हाजी नेब वाली मस्जिद मोहल्ले के निवासियों ने हमला कर दिया. पत्थरबाजी हुई और ख़बरों के मुताबिक़ चिकित्सक समेत सात लोग घायल भी हुए हैं.  सवाल है कि कोविड-19 के कहर के खिलाफ जब देश एकजुट होकर लड़ रहा है, उसी बीच ऐसी घटनाओं को कैसे देखा जाए. या सिर्फ इसे ‘दुर्भाग्यपूर्ण’ विशेषण देकर छोड़ दिया जाए?

सवाल यह उतना बड़ा नहीं है कि ऐसा किया किसने. सवाल यह बड़ा है कि ऐसा करने की सोच कहां से आ रही है? हर विषय इतना सरलीकृत क्यों है और निजी सरोकार के विषयों का भी सामुदायिक सामान्यीकरण कर देने वाले लोग कौन हैं? आखिर कौन सी सोच ऐसे लोगों के दिमाग में भरी गयी है, जिसकी वजह से वे उनकी ही जान बचाने आये चिकित्सकों पर हमला कर देते हैं?

अमेरिका में एक राजनीतिक विज्ञानी हुए जेन शार्प. जेन ने एक शोध में बताया कि किसी लोकप्रिय सरकार को अस्थिर करने के क्या-क्या तरीके हो सकते हैं. ऐसे 198 तरीके उन्होंने बताये हैं. जब देश कठिन परिस्थिति में हो तब भीड़ में छिपकर, भ्रामक प्रचार के माध्यम से भीड़ को उकसाकर, शासन के आदेशों पर अवज्ञा व असहयोग करने जैसे हथकंडों का उल्लेख जेन शार्प ने किया है.

अगर सिलसिलेवार देखें तो पिछले कुछ महीनों में एक के बाद इसी धारणा को मुसलमानों के मन में बिठाने का प्रयास किया गया है कि मोदी सरकार कुछ भी करेगी तो वो मुसलमानों के खिलाफ ही करेगी. सुनियोजित बुवाई, निडाई, सिंचाई करके इस धारणा की जो फसल तैयार की गयी है, वो अब मुसलमानों के बीच सोच बनकर उनके जेहन में बैठ गयी है.

उदाहरण के लिए तबलीगी जमात का मसला ही देखिये. यह धारणा भला कैसे फ़ैल गयी कि ‘जमात’ का पर्यायवाची मानो ‘मुसलमान’ होता है ? ‘जमात’ पर सवाल उठाना मतलब ‘मुसलमान’ पर सवाल उठाना हुआ! ऐसा तब है जब खुद मुसलमानों के अन्य संगठनों का तबलीगी जमात से भारी विरोध है. दारुल उलूम देवबंद ने तो यहां तक आरोप लगाया है कि तबलीगी जमात के मुखिया साद मरकज में मुसलमानों को इस्लाम के बारे में गलत जानकारी देते हैं. यद्यपि तथ्य और सत्य यह है कि ‘जमात’ का पर्यायवाची कतई मुसलमान नहीं होता है! फिर ‘जमात’ पर सवाल उठाना, मुसलमानों पर सवाल उठाना कैसे हो जाता है, इसे समझना होगा.


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देश में ‘सेक्युलरिज्म’ की हिमायत करने वाला बुद्धिजीवी वर्ग भी इस भ्रामक प्रचार पर मुसलमानों के मन में बैठी इस धारणा के लिए कम जिम्मेदार नहीं हैं. कोविड-19 के मामले में जब तबलीगी जमात का नाम आया और निजामुद्दीन मरकज से कोरोना का संक्रमण लेकर जमाती देश के कई राज्यों में गये, तब इस मामले में एक नई बहस ‘तबलीगी जमात’ की भूमिका पर खड़ी हो गयी. आज देश के कई राज्यों में पाए जा रहे कोरोना संक्रमित लोगों में बड़ी संख्या में जमात में शामिल लोग हैं.  तमिलनाडु, आंध्र प्रदेश, तेलंगाना और दिल्ली जैसे राज्यों में तो कुल कोरोना पॉजिटिव मामलों में अधिक संख्या मरकज में शामिल हुए जमातियों की ही है.

जैसे ही कोविड-19 को लेकर ‘जमात’ पर सवाल उठने शुरू हुए ‘नव-प्रगतिशील’ खेमे के बुद्धिजीवियों ने यह चिंता जतानी शुरू कर दी कि कोविड-19 को कम्युनलाइज किया जा रहा है. नव-प्रगतिशीलों के दबाव और खोखले सेक्युलरिज्म के आग्रह ने दबाव के रूप में असर भी किया. ‘जमात’ की पहचान वाले कोरोना मरीजों को ‘सिंगल सोर्स’ लिखा जाने लगा. बारीकी से देखें तो जबतक ‘तबलीगी जमात’ की भूमिका पर सवाल उठ रहे थे, तब तक मामला सिर्फ एक इस्लाम का प्रचार करने वाले संगठन तक केन्द्रित था. लेकिन ‘तबलीगी जमात’ को सीधे-सीधे ‘मुसलमानों’ से जोड़कर इस नव-प्रगतिशील खेमे ने मामले को कम्युनलाइज कर दिया. निश्चित ही किसी संगठन, संस्था की गलत-सही भूमिका पर सवाल उठना, कतई कम्युनल बहस जैसा नहीं है. इन नव-प्रगतिशील सेक्युलर खेमे के लोगों से पूछा जाना चाहिए कि किस शब्दकोष में ‘तबलीगी जमात’ का अर्थ मुसलमान होता है?

खैर, इस गलती का असर व्यापक तौर पर मुसलमानों के बीच पड़ा है. अब सामान्य मुसलमानों में भी यह भावना घर कर गयी है कि ‘जमात’ का मतलब मुसलमान होता है. ‘जमात’ की निंदा मुसलमानों की निंदा है. यही कारण है कि जो बहस महज एक संगठन की भूमिका पर थी अब दो तरफा मुसलमानों की भूमिका पर आ टिकी है. क्या इसके लिए देश का ‘नव-प्रगतिशील’ सेक्युलर खेमा अपनी जिम्मेदारी लेगा?

इस मामले में स्थिति संभलने की बजाय और बिगड़ इसलिए भी गयी क्योंकि तबलीगी जमात के लोगों ने अत्यंत आश्चर्यजनक ढंग से गैर-जिम्मेदाराना और समाज के लिए खतरनाक स्थितियां पैदा कर दी.

देखा जाये तो तबलीगी जमात के लोग अपने कृत्यों से दो तरह का नुकसान कर रहे हैं. पहला तो कोरोना संक्रमण को रोकने के लिए सरकार व समाज के अभूतपूर्व प्रयासों में पलीता लगा रहे हैं और दूसरा अपने समुदाय के प्रति समाज में घृणा और अविश्वास की भावना को बल देने का काम भी जानबूझकर कर रहे हैं.

बेशक कोरोना नामक इस अदृश्य खतरे के खिलाफ लड़ाई में विभाजनकारी चर्चाओं के लिए कोई जगह नहीं है. यह समय एकजुट होकर सिर्फ इसपर कार्य करने का है कि कोरोना के संकट से देश को बाहर कैसे निकाला जाए.


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लेकिन बड़ा सवाल यह है कि एका और सौहार्द की जिम्मेदारी किसकी है? राहत इंदौरी का एक शेर है- ‘न किसी हमसफर न हमनशीं से निकलेगा, हमारे पांव का कांटा हमी से निकलेगा ‘. अर्थात, इस कांटे को जिन लोगों ने बोया है, अब निकालने के लिए भी उन्हें ही आगे आना होगा. यह समय रेत में सिर धंसाकर अंधेरे की अनुभूति करने का नहीं है.

उन्हें एक स्वर में जमात की इस गैर-जिम्मेदाराना हरकत की निंदा करते हुए, इसपर कार्रवाई की मांग करनी चाहिए. अगर मुसलमान समुदाय ऐसा करता तो अविश्वास की भावना स्वत: कम होती. किंतु यह सच है कि अभी तक ऐसी भावना इस समुदाय की तरफ से नहीं दिखाई गयी है. इसका नुकसान यह हो रहा है कि अनेक जगहों से आ रही ऐसी खबरें भी असरहीन हो रहीं हैं, जहां हिन्दू-मुसलमान एकजुट होकर कोरोना के खिलाफ इस लड़ाई को लड़ रहे हैं.

(लेखक डॉ श्यामा प्रसाद मुखर्जी रिसर्च फाउंडेशन में सीनियर रिसर्च फेलो हैं) 

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2 टिप्पणी

  1. गैर जिम्मेदाराना और बचकाना लेख, नव-प्रगतिशील सेक्युलर लोगों से प्रसन्न करते हुए लेखक शायद यह भूल जाते हैं कि देश के मार्गदर्शन और जनता को विश्वास में लेने का जिम्मा उठाने वाले पिछले कई सालों से एक विशिष्ट समूह को जिस तरीके से भयभीत किया है कि किसी अन्य को प्रयास करने कि जरूरत ही नहीं। किसी कुत्ते को सालों साल लात मारते रहीए तो भूख से मर जाए गा लेकिन आप के पास नहीं आए गा। सरकार ने अपने प्रति उनके बीच जो निष्ठा खोई है वो एक आवाज से नहीं भरने वाली। और ऐसा ही चलता रहा तो क्षेत्रातीत निष्ठा में बदल जाए गी। मामला सामने आने से लेकर अबतक कोई ऐसा प्रयास नहीं दिखता को अन्य मुस्लिम देशों के प्रयासों का उदाहरण दे कर या उनके ही समुदाय के प्रतिनिधियों को विश्वास में ले कर सरकार उन तक अपने नेक इरादे पंहुचा सके। बल्कि इसके उलट अपने नुमाइंदों के माध्यम से अपनी गलतियों का ठीकरा उनके सर मढ़ने के प्रयास में लगी रही। अपने अतीत से भी सीख लेती कि कैसे चेचक को माता से संक्रामक बीमारी मात्र, तक ले आए है। किसी की मूर्खता कों उसकी पहचान बना देना आप कि मूर्खता का द्योतक होता है। लेखक जिन नव-प्रगतिशील सेक्युलर लोगों को इसका जिम्मे दार मानते हैं वो निश्चित ही यह भी मानते होंगे कि संसाधनों पे परिपूर्ण सरकार नव-प्रगतिशील सेक्युलर होने के दावे, जो हर जगह ठोकती फिरती है सबका साथ सबका विकास मात्र एक दिखावा है। 30 जनवरी को पहला मरीज मिला और सरकार अब तक किसी मजबूत रणनीति पर काम करती नजर नहीं आ रही। तब आप अंदाजा लगा सकते हैं कि जिस देश काल में हम है वो भगवान भरोसे ही है। तो कृपा कर के प्रश्न पूछने से पहले समस्या समझ लें।

  2. Secularism shabd ka antahkaran karna har kisi ke bas me ni h, secularism me nuks nikalna asan h, pr usse behtar vikalp pr koi vichar ni krta…. har ek manushya pahle manushya hi h, uspe baki rang to bad me chadte h, thodi khud ki samajh aur bahut jyada media ka chola aisa chadta h ki, secularism kewal apni satah pr rah jata h, aur jado me kuch aur hi beej boya jata h !
    Janta ko wahi najar ata h, jo shashak varg ki mansha hogi, itne lambe arse ke bad bhi agar ham janta ka vishwas jeetne me asamarth hai, to dosh secularism ko kyu dena.

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