लॉकडाऊन-1 के वक्त बहस जीवन बनाम जीविका की धुरी पर गढ़ी गई. लेकिन अब जबकि प्रधानमंत्री ने राष्ट्रव्यापी लॉकडाऊन की अवधि को फिर से बढ़ाने का ऐलान किया है और वो भी बिना सामाजिक-सुरक्षा कवच में कोई विस्तार किये तो साफ है कि लॉकडाऊन को लेकर चलने वाली बहस की धुरी बदल गई है. लॉकडाऊन-2 को लेकर चलने वाली बहस की धुरी जीवन बनाम जीवन की बन चली है. दूसरे शब्दों में एक कहें दो सिरों के बीच एक संतुलन बैठाना है जिसमें एक सिरे पर साफ दिख रहा है कि कुछ की जिंदगी खत्म हो रही हैं जबकि दूसरे सिरे पर बहुतों की जिंदगी खत्म होने को है भले ही जिंदगियों की ये नाश-लीला नजर से जरा ओझल है.
अगर इन दो छोरों के बीच खींच-तान से निकलती सच्चाई को एक पंक्ति में कहना चाहें तो नजर आयेगा कि प्रधानमंत्री ने जिस दूसरे चरण के लॉकडाऊन की घोषणा की है उसके फायदों पर उसके नुकसान कहीं ज्यादा भारी पड़ने वाले हैं.
लॉकडाऊन से निकलती तस्वीर का एक उजला पक्ष ये है कि इससे कुछ दिनों के लिए हमें कोरोना-संक्रमण की वृद्धि की दर को कम करने में मदद मिली है. बीते 24 मार्च से 14 अप्रैल के बीच तीन हफ्तों के दरम्यान कोरोना-संक्रमण के मामले 536 से बढ़कर 10,815 पर पहुंचे हैं. अगर हम इस आंकड़े की तुलना दूसरे देशों से करें और देखें कि उन देशों में कोरोना संक्रमित मरीजों की तादाद ने कब 500 का आंकड़ा पार किया और इसके बाद के तीन हफ्तों में ये आंकड़ा उन देशों में कहां तक पहुंचा तो साफ नजर आयेगा कि भारत ने बाकी देशों की तुलना में बेहतर किया है. अगर तीन हफ्ते की अवधि के आधार पर तुलना करें तो नजर आयेगा कि ब्रिटेन में कोरोना संक्रमित मरीजों की संख्या 500 की तादाद पार करके 38 हजार पर जा पहुंची थी. इटली में कोरोना-संक्रमित मरीजों की तादाद इस अवधि में 41 हजार, जर्मनी में 50 हजार, स्पेन में 73 हजार और फ्रांस तथा अमेरिका में लगभग 1 लाख तक पहुंच गई थी. इसी तरह कोरोना-संक्रमित मरीजों की मौत की तादाद पर गौर करें जिसके बारे में मानकर चला जा सकता है कि दुनिया के मुल्कों ने इस बाबत आंकड़ों को कम करके दिखाने की कोशिश ना की होगी. भारत में लॉकडाऊन-1 के तीन हफ्ते की अवधि में कोरोना-संक्रमित 350 मरीजों की मृत्यु हुई. जबकि अमेरिका में इसी तीन हफ्ते की अवधि में 24000 से ज्यादा कोरोना-संक्रमित मरीज मौत के शिकार हुए. सो, ये मानकर चलना न्यायसंगत कहलाएगा कि लॉकडाऊन का फायदा हुआ है भले ही भारत में कोरोना-संक्रमित मरीजों की तादाद कम संख्या में टेस्टिंग के कारण वास्तविक संख्या से कम करके बतायी जा रही हो.
चूंकि ये कामयाबी बड़ी अस्थायी किस्म की है सो ये कह पाना कठिन है कि लॉकडाऊन के कारण कितने लोगों की जिंदगी बचायी जा सकी है. कोरोना-संक्रमित मरीजों का ग्राफ अभी चढ़ती पर है, उसे अभी उस मुकाम तक आने मे वक्त लगेगा जहां पहुंचकर कहा जा सके कि कोरोना-संक्रमित मरीजों की बढ़वार एक समशील गति से हो रही है और जल्दी ही उसमें गिरावट आने लगेगी. लॉकडाऊन-2 की अवधि खत्म होने के बाद भी कोरोना-संक्रमित मरीजों का ग्राफ ऐसे मुकाम तक नहीं पहुंच सकता. हमें बस इतनी भर कामयाबी मिली है कि लोगों के बीच कोरोना का संक्रमण जिस तेजी से फैलना है, उस रफ्तार को हमने तनिक मंद कर दिया है. कोरोना-संक्रमण के पसारे की रफ्तार पर लगाम कसना निश्चित ही उपयोगी साबित हुआ है. अगर मरीजों की तादाद बहुत ज्यादा तेज गति से बढ़ती तो पहले से ही लचर चला आ रहा हमारा सार्वजनिक स्वास्थ्य-सेवा का ढांचा एकदम से चरमरा जाता है. हम ये भी मानकर चल सकते हैं लॉकडाऊन का एक मनोवैज्ञानिक असर हुआ है, ‘सोशल-डिस्टैन्सिंग’ को लेकर लोगों में जागरुकता आयी है और इससे भी कोरोना-संक्रमित मरीजों की संख्या कम करने में मदद मिलेगी.
इन शुरुआती सूचनाओं के आधार पर आईए, अब कुछ अटकल लगाने का खतरा उठायें. मान लीजिए कि भारत में कोरोना संक्रमित मरीजों की तादाद मई माह के अंत तक 10 लाख जा पहुंचती (अमेरिका में इतने ही मरीजों के संक्रमित होने की बात कही जा रही है). साथ ही ये भी मान लें कि भारत में कोरोना-संक्रमित मरीजों की बढ़वार की मौजूदा दर कायम रहती है और लॉकडाऊन-2 की अवधि के खत्म (3 मई) होने तक मरीजों की संख्या तकरीबन 50 हजार पहुंचती है तथा मई के आखिर तक मौजूदा दर के हिसाब से ये संख्या 2 लाख तक हो जाती है. चूंकि हम अभी तक वायरस को जड़ से खत्म करने का उपाय नहीं ढूंढ़ पाये हैं सो मानकर चलते हैं कि मई माह के बाद साल के जितने महीने शेष रहते हैं उसमें भी कोरोना-संक्रमण जारी रहेगा. मान लीजिए कि साल के शेष महीनों में कोरोना-संक्रमित मरीजों की संख्या में 2 लाख का और इजाफा हो जाता है. तो फिर, इस ढ़ीले-ढ़ाले आकलन के सहारे कहा जा सकता है कि कोरोना-संक्रमित मरीजों की संख्या अगर हम 4 लाख तक सीमित रखने में कामयाब होते हैं तो बहुत मुमकिन है कि हमने कोरोना-संक्रमण के 6 लाख नये मामलों को रोकने में कामयाबी हासिल की है. अगर कोरोना-संक्रमित मरीजों की मृत्यु-दर (4 प्रतिशत) को ध्यान में रखकर गणना करें तो नजर आयेगा कि हम साल के अंत तक 24,000 जिंदगियों को मृत्यु के मुख में जाने से रोक लेंगे. अगर आपको हमारा आकलन कुछ ज्यादा ही तंग लगे तो आप इस संख्या को दोगुनी कर लीजिए, मान लीजिए कि हम साल के अंत तक 50,000 जिंदगियों को मौत के मुंह में जाने से बचा लेंगे. ये खबर सचमुच अच्छी जान पड़ती है.
अब जरा लॉकडाऊन पर गौर कीजिए, ये सोचिए कि सरकार ने जिस तर्ज और तेवर में लॉकडाऊन लगाया और बढ़ाया है उसकी हमें क्या कीमत चुकानी होगी. इस लॉकडाऊन का सबसे प्रत्यक्ष चेहरा अगर किसी से बनता है तो वो हैं आप्रवासी मजदूर. ये मजदूर बिना किसी मुआवजे या नोटिस के महानगरों या उसके सीमावर्ती इलाकों में बने राहत-शिविरों में 6 लाख की तादाद में रह रहे हैं. ये संख्या और भी ज्यादा होगी बशर्ते आप ख्याल रखें कि कुछ आप्रवासी मजदूर निर्माण-कार्य की जगहों पर इधर-उधर जैसे-तैसे रह रहे हैं या फिर शहरी इलाकों से इतनी दूर की जगहों पर रह रहे हैं कि उनपर मीडिया की नजर नहीं जा पा रही. इस तादाद में उन कामगारों की संख्या को भी जोड़ दीजिए जो अपने घर ना जा पाने की हालत में अपने किराये के कमरे में रहने को मजबूर हैं और फिलहाल ना उन्हें ठीक से भोजन हासिल हो पा रहा है और ना ही उनके लिए आमदनी का कोई जरिया ही बचा है. लगभग 12 करोड़ लोगों ने अपनी जीविका लॉकडाऊन-1 के कारण खोयी है.अगर बहुत किफायतशारी से सोचें तो भी साफ नजर आयेगा कि देश के कुल 25 करोड़ परिवारों में से एक तिहाई परिवार पर इस जीविका-संकट का असर पड़ेगा.
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ग्रामीण भारत का संकट लोगों को नजरों में आने से रह जाता है. गांवों में गरीबों की एक छोटी तादाद ऐसी भी है जिसके पास राशन-कार्ड नहीं है और इसमें उसका कोई दोष नहीं. दरअसल, राशन-कार्ड एक खास संख्या में जारी किये जाते हैं और आधिकारिक तौर पर इस संख्या को पिछले 10 साल से बढ़ाया नहीं गया, राशनकार्ड धारकों में नये नाम नहीं जुड़ पाये हैं. साथ ही, राशनकार्ड-धारकों की सूची से कुछ लोगों के नाम भूलवश हटा दिये गये हैं जबकि ऐसे लोग राशन पाने के हकदार हैं. राशनकार्ड धारकों की सूची में नाम ना होने की एक वजह ये भी हो सकती है कि ऐसे लोगों में कुछ प्रवासी या घूमन्तु श्रेणी के परिवारों के हों. कई रिपोर्टों में कहा गया है कि ऐसे बहुत से परिवार अब भुखमरी की कगार पर आ गये हैं. खाद्या-सामग्री से भरे वाहनों को लूटने की खबरें आ रही हैं, स्थिति कमोबेश वैसी ही हो चली है जैसा भोजन हासिल करने के लिए होने वाले दंगों में होती है. साथ ही, मजदूर अपना विरोध जाहिर करने के लिए सड़कों पर भी निकल रहे हैं जैसा कि मुंबई के ब्रांद्रा और गुजरात के सूरत में हुआ. इस सिलसिले के महीन ब्यौरों से बचते हुए यहां इतना कहना पर्याप्त होगा कि लोगों को गरीबी के फंदे से निकालने के जो प्रयास सालों-साल हुए हैं वे सारे प्रयास लॉकडाऊन के चंद हफ्तों में मिटियामेट हो सकते हैं. लॉकडाऊन जितना लंबा चलेगा, गरीबी और भुखमरी के फंदे में पड़ने वाले परिवारों की संख्या उतनी ही ज्यादा बढ़ेगी.
सो, मामला जीविका का नहीं, जीवन का है. अचानक ही गरीबी के फंदे में जा फंसने वाले परिवारों की संख्या चाहे आप अपने मन में जो भी तय करें, ये तो मानना ही पड़ेगा कि ये परिवार अपने पोषण और सेहत की देखभाल के मोर्चे पर कमखर्ची से काम चलायेंगे. अपने आकलन में कंजूसी करते हुए बहुत कम करके भी सोचें तो लॉकडाऊन के कारण जीविका गंवाने से गरीबी के फंदे में जा फंसने वाले परिवारों की संख्या कम से कम 1 करोड़ होगी. प्रति परिवार पांच व्यक्ति मानकर चलें तो आंकड़ा पांच करोड़ लोगों का होता है. अगर लॉकडाऊन के कारण लगे आर्थिक झटके के कारण मृत्यु-दर में 0.1 प्रतिशत का भी इजाफा होता है तो फिर ऐन गरीबी और भुखमरी के कारण मौत का शिकार होने वाले लोगों की संख्या 50,000 होगी. मतलब, कोरोना के संक्रमण से जान गंवाने वालों की जो संख्या हमने सोची थी, लगभग उसी तादाद में लोग लॉकडाऊन के कारण पैदा गरीबी और भुखमरी से जान गंवायेंगे.
आईए, इस तस्वीर पर तनिक अलग ढंग से सोचते हैं. बर्डेन ऑफ डिजीज इन इंडिया नाम की रिपोर्ट में प्रकाशित एक हालिया आकलन के मुताबिक भारत में सीधे-सीधे कुपोषण के कारण हर साल 73 हजार लोगों की मौत होती है. फिर, कुछ ऐसे रोग हैं जिनका बड़ा गहरा संबंध गरीबी से है, मिसाल के लिए डायरिया( साल में 5.2 लाख लोगों की मौत), टीबी(साल में 3.75 लाख लोगों की मौत), शिशु मृत्यु ( साल में 4.45 लाख शिशुओं की मौत), मलेरिया(1.85 लाख लोगों की मौत) . अगर गरीबों की तादाद में अचानक हुई बढ़ोत्तरी के कारण कुपोषण के कारण होने वाली मौतों की संख्या में 10 प्रतिशत का और गरीबी की दशा से गहराई से जुड़ी बीमारियों से होने वाली मौतों में 1 प्रतिशत का भी इजाफा होता है तो फिर सिर्फ लॉकडाऊन के कारण ऐसी बीमारियों से मरने वालों की तादाद में 23 हजार की बढ़त हो जायेगी! इस तादाद में मौतों की वो संख्या भी जोड़ दीजिए जिसमें कोई मरीज मात्र इस कारण जान गंवाता है क्योंकि उसका परिवार समय रहते मरीज को गुणवत्तापूर्ण चिकित्सा नहीं मुहैया करा पाया(चाहे कारण पैसों की तंगी हो या फिर मरीज से अस्पताल की दूरी). गुणवत्तापूर्ण चिकित्सा के अभाव में हर साल 24 लाख लोग जान गंवाते हैं. अगर पैसों की तंगी के कारण गुणवत्तापूर्ण चिकित्सा के अभाव में जान गंवाने वाले लोगों की संख्या में 1 प्रतिशत की भी वृद्धि होती है तो इस कारण से जान गंवाने वाले लोगों की संख्या में 24,000 की बढ़ोत्तरी हो जायेगी!
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चाहे आप जिस कोण से हिसाब लगायें, आपको नजर आयेगा कि लॉकडाऊन के कारण जितने लोगों की जिंदगी बचायी जा सकती है, उससे ज्यादा नहीं तो भी लगभग उतनी ही तादाद में लोगों की जिंदगी जा भी सकती है. हो सकता है, जो जिंदगियां बचायी जा सकीं वो आर्थिक रुप से बेहतर दशा में हो, ऐसे लोग उम्रदराज हों और उनका बच जाना हमें स्पष्ट नजर भी आ रहा हो. लेकिन, जीविका के संकट में फंसकर जो लोग जान गंवायेंगे वो निश्चित रुप से गरीब होंगे, उस उम्र के होंगे जो उम्र काम-धंधे की मानी जाती है और हां, ये लोग हमारी नजरों में अक्सर बेनाम और बेशक्ल होंगे. उनकी मृत्यु कहीं दर्ज नहीं हो पायेगी. जीविका, अर्थव्यवस्था और समाज पर लॉकडाऊन का जो असर होना है उसे अगर आप हानि-लाभ के इस बहीखाते में दर्ज करके देखें तो फिर आप इसी फैसले पर पहुंचेंगे कि लॉकडाऊन का तरफदार नहीं हुआ जा सकता.
लेकिन इसका मतलब ये नहीं कि हम लॉकडाऊन-1 के लिए सरकार को दोषी ठहरायें. मैंने अपने लेख में ये बात कही थी कि तीन हफ्ते पहले विशेषज्ञों को जितनी और जैसी सूचना हासिल थी और जो विकल्प मौजूद थे उसे देखते हुए प्रधानमंत्री के लॉक़डाऊन-1 के फैसले को गलत नहीं कहा जा सकता. हां, ये जरुर कह सकते हैं कि लॉकडाऊन-1 का फैसला जिस तरह लोगों को अंधेरे में रखकर, बिना किसी पूर्व-तैयारी और सख्ती के साथ किया गया. उसकी जिम्मेवारी से प्रधानमंत्री अपना दामन नहीं बचा सकते. लेकिन, लॉकडाऊन-2 के फैसले के वक्त वैसी कोई स्थिति मौजूद नहीं जो लॉकडाऊन-1 के वक्त थी. फिर भी लॉकडाऊन-2 को तीन हफ्ते के लिए लागू किया गया है और वो भी लोगों को हासिल सामाजिक-सुरक्षा कवच में बिना कोई विस्तार किये. बहुत जरुरी है कि केंद्र सरकार पीडीएस (सार्वजनिक वितरण प्रणाली) को सार्विक तौर पर चलाते हुए खाद्य-संकट का त्वरित समाधान करे और सभी सरकारी स्कूलों में पका हुआ भोजन मुहैया कराये. जो मजदूर जहां-तहां फंसे हुए हैं उनके लिए किसी एक निर्धारित स्थान से किसी दूसरे निर्धारित स्थान तक जाने वाली विशेष ट्रेन चलायी जानी चाहिए, ऐसे आप्रवासी मजदूरों को तत्काल भोजन और नकदी दी जानी चाहिए. और, सरकार को ऐसे उपाय खोजने चाहिए कि चिन्हित हॉटस्पॉट को छोड़कर बाकी जगहों पर लॉकडाऊन में ढील दी जा सके. ऐसा नहीं होता तो फिर ये बात निश्चित है कि हम इतिहास की सबसे बड़ी मानव-निर्मित आपदा के साक्षी बनेंगे.
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(योगेंद्र यादव राजनीतिक दल, स्वराज इंडिया के अध्यक्ष हैं. यह लेख उनका निजी विचार है)