भारत के राजनीतिक इतिहास में डॉ. भीमराव आंबेडकर उन प्रमुख नेताओं में से हैं, जिनका मूल्यांकन दशकों देर से हुआ है. वे उन नेताओं में से भी हैं, जिनके व्यापक दृष्टिकोण को ‘संकुचित दायरे में रखने’ का प्रयास किया गया है, जो आंबेडकर सामाजिक और आर्थिक समस्याओं के खिलाफ ‘तलवार’ होना डिजर्व करते थे. उन्हें हमेशा ‘ढाल’ साबित करने की कोशिश इतिहास के आंबेडकर-पूजक अनुयायियों ने की है. आंबेडकर जिन कारणों से महान हैं, उन कारणों को अब देश जानने लगा है. यद्यपि पहले भी जान सकता था. किंतु पहले उनके व्यक्तित्व के वर्णन में ही बेईमानी बरती गयी.
गत कुछ वर्षों में राजनीति में हुए परिवर्तन ने आंबेडकर के व्यक्तित्व पर संकुचित दायरे से बाहर निकलकर व्यापक चर्चा का अवसर दिया है.
हालांकि राजनीति के लिए तो आंबेडकर पर दावा सबका है. निश्चित ही दावा करने में कोई बुराई भी नहीं है, क्योंकि देश की महान विभूतियों पर किसी का एकाधिकार होना भी नहीं चाहिए. किंतु इस प्रश्न पर विचार अवश्य जरुरी है कि आंबेडकर के विचारों से निकटता जाहिर करने वाली विचारधाराओं की यथार्थ में उनसे कितनी नजदीकी रही है ?
इस सवाल का औचित्य नहीं होता यदि बदले हुए परिवेश में वामपंथी आंबेडकर को अपना न बताते ? यह बहस इतनी मौजूं नहीं होती अगर देश में ‘भीम-मीम’ के एका पर चर्चा नहीं होती. अत: इस सवाल का जवाब तो इतिहास से ही मिल सकता है.
आंबेडकर की दृष्टि में वामपंथ को देखें तो वे वामपंथ विचारधारा को संसदीय लोकतंत्र के विरुद्ध मानते थे. 25 नवम्बर 1949 को संविधान सभा में बोलते हुए आंबेडकर ने कहा था, ‘वामपंथी इसलिए इस संविधान को नहीं मानेंगे क्योंकि यह संसदीय लोकतंत्र के अनुरूप है और वामपंथी संसदीय लोकतंत्र को मानते नही हैं.’ यह आश्चर्य है कि वामपंथी भी अपने नारों में आंबेडकर को जगह देने लगे हैं.
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वहीं कांग्रेस भी अब आंबेडकर के प्रति अत्यंत उदार और विनम्र दिखने लगी है. कांग्रेस जिसने पहले आम चुनाव में तथा उसके ठीक बाद हुए उपचुनाव में आंबेडकर का विरोध किया था. उस दौर के कांग्रेसी यह चर्चा चलाते थे कि आंबेडकर के साथ तो दलित भी नहीं हैं. कांग्रेस का विरोध हुआ कि आंबेडकर दोनों चुनाव नहीं जीत सके. इसी कांग्रेस की पहली सरकार से आंबेडकर ने इस्तीफ़ा दिया था. आंबेडकर ने अनुच्छेद 370 पर वही रुख रखा जो तब जनसंघ का रुख हुआ करता था. इतना ही नहीं कम से कम कांग्रेस के लिए अगर आंबेडकर आज इतने महान हो गये हैं, तो उन्हें बताना चाहिए कि आखिर क्यों आंबेडकर को भारत रत्न के लिए चालीस वर्ष का इन्तजार करना पड़ा ? आंबेडकर इंदिरा गांधी से तो वरिष्ठ थे, उनसे पहले तो अंबेडकर को भारत रत्न मिलना चाहिए था!
सेक्युलरिज्म के प्रति भी आंबेडकर का आकर्षण भारत के नव-प्रगतिशीलों की तरह नहीं रहा. वे संविधान सभा की प्रारूप समिति के अध्यक्ष थे. सेक्युलरिज़म शब्द की जरूरत संविधान में अंबेडकर को तब भी नहीं महसूस हुई थी, जबकि उस दौरान देश एक मजहबी बंटवारे से गुजर रहा था. यह शब्द आगे चलकर आपातकाल के दौरान इंदिरा गांधी ने 42वें संशोधन से जोड़ दिया.
अब जब 2014 में मोदी सरकार आई और आंबेडकर को लेकर मोदी की ऐतिहासिक एवं पंचतीर्थ निर्माण जैसी पहलों ने नई चर्चा को जन्म दिया. उस चर्चा में संघ का नाम भी शामिल रहा, सवाल उठा कि बीजेपी और संघ को अचानक आंबेडकर क्यों याद आये! हालांकि तथ्य ऐसा नहीं है.
जिनको यह लगता है कि आंबेडकर को संघ आज याद कर रहा है उन्हें नब्बे के शुरुआती दौर का पाञ्चजन्य पढ़ना चाहिए, जिसमे आंबेडकर को आवरण पृष्ठ पर प्रकाशित किया गया था. संघ और आंबेडकर के बीच पहला वैचारिक साम्य ये है कि दोनों अखंड राष्ट्रवाद के पक्षधर रहे. डॉ आंबेडकर सम्पूर्ण वांग्मय के खंड 5 में लिखा है, ‘डॉ. आंबेडकर का दृढ़ मत था कि मैं हिंदुस्तान से प्रेम करता हूं. मैं जीऊंगा तो हिंदुस्तान के लिए और मरूंगा तो हिंदुस्तान के लिए. मेरे शरीर का प्रत्येक कण और मेरे जीवन का प्रत्येक क्षण हिंदुस्तान के काम आए, इसलिए मेरा जन्म हुआ है.’
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समझना चाहिए कि संघ भी अनुच्छेद 370 को समाप्त करने की बात करता रहा और अंबेडकर भी अनुच्छेद 370 खिलाफ थे. समान नागरिक संहिता लागू करने पर संघ भी सहमत है और आंबेडकर भी सहमत थे. कालक्रम में हिन्दू समाज में जातिगत भेदभाव हुआ है और इसका उन्मूलन होना चाहिए. इसको लेकर संघ भी सहमत है और आंबेडकर भी जाति से मुक्त अविभाजित हिन्दू समाज की बात करते थे.
डॉ. आंबेडकर की जीवनी लिखने वाले सीबी खैरमोड़े ने उनके शब्दों को उदृत करते हुए लिखा है कि ‘मुझमें और सावरकर में इस प्रश्न पर न केवल सहमति है बल्कि सहयोग भी है कि हिंदू समाज को एकजुट और संगठित किया जाए और हिंदुओं को अन्य मजहबों के आक्रमणों से आत्मरक्षा के लिए तैयार किया जाए.’
धर्म के मामले में भी संघ और आंबेडकर के बीच वैचारिक साम्य दिखता है. संघ भी धर्म को मानता है और आंबेडकर भी धर्म को मानते हैं. वे धर्म के बिना जीवन का अस्तित्व नहीं मानते थे लेकिन धर्म भी उनको भारतीय संस्कृति के अनुकूल स्वीकार्य था. इसी वजह से उन्होंने बौद्ध धर्म अपनाया क्योंकि बौद्ध भारत की संस्कृति से निकला एक धर्म है.
मुस्लिम लीग पर संविधान सभा के प्रथम अधिवेशन में 17 दिसंबर 1946 का वक्तव्य उनके प्रखर राष्ट्रवादी व्यक्तित्व का दर्शन कराता है. उन्होंने कहा था, ‘आज मुस्लिम लीग ने भारत का विभाजन करने के लिए आंदोलन छेड़ा है, दंगे फसाद शुरू किए हैं, लेकिन भविष्य में एक दिन इसी लीग के कार्यकर्ता और नेता अखंड भारत के हिमायती बनेंगे, यह मेरी श्रद्धा है.’
हिन्दु समाज की बुराइयों पर चोट करते हुए भी आंबेडकर भारतीयता की मूल अवधारणा और अपने हिन्दू हितों को नहीं भूलते हैं. महार मांग वतनदार सम्मेलन, सिन्नर (नासिक) में 16 अगस्त, 1941 को बोलते हुए आंबेडकर कहते हैं, ‘मैं इन तमाम वर्षों में हिंदू समाज और इसकी अनेक बुराइयों पर तीखे एवं कटु हमले करता रहा हूं. लेकिन मैं आपको आश्वस्त कर सकता हूं कि अगर मेरी निष्ठा का उपयोग बहिष्कृत वर्गों को कुचलने के लिए किया जाता है तो मैं अंग्रेजों के खिलाफ हिंदुओं पर किए हमले की तुलना में सौ गुना तीखा, तीव्र एवं प्राणांतिक हमला करूंगा.’
संघ और आंबेडकर के बीच अनगिनत साम्य होने के प्रमाण मौजूद हैं. अगर दोनों के बीच विरोध की बात करें तो संघ और आंबेडकर के बीच सिर्फ एक जगह मतभेद दिखता है. संघ का मानना है कि हिन्दू एकता को बढ़ावा देकर ही जाति-व्यवस्था से मुक्ति पाई जा सकती है जबकि आंबेडकर ने इस कार्य के लिए पंथ-परिवर्तन का रास्ता अख्तियार किया. यही वो एकमात्र बिंदु है जहां संघ और आंबेडकर के रास्ते अलग हैं.
आंबेडकर ने अपने सार्वजनिक जीवन में अनेक संगठनों एवं विचारधाराओं की आलोचना की है. किंतु ऐसा कोई सटीक तथ्य नहीं मिलता जब उन्होंने उस तीव्रता से राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का विरोध किया हो. संघ और आंबेडकर के समकालिक होने के बावजूद ऐसा क्यों हुआ होगा, इस पर विचार होना चाहिए.
(लेखक डॉ. श्यामा प्रसाद मुखर्जी रिसर्च फाउंडेशन में सीनियर रिसर्च फेलो हैं.)
The title of this opinion piece and the conclusion are quite different and also misleading.
The author seems to be much inclined to prove the closeness between RSS and Dr Ambedkar.
It would have been better if Full texts of Dr Ambedkar
Have been quoted not just selective quoting and half truth cooked, to prove a point.