कहा जाता है कि तुलनाएं करना ओछी बात होती है. इसलिए बेहतर यही होगा कि कोविड-19 की महामारी और हाल के दौर में फैली किसी महामारी के बीच तुलना से बचा जाए. इसके बावजूद, 2002-03 में फैली ‘सार्स’ नामक महामारी के कारण इसी तरह हुई मौतों, खौफ और दहशत की याद किए बिना कोविड-19 की महामारी के कारण हुई उथलपुथल का अंदाजा लगाना मुश्किल है. आज की तरह तब भी चीन ने इसका खुलासा करने और विश्व समुदाय को यह बताने में देर की थी कि उसके यहां सार्स महामारी फैली है और यह किस तरह सब जगह फैल सकती है.
वैसे, अब और तब में एक अहम फर्क था. सार्स महामारी के मामले में डब्लूएचओ ने तुरंत सिफ़ारिश की थी कि यात्राओं पर प्रतिबंध लगाया जाए. उसने महत्वपूर्ण सूचना देने में देर करने के लिए चीन को आड़े हाथों लिया था, क्योंकि सूचना अगर पहले मिलती तो सार्स को दुनिया भर में फैलने से रोका जा सकता था.
आठ महीने की जबरदस्त लड़ाई में सार्स को मिटा डालने की कामयाबी का जश्न मनाते हुए डब्लूएचओ ने चेतावनी दी थी कि कोरोना वायरस अपने एकदम नये अवतार में लौट सकता है और इससे दुनिया को खतरा बना रहेगा. डब्लूएचओ के तत्कालीन महानिदेशक डॉ. ग्रो हारलेम ब्रण्टलैंड ने विश्व समुदाय से अपील की थी कि वह पशुओं के उन जमावड़ों की जांच करे, जो भविष्य में महामारी के स्रोत बन सकते हैं. ब्रण्टलैंड ने यह भी कहा था कि मनुष्यों में वायरस के विस्तार पर बेहतर शोध किया जाए. चीन के उन बाज़ारों को खास तौर पर चिन्हित किया गया था, जहां तमाम तरह के पशुओं-कीड़ों आदि को खाद्य सामग्री के रूप में बेचा जाता है, जहां वायरस पनप सकते हैं और पशुओं से मनुष्यों में प्रवेश कर सकते हैं.
2007 में जारी एक शोधपत्र में कहा गया कि वायरस की अस्थिर प्रकृति, चीन का तीव्र शहरीकरण, वहां तमाम तरह के पशुओं की उपलब्धता और वन्यजीवों के अवैध व्यापार पर रोक लगाने से उसका इनकार- ये सब मिलकर एक ‘टाइम बम’ का निर्माण करते हैं. दिसंबर 2015 में फैसला किया गया कि कोरोनावायरस के रोगों पर अनुसंधान और विकास (आर ऐंड डी) को सबसे ज्यादा प्राथमिकता वाली सूची में रखा जाए. इसे ऐसे उभरते रोगों में सबसे अहम माना गया, जो बड़ी महामारी की वजह बन सकता है. इस आकलन को प्राथमिकता वाले रोगों की डब्लूएचओ की वार्षिक समीक्षा (2018) में दोहराया गया.
यह भी पढ़ें : कोविड-19 जैसा संकट देश की मजबूती और कमजोरी का भी खुलासा कर देता है
इसलिए यह आश्चर्य की बात है कि जब दिसंबर में ही वुहान में निमोनिया वाले वाइरस का पता लग गया था और डब्लूएचओ के पास आंकड़े थे तथा सार्स पर वर्षों के अनुसंधान से मिली जानकारियां भी उपलब्ध थीं, तब उसने इतनी सुस्ती बरती. डब्लूएचओ के महानिदेशक डॉ. ट्रेडोस ए. घेब्रेएसेस ने, जो डॉक्टर ट्रेडोस के नाम से जाने जाते हैं, जनवरी में महामारी के शुरुआती दौर में ‘पारदर्शिता के प्रति प्रतिबद्धता’ के लिए चीन की प्रशंसा की, जबकि इसका खंडन करने वाले सबूतों का अंबार लग रहा था. जब चीन के बाहर मनुष्य से मनुष्य को हुए संक्रामण का पहला मामला सामने आया था, इसके अगले ही दिन डब्लूएचओ ने दावा किया कि कोरोनावायरस के मनुष्य से मनुष्य को संक्रमण का सबूत नहीं हैं. यही नहीं, ताइवान ने जिसे डब्लूएचओ से बाहर रखे जाने पर अलग से लेख लिखा जा सकता है. इस संगठन को इस बारे में दिसंबर में ही सावधान कर दिया था.
चीन ने 31 दिसंबर को डब्लूएचओ को सूचित किया कि विशेषज्ञों का अनुमान के मुताबिक इस वायरस से अक्टूबर में ही मनुष्य का संक्रमण हो गया है. इसके बावजूद डब्लूएचओ ने चीन सरकार को नाराज न करने की पूरी सावधानी बरतते हुए वहां कोई जांच दल भेजने की गंभीरता नहीं दिखाई. डब्लूएचओ और चीन की संयुक्त टीम फरवरी के मध्य में वुहान गया और उसने जो रिपोर्ट दी उसमें चीनी तर्क भरे पड़े थे.
इस बीच कोविड-19 महामारी के लक्षण दिखा रहा था और दुनिया भर में तेजी से संक्रमण फैला रहा था. डॉ. ट्रेडोस और उनकी टीम न केवल सार्वजनिक स्वास्थ्य इमरजेंसी की घोषणा करने में विफल रही बल्कि उलटे उसने विश्व समुदाय को यात्राओं पर रोक लगाकर दहशत और डर फैलाने से परहेज करने की अपील कर डाली. इस अंतरराष्ट्रीय संगठन ने यात्राओं पर रोक लगाने के लिए अमेरिका की आलोचना की और इसे गैरज़रूरी तथा अतिवादी कदम बताया. डब्लूएचओ की सलाह पर यूरोपियन सेंटर फॉर डीजीज़ प्रिवेंशन ऐंड कंट्रोल (ईसीडीसी) ने सुझाव दिया कि इस वाइरस से यूरोपीय संघ को संक्रमण का खतरा कम है, इसलिए इसके देशों की सीमाओं पर रोकथाम में देरी हुई.
इस अंतरराष्ट्रीय स्वास्थ्य संगठन के शुरुआती गलत कदम दुनिया भर के हजारों लोगों के लिए मारक साबित हुए, और इससे उन लाखों के जीवन पर बुरा असर पड़ सकता है, जिनके लिए यह संकट लंबा खींच सकता है और आर्थिक मंदी ला सकता है. इसकी कुछ वजह यह है कि डब्लूएचओ लंबे समय से सांगठनिक चुनौतियों का सामना कर रहा है. इसके पास कोश की कमी बनी हुई है, अपनी भारी नौकरशाही और क्षेत्रीय दफ्तरों की अपारदर्शिता के कारण इसे हमेशा जांच का सामना करना पड़ता है. वास्तव में, ‘इबोला’ के मामले में भी इसकी पहल की विश्व समुदाय ने आलोचना की थी.
लेकिन यही एक समस्या नहीं है. यह साफ हो चुका है कि नये कोरोनावायरस की महामारी पर विश्व स्वास्थ्य समुदाय की जो पहल है वह बदलते अंतरराष्ट्रीय शक्ति संतुलन का एक और मोर्चा बन गया है. डब्लूएचओ के इतिहास में यह पहली बार नहीं हुआ है. पचास और साठ वाले दशकों में डब्लूएचओ खुद को सोवियत संघ के नेतृत्व वाले कम्यूनिस्ट ब्लॉक और अमेरिका के बीच कवायद करता हुआ पाता था. बाद में, नब्बे और 2000 वाले दशकों में वह दवाओं, बौद्धिक सम्पदा अधिकार और दवाओं तक पहुंच के सवालों पर बहस में उलझा हुआ था.
अंतरराष्ट्रीय संगठनों में चीन के बढ़ते दबदबे के कारण अंतरराष्ट्रीय राजनीति में नयी खाइयां उभर रही हैं और डब्लूएचओ इसका पहला शिकार होने वालों में है. याद रहे कि मारग्रेट चान के नेतृत्व में डब्लूएचओ उन प्रथम अंतरराष्ट्रीय संगठनों में था जिसने चीन की विवादास्पद ‘बेल्ट ऐंड रोड इनीशिएटिव’ के तहत आधुनिक स्वास्थ्य प्राथमिकताओं को आगे बढ़ाने के एमओयू पर दस्तखत किया था. चीनी-कनाडाई मूल की चान का चीन के मेनलैंड से मजबूत संबंध है. उनके उत्तराधिकारी, एथोपियाई नेता डॉ. ट्रेडोस को भी चीन-समर्थित उम्मीदवार माना गया था और हाल के सप्ताहों में यह धारणा और मजबूत हुई है.
यह भी पढ़ें : क्यों 136 करोड़ भारतीय हाथ पर हाथ धरे कोरोना को कहर ढाने की छूट नहीं दे सकते
हालांकि, कोरोना महामारी और ‘सार्स’ महामारी में कई समानताएं हैं, लेकिन कोरोना के मामले में चीन और विश्व समुदाय की पहल में समानता नहीं दिखती. 2002-03 की सार्स महामारी के दौरान डब्लूएचओ ने आंकड़ों के मामले में अस्पष्टता और अंतरराष्ट्रीय सहयोग की पहल में देरी के लिए चीन की कड़ी आलोचना की थी. इसके बाद चीन ने अपने स्वास्थ्य मंत्री और बीजिंग के मेयर को बरखास्त करके आपनी शुरुआती भूलों को आश्चर्यजनक रूप से सार्वजनिक तौर पर कबूल किया था. उस समय चीन ने 1800 लोगों के संक्रमित होने और 80 लोगों की मौत की अधिकृत घोषणा की थी. आज कोरोना ने अकेले चीन में 80,000 से ज्यादा लोगों को संक्रमित किया है और 3,000 लोगों की जान ली है. लेकिन चीन ने न केवल अपनी शुरुआती विफलताओं के सरकारी ब्योरों को सेंसर करने की कोशिश की है बल्कि दुनिया भर में कुप्रचार करके यह जताने में जुटा है कि महामारी का स्रोत अमेरिका या यूरोप है.
चीन के इस तरह के आचरण के बावजूद डब्लूएचओ जिस तरह उसके हितों का खुला पोषण कर रहा है वह दुनिया भर के लोकतांत्रिक देशों के लिए चेतावनी की घंटी है. पिछले दशक के दौरान पश्चिम के लोकतांत्रिक देशों, खासकर अमेरिका, ने अंतरराष्ट्रीय संगठनों को कोश देने और उनमें भागीदारी करने से अपने हाथ खींचे है जिसके चलते उनमें पैदा हुए शून्य को चीन निरंतर भरता रहा है. भारत भी चीन के आगे बेबस हो गया है, अभी हाल में उसे फूड ऐंड एग्रीकल्चर ऑर्गनाइजेशन में चीन के उम्मीदवार के हाथों आसन्न पराजय को देखते हुए अपने उम्मीदवार को वापस लेना पड़ा. यह हमारे समय की विडम्बना ही है कि दुनिया का सबसे ताकतवर अधिनायकवादी देश अंतरराष्ट्रीय उदारवादी व्यवस्था के अहम प्रतीक संयुक्त राष्ट्र की लगभग एक तिहाई विशेष एजेंसियों का मुखिया बना बैठा है.
स्वाधीन विश्व ने अब जवाब देना शुरू कर दिया है. हाल में विश्व बौद्धिक संपदा संगठन के नये महानिदेशक के चुनाव में सिंगापुर के उम्मीदवार की जीत ने एक महत्वपूर्ण नियामक एवं मानक संस्था पर कब्जा करने की चीनी कोशिश को नाकाम कर दिया. अब क्या डब्लूएचओ नया अखाड़ा बनेगा? ‘वायरस’ के वैश्वीकरण को रोकने के लिए यह जरूरी भी है.
(लेखक ऑब्जर्वर रिसर्च फाउंडेशन (इंडिया) के अध्यक्ष हैं. ये उनके निजी विचार हैं.यह लेख ओआरएफ वेबसाइट पर आ चुका है.)
(इस खबर को अंग्रेजी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)