सुप्रीम कोर्ट इस वक्त विश्वसनीयता के सबसे बड़े संकट से गुजर रहा है और ये स्थिति खुद उसकी वजह से बनी है. अतीत में अतिसक्रियता के लिए आलोचना झेलने वाली सर्वोच्च अदालत आज 180 डिग्री का पलटा खा चुकी है और ऐसा प्रतीत होता है कि यह मौलिक अधिकारों के उल्लंघन के स्पष्ट मामलों में भी कुछ कर पाने में असमर्थ है, खासकर जब मामला नरेंद्र मोदी सरकार से संबंधित हो.
हालांकि इस स्थिति का न्यायपालिका की स्वतंत्रता से अधिक लेना-देना नहीं है. इन विषम परिस्थितियों में भी भारत के उच्च न्यायालय अपने दायित्वों को निभाने के लिए तैयार और सक्षम हैं.
उच्च न्यायालयों का उच्चतर मानदंड
संवैधानिक अदालत के रूप में सुप्रीम कोर्ट की प्रवृति मामलों को स्थगित करने या टालने और ऐसे सख्त फैसलों से बचने की प्रतीत होती है जोकि मोदी सरकार को नापसंद लग सकता हो. राष्ट्रीय नागरिक रजिस्टर के मामले में यह स्वत: ही सरकार के कार्यकारी अंग वाली भूमिका को अपना चुका है.
अंतर देखना हो तो आप असम में इंटरनेट पर रोक के आदेश को निरस्त करने के गौहाटी हाईकोर्ट के फैसले और जम्मू कश्मीर में इंटरनेट शटडाउन मामले में सुप्रीम कोर्ट की संविधान पीठ के अस्पष्ट ‘फैसले’ की परस्पर तुलना कर सकते हैं.
सीएए विरोधी प्रदर्शनकारियों को ज़मानत देने से लेकर शांतिपूर्वक विरोध प्रदर्शन के अधिकार की रक्षा करने और बहुसंख्यकवादी हिंसा के संदर्भ में हर आरोपी का प्रतिनिधित्व सुनिश्चित करने के अपने कदमों के ज़रिए कर्नाटक उच्च न्यायालय ने इस अंधकारमय दौर में एक प्रकाश स्तंभ की भूमिका निभाई है. इसी तरह इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने प्रदर्शनकारियों पर पुलिस हिंसा के लिए उत्तर प्रदेश सरकार को जिम्मेदार ठहराया, अनुचित गिरफ्तारी के मामलों में ज़मानत सुनिश्चित किया और प्रदर्शनकारियों के खिलाफ योगी आदित्यनाथ सरकार की प्रतिशोधात्मक कार्रवाइयों को निरस्त करने के लिए विशेष सुनवाइयां की.
पटना उच्च न्यायालय के पूर्व न्यायाधीश और वरिष्ठ अधिवक्ता अंजना प्रकाश ने अपने एक हालिया लेख में पिछले कुछ वर्षों में सुप्रीम कोर्ट के व्यवहार को लेकर चिंता और भ्रम की स्थिति पर विस्तार से प्रकाश डाला है. इसी तरह अधिवक्ता मनु सेबेस्टियन ने यूपी के होर्डिंग्स मामले पर अपने लेख में नागरिक अधिकारों के खुले उल्लंघन के हाल के मामलों में सुप्रीम कोर्ट के रवैये को ‘निष्क्रिय और टालू’ करार दिया है. न्यायपालिका पर नज़र रखने वाले विश्लेषकों की चिंता के ये केवल दो नवीनतम उदाहरण हैं और उनका एक ही सवाल है: भारत के सुप्रीम कोर्ट को हो क्या गया है?
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बेपरवाही का दौर
मोदी सरकार के कट्टर समर्थकों समेत किसी ने भी सुप्रीम कोर्ट के व्यवहार को सही ठहराने की कोशिश नहीं की है. सरकार के अंधभक्तों के लिए तो अदालत का सरकार के रवैये के अनुरूप चलना बिल्कुल वाजिब है. जिसकी लाठी उसकी भैंस के उनके तर्क पर स्याही (और सर्वर स्पेस) जाया करने का कोई मतलब नहीं है.
‘सोशल मीडिया’ और ‘दबाव’ को लेकर कभी-कभार शिकायत करने के अलावा खुद सुप्रीम कोर्ट ने भी अपने रवैये के समर्थन में कभी कोई स्पष्टीकरण नहीं दिया है. निश्चय ही कुछ जजों ने सार्वजनिक रूप से (आमतौर पर भाषणों में) बहुसंख्यकवादी सरकारों से मौलिक अधिकारों की रक्षा किए जाने और लोकतंत्र में असंतोष के महत्व को रेखांकित किया है. पर, इससे शीर्ष अदालत में किसी तरह के सार्थक आंतरिक मतभेद की बात जाहिर नहीं होती है. सुप्रीम कोर्ट के चार वरिष्ठतम जजों के जनवरी 2018 के उस अभूतपूर्व संवाददाता सम्मेलन के बाद से कम-से-कम ऐसा कुछ जाहिर नहीं हुआ है.
मौजूदा स्थिति और आपातकाल के दौर वाली स्थिति में भयावह समानता है— उस वक्त भी उच्च न्यायालयों ने नागरिकों के बुनियादी अधिकारों की रक्षा का बीड़ा उठाया था क्योंकि सुप्रीम कोर्ट झुककर सत्तारूढ़ पार्टी के इरादों के अनुरूप चलने लगा था. यहां तक कि बंदी प्रत्यक्षीकरण याचिका को आपातकाल के दौरान निलंबित नहीं किए जाने के देश के नौ उच्च न्यायालयों की राय सामने होने के बावजूद सुप्रीम कोर्ट आपातकाल के दौरान बंदियों की ‘मातृत्व‘ भाव से की जा रही देखभाल के गुण गा रहा था. न्यायिक नियुक्तियों में इंदिरा गांधी सरकार के भारी हस्तक्षेप को 1970 के दशक में सुप्रीम कोर्ट की भीरुता का कारण माना जा सकता है पर मौजूदा समय में शीर्षस्थ अदालत की कायरता और सहभागिता की वजह क्या है?
संभावित कारण
कोई आसान उत्तर नहीं दिखता है लेकिन मुझे दो वजहें नज़र आती हैं जोकि कुछ हद तक मौजूदा स्थिति को समझने में मददगार हैं. सर्वप्रथम, कॉलेजियम व्यवस्था जजों के चयन में अनुरूपता को महत्व देती है न कि मतभेदों को. दूसरे, सरकार से निकटता न्यायपालिका को दूषित करने का काम करती है. मैंने प्रगति पॉडकास्ट के इस एपिसोड में इस मुद्दे पर विस्तार से चर्चा की है.
भले ही वर्तमान जजों ने नरेंद्र मोदी के भारत के प्रधानमंत्री बनने से ठीक पहले या उसके बाद सुप्रीम कोर्ट में अपने करियर की शुरुआत की हो लेकिन वे सब उच्च न्यायालयों और उच्चतम न्यायालय में कॉलेजियम के माध्यम से नियुक्ति पाने वाले जजों की पहली पीढ़ी में से हैं. इस व्यवस्था से कार्यपालिका से स्वतंत्रता सुनिश्चित करने की अपेक्षा की जाती है, लेकिन यह ईमानदार और सक्षम जजों की नियुक्ति सुनिश्चित नहीं करती. कॉलेजियम व्यवस्था नियुक्तियों में पर्याप्त विविधता सुनिश्चित करने का प्रयास तक नहीं करती, इसके बजाय बस दिखाने के लिए कभी-कभार ऐसी नियुक्तियां की जाती हैं. इस कारण, कुछेक उल्लेखनीय अपवादों को छोड़ दें तो, आज सुप्रीम कोर्ट उन जजों से भरा पड़ा है जिन्होंने व्यवस्था के अनुरूप ढलने की क्षमता, जाति, वर्ग और लैंगिक पहचान के कारण शीर्षस्थ न्यायालय में जगह बनाई है.
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हालांकि इससे ये स्पष्ट नहीं होता कि उसी व्यवस्था के तहत नियुक्त किए गए हमारे उच्च न्यायालयों के जज कैसे कहीं अधिक साहस और मुस्तैदी का प्रदर्शन कर पा रहे हैं. एक कारण ‘दिल्ली से दूरी’ का हो सकता है. अपना काम ठीक से करने के लिए जजों को प्रचलित राजनीतिक, सांस्कृतिक और सामाजिक रुझानों से दूरी बनाना ज़रूरी होता है, पर उनसे इसकी अपेक्षा करना बेमानी लगता है. मैं समझता हूं राजनीतिक सत्ता से निरंतर नजदीकी जज विशेष की संवैधानिक नैतिकता को दूषित करती है. सेवानिवृति के बाद ठाठ का पद पाने की बात हो या सेवानिवृति से पूर्व आपराधिक कानून के खिलाफ संरक्षण की, यदि सरकार के राजनीतिक किरदारों तक पहुंच सुलभ हो तो सुप्रीम कोर्ट के जज उनसे मिलना-जुलना बढ़ा देते हैं.
संभव है ये ‘सुप्रीम कोर्ट को हो क्या गया है’ के सवाल का पूर्ण जवाब नहीं हो लेकिन इस सवाल का जवाब देने की कोशिश में ‘इस सुप्रीम कोर्ट को हो क्या गया है’ पूछना भर ही पर्याप्त नहीं है.
इसके लिए सुप्रीम कोर्ट में अंतर्निहित संरचनात्मक दोषों की तह में जाना ज़रूरी हो जाता है कि जिसके कारण शीर्षस्थ अदालत अक्सर उन मौकों पर अपने संवैधानिक दायित्वों को निभाने में नाकाम साबित होती है जब उसकी सर्वाधिक ज़रूरत हो.
(लेखक विधि सेंटर फॉर लीगल पॉलिसी में वरिष्ठ अध्येता हैं. व्यक्त विचार उनके निजी हैं.)
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