अभी 8 मार्च (अंतरराषट्रीय महिला दिवस) आया भी नहीं है और पाकिस्तानी पुरुष पहले ही असहज हो गए हैं. यह एक उपलब्धि है. आमतौर पर महिला दिवस के बाद असहजता घर करती है. पर इस बार पहले ही ये चरमोत्कर्ष को छू रही है.
पाकिस्तानी महिलाओं का हर साल इस दिन औरत मार्च निकालना तथा हिंसा, उत्पीड़न, बलात्कार, यौन दुर्व्यवहार, ज़बरिया शादी, ऑनर किलिंग, एसिड हमले, वेतन असमानता और विरासत के अधिकार जैसे मुद्दों को उठाना पाकिस्तानी मर्दों के लिए चिंता का सबब है. पर महिलाएं हिंसा और दमन की बात पर ही रुक जाती हैं. पुरुषों की सोच ये है— आपके साथ कैसा सलूक होता है ये हमारी चिंता नहीं है, पर आप यदि खुलेआम ये बात उठाएंगी, तो फिर ये हमारे लिए चिंता का सबब है.
खुलेआम प्रदर्शन करने वाली, मौलिक अधिकारों की मांग करने वाली और गंभीर मुद्दों को उठाने वाली महिलाएं ‘अच्छी महिलाएं नहीं’ होती हैं क्योंकि अच्छी महिलाएं तो किसी बात पर शिकायत नहीं करती हैं. महिलाओं को कितनी आज़ादी मिलनी चाहिए, पाकिस्तान में यह पैमाना दूसरे तय करते हैं.
इसलिए जब उनसे बोलने तक की अपेक्षा ना की जाती हो, तो भला वह मार्च कैसे कर सकती हैं? फिर भी, मार्च महीने में महिलाएं मार्च करती हैं जिसे औरत मार्च कहा जाता है. और इन दो शब्दों – औरत मार्च – के उल्लेख भर से ही विरोधी परेशान हो जाते हैं. औरत मार्च इसके विरोधियों के लिए कोरोना वायरस है और वे सभी को पश्चिमी लॉबी की इस साज़िश से दूर रहने की चेतावनी देते हैं.
मार्च का डर
इस साल औरत मार्च पर रोक लगाने की मांग भी उठी है क्योंकि घबराए हुए एक याचिकाकर्ता ने इसे ‘इस्लामी क़ायदों’ के खिलाफ बताते हुए कहा है कि इस मार्च का छुपा एजेंडा ‘अराजकता, अश्लीलता और नफरत फैलाना’ है. और हां, यह शासन विरोधी गतिविधियों को भी बढ़ावा देता है. हालांकि लाहौर हाइकोर्ट इस दलील से सहमत नहीं हुआ. अदालत ने कहा कि पाकिस्तान के कानून और संविधान के तहत महिलाओं के मार्च पर रोक नहीं लगाई जा सकती है. इसलिए इस बार भी औरत मार्च निकलेगा.
लेकिन कुख्यात लाल मस्जिद के अतिवादियों को मानो अदालती फैसले का कोई फर्क नहीं पड़ा और वे कलाकारों को धमकाने और इस्लामाबाद में औरत मार्च के आयोजकों द्वारा तैयार दो महिलाओं वाले दीवार-चित्र को पुलिस की मौजूदगी में बर्बाद करने से बाज नहीं आए. उन्हें दीवार-चित्र में दो ‘अनावृत’ महिलाएं इतनी अश्लील लगीं कि उन्होंने उसे काला रंग पोत कर बर्बाद करना मुनासिब समझा. इससे पहले लाहौर में जनोपयोगी संदेशों और महिला प्रतीकों वाले एक दीवार-चित्र को भी नष्ट कर दिया गया था. औरत मार्च के खिलाफ नफ़रत बढ़ाने में ज़मीयत उलेमा-ए-इस्लाम (एफ) के नेता मौलाना फ़ज़लुर रहमान ने यह कहकर योगदान दिया कि उनकी पार्टी मानवाधिकारों के नाम पर अश्लीलता और बेहूदगी नहीं चलने देगी क्योंकि क़ुरान और सुन्ना में इसकी अनुमति नहीं है. उन्होंने अपने कार्यकर्ताओं का ताकत के ज़ोर पर मार्च को रोकने का आह्वान किया है.
हम ये मान सकते हैं कि औरत मार्च का विरोध करने वाले अधिकतर लोगों को महिला आंदोलन द्वारा उठाई गई मांगों की भी जानकारी नहीं होगी. उनकी सिर्फ ये मांग है कि महिलाओं को बराबरी का हक़ और मौलिक अधिकारों की गारंटी मिले पर किसे इसकी परवाह होगी जब कुछेक तख्ती-पोस्टर ही भड़काने के लिए काफी होते हैं.
अपने शरीर पर हक़ जताने की जुर्रत?
पिछले साल से ही एक महिलावादी नारा चला आ रहा है— मेरा जिस्म, मेरी मर्ज़ी. सरल भाषा में इसका मतलब ये है कि महिला शरीर उत्पीड़न के लिए नहीं है. यह नारा बलात्कार, वैवाहिक ज़बरदस्ती, यौन हमले और नारी शरीर पर केंद्रित हिंसा की समस्या को उजागर करता है. यह उस सामाजिक मान्यता के विपरीत है कि जिसके तहत नारी शरीर पर पुरुष का हक़ माना जाता है. इसलिए बहुतों को ये अपमानजनक लगता है. यदि मेरा जिस्म, ‘आपकी मर्ज़ी’ का नारा दिया जाए तो अपमानित महसूस करने वाले सारे लोग खुशी-खुशी साथ आ जाएंगे.
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मेरा जिस्म, मेरी मर्ज़ी के नारे को लेकर की जाने वाली घटिया टिप्पणियां यही दर्शाती हैं कि नारी शरीर को लेकर पुरुषों की मनोग्रंथि खत्म नहीं होने वाली है. असल मुद्दा नारे का नहीं बल्कि पुरुषवादी मानसिकता का है जो ना कहने के महिलाओं के अधिकार पर सवाल उठाती है.
टेलीविज़न पटकथा लेखक खलीउर्रहमान क़मर एक टॉकशो में यहां तक कह गए कि इस जुमले को सुनकर उऩका खून खौल जाता है. जब इस पर वहां मौजूद पत्रकार मारवी सिरमद ने ‘मेरा जिस्म, मेरी मर्ज़ी’ कहकर दिखाया तो क़मर ने इन अपशब्दों के साथ शुरुआत की कि ‘तेरा जिस्म है क्या, बीबी? थूकता है कोई आपके जिस्म पर?’ और फिर वह गाली-गलौज पर उतर आए. क़मर के बगल में बैठी महिला एंकर ने उन्हें स्टूडियो से बाहर का रास्ता दिखाने का साहस नहीं दिखाया. ये भी देखना दिलचस्प था कि क़मर द्वारा मारवी को ‘बिच’ कहे जाने पर बहस में शामिल एक मौलाना को न सिर्फ कोई परेशानी नहीं हुई, बल्कि वह हर किसी से क़मर को अपनी बात पूरी करने देने का आग्रह करते रहे. आपके लिए ये जानना भी दिलचस्प होगा कि क़मर खुद को महिला अधिकारों की तरफदारी करने वाला नारीवादी बताते हैं. जी हां, मौलाना और महिलाओं से घृणा करने वाले ही पाकिस्तान में असल नारीवादी बने बैठे हैं.
This is the man who preaches morality and mannerism to women participating #AuratMarch. Just see the true face of anti #AuratMarch crowd. https://t.co/Ign5vl2wrw
— Marvi Sirmed (@marvisirmed) March 3, 2020
वैसे, औरत मार्च के पोस्टर-बैनर को लेकर टीवी पर तीखी नोंकझोंक कोई नई बात नहीं है. हमें 2019 के औरत मार्च में ‘डिक पिक्स अपने पास रखो’ लिखी तख्ती को लेकर ओरिया मक़बूल जान का आपे से बाहर होना याद है. उन्होंने उस तख्ती को अपने मौलिक अधिकारों का ‘उल्लंघन’ बताया था. मानो महिलाओं को लिंग की तस्वीरें भेजना कोई मौलिक अधिकार हो जिसे मार्च में शामिल महिलाएं ओरिया मक़बूल जान जैसे मर्दों से छीनने की कोशिश कर रही हों. महिलाओं द्वारा सार्वजनिक स्थलों पर अपना हक़ जताते हुए मार्च में प्रदर्शित अन्य कई तख्तियां भी अब तक लोगों के जेहन में हैं जिनमें सेनेटरी पैड पर टैक्स नहीं लगाने, महिलाओं पर एसिड नहीं फेंकने, स्त्रियों की लॉलीपॉप, आईपैड या जूस बॉक्स से तुलना नहीं करने और बेटियों को विरासत का अधिकार देने की मांगों को स्वर दिया गया था.
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हर साल औरत मार्च को लेकर जिस तरह की प्रतिक्रियाएं सामने आती हैं वो आसानी से कॉमेडी शो का हिस्सा बन सकती हैं, बशर्ते महिलाओं द्वारा उठाए जाने वाले मुद्दे असली नहीं होते और उन पर तत्काल ध्यान दिए जाने की दरकार नहीं होती. हर साल 8 मार्च को महिलाओं का सड़कों पर उतरना एक सकारात्मक आंदोलन है जिसका हम सभी को समर्थन करना चाहिए.
(इस लेख को अंग्रेजी में भी पढ़ा जा सकता है, यहां क्लिक करें)
(लेखिका पाकिस्तान की एक स्वतंत्र पत्रकार हैं. उनका ट्विटर हैंडल @nailainayat है. व्यक्त विचार उनके निजी हैं.)