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Friday, 22 November, 2024
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अमेरिका-अफ़ग़ान शांति समझौता पुराने ढर्रे पर है जबकि 2020 का तालिबान बदल चुका है

अफ़ग़ान समझौते का मेन्यू पाकिस्तान का है, इसे पकाया अमेरिका ने है, जबकि खर्च उठाया है दोहा ने. तालिबान को सिर्फ स्टार्टर और अफ़ग़ान सरकार को डेज़र्ट मिलेंगे, जबकि मुख्य व्यंजन पाकिस्तान और ट्रंप के चुनाव अभियान के बीच बंटेगा.

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क़तर की राजधानी दोहा उन शहरों की सूची में शामिल हो गया है, जिसने 1979 के बाद से अफ़ग़ानिस्तान संकट के टिकाऊ राजनीतिक समाधान की तलाश में विभिन्न पक्षों के बीच बैठकों की मेजबानी की हैं. यह सूची वास्तव में वैश्विक स्तर की है क्योंकि इसमें न्यूयॉर्क, मॉस्को, जेनेवा, इस्लामाबाद, पेशावर, लंदन, ताशकंद, तेहरान, निकोसिया, मक्का, बॉन, पेरिस, बीजिंग, अश्गाबात, अबू धाबी और जेद्दा शामिल हैं. क्या दोहा अफ़ग़ान पहेली को सुलझा कर खुद को बाकियों से अलग साबित कर सकता है?

दोहा समझौते में अमेरिका की सुरक्षा और आर्थिक चिंताओं का ख्याल रखने वाले तत्व शामिल हैं. अमेरिका का आखिरी दांव या तो अफ़ग़ान के जंजाल से सुरक्षित बाहर निकलने या एशिया के केंद्र में एक किफ़ायती उपस्थिति का रहा है. यदि समझौता सफल होता है तो हमें दूसरा विकल्प देखने को मिलेगा और यदि यह नाकाम साबित हुआ तो हम पहला विकल्प देखेंगे.

‘शांति समझौते’ की पिछली कोशिशें इसलिए नाकाम रही थीं कि एक तो शत्रुता की समाप्ति जैसे तात्कालिक लक्ष्यों को पूरा नहीं किया गया था और फिर दीर्घकालीन चिंताओं– मुख्यतया एक समावेशी और कारगर संवैधानिक व्यवस्था के निर्माण और उसे कायम रखने को लेकर– को दूर नहीं किया गया था.

यह विफलता अफ़ग़ान राजनीतिक समाधान में बाहरी मांगों को शामिल करने से और गंभीर हो जाती है. जैसे 2001 के बॉन सम्मेलन के दौरान, एक नरम पश्तून हामिद करज़़ई को सत्ता सौंपे जाने की पाकिस्तान की इच्छा को माना गया, जबकि अंतर-अफ़ग़ान बैठक में सामूहिक निर्णय किसी और के पक्ष में था.

संयुक्त राष्ट्र की विधिक व्यवस्था का उल्लंघन

दुर्भाग्य से, दोहा समझौता पूर्व की खामियों से बच नहीं पाया. यह अनिवार्य रूप से वाशिंगटन की तात्कालिक और दीर्घकालिक ज़रूरतों को पूरा करने पर लक्षित है. ट्रंप प्रशासन अपने 2020 के राष्ट्रपति चुनाव अभियान में कुछ दिखाने के लिए बेताब है. चुनावी साल में दाढ़ी वाले तालिबानियों के साथ फोटो खिंचवाना जोख़िम भरा काम है और राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप ये खतरा उठाने को तैयार हैं.


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तालिबान के हित में दोनों पक्षों के बीच अपर्याप्त आदान-प्रदान के अलावा, संयुक्त राष्ट्र नामित एक सक्रिय आतंकवादी समूह और संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद के एक स्थायी सदस्य के बीच हुआ ये समझौता संयुक्त राष्ट्र की विधिक व्यवस्था का स्पष्ट उल्लंघन है. यह अफ़ग़ान सरकार की वैधता को भी कम करता है और इसके अल-क़ायदा जैसे अन्य प्रतिबंधित संगठनों के साथ समझौतों के लिए एक मिसाल साबित होने का भी खतरा है.

कुकिंग के उदाहरण से तुलना

अमेरिका-अफ़ग़ान शांति समझौते को कुकिंग के उदाहरण से बेहतर समझा जा सकता है: मेन्यू चुना है पाकिस्तान ने, जिसे ज़लमय खलीलज़ाद नामक अमेरिकी रसोइया एक जर्मन किचन में तैयार करेगा, और जिसे नार्वे के रेस्तरां में परोसा जाएगा. बिल का भुगतान क़तर ने किया है.

तालिबान को स्टार्टर वाले डिश मिलेंगे, जबकि मुख्य व्यंजन पाकिस्तान और ट्रंप के चुनाव अभियान में बंटेगा.
अफ़ग़ान सरकार को आखिर में परोसी जाने वाली मिठाई का एक हिस्सा मिलेगा. जबकि महिला अधिकारों समेत अफ़ग़ानिस्तान के लोकतांत्रिक तत्वों को बस जूठन, यदि बचा तो, मिलेगा.

फीस लेकर काम करने वाले कुछ विशेषज्ञ और प्राच्यविद् तथा अमेरिकी शांति संस्थान (यूएसआईपी) जैसे कुछ संगठन इसके लिए मार्केटिंग एजेंट का काम करेंगे, और संयुक्तराष्ट्र स्वास्थ्य प्रमाण-पत्र जारी करने का काम करेगा. बेशक, कॉपीराइट ब्रिटेन के पास है.

पुरानी धारणाओं पर आधारित समझौता

दुर्भाग्य से यह समझौता पुरानी मानसिकता, धारणाओं और किरदारों पर आधारित है और उनके अनुरूप ही परिणाम की अपेक्षा की गई है.

पर 2020 का तालिबान अपनी पहले की पीढ़ियों से अलग है. मीडिया मामलों में प्रवीण आज के तालिबान की समानता सरकार बनाने के इंतजार में बैठे किसी संगठित दल के बजाय ड्रग्स या भाड़े के लड़ाकों वाले किसी संगठन से अधिक है. सर्वशक्तिमान मुल्ला उमर या व्यवसाय में कुशल मुल्ला मंसूर के विपरीत मौजूदा तालिबान नेता मौलवी हिबतुल्ला अखुंदज़ादा की हैसियत सर्वोच्च नेता के बजाय एक प्रबंधक की है.

अफ़ग़ानिस्तान के बाकी किरदार भी काफी बदल गए हैं. तमाम गंभीर दोषों और कमजोर प्रदर्शन के बावजूद 2001 के बाद की संवैधानिक प्रणाली ने अफ़ग़ान शासन तथा क्षेत्रीय और अंतरराष्ट्रीय व्यवस्था के भीतर जड़ें जमा ली है. हाल के सर्वेक्षणों के अनुसार अफ़ग़ानिस्तान के लोग एक गणतंत्रात्मक और लोकतांत्रिक राजनीतिक व्यवस्था का बढ़-चढ़कर समर्थन करते हैं.


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अफ़ग़ान राष्ट्रीय रक्षा और सुरक्षा बलों (एएनीएसएफ) ने तालिबान को कोई रणनीतिक बढ़त लेने का मौका नहीं दिया है. राजनीतिक दावेदारियों के बावजूद क्षेत्रीय और वैश्विक ताकतें काबुल के मौजूदा राजनीतिक क्रम के पक्ष में हैं क्योंकि तालिबान की वापसी या राजनीतिक व्यवस्था ध्वस्त होने के वैकल्पिक परिदृश्य बेलगाम अराजकता और त्रासदी वाले होंगे. जीत के दावों के बावजूद तालिबान को पराजय, अपमान, विस्थापन, युद्ध की थकान तथा अतीत के कुशासन और गलत आकलनों का अहसास है.

अक्षम ट्रम्प प्रशासन

हालांकि तालिबान के लिए अच्छी बात ये है कि अमेरिका के रूप में उसके सामने एक व्यग्र वार्ताकार है जबकि इसके विपरीत उसे पाकिस्तान जैसे निपुण किरदार और क़तर जैसे धनी मेजबान का मार्गदर्शन मिल रहा है. अधिक स्वायत्त तालिबान के लिए अपने देशवासियों पर एकतरफा समझौता थोपना मुश्किल होगा.

जैसा कि मध्य पूर्व, ईरान परमाणु समझौते, उत्तर कोरिया, वेनेजुएला और हाल ही में दोहा में देखा जा चुका है, ट्रंप की टीम में एक शांतिस्थापक या निष्पक्ष और कुशल मध्यस्थ कहलाने के लिए आवश्यक योग्यता, अनुभव और भरोसे का अभाव है.

अमेरिका के मुख्य वार्ताकार ज़लमय खलीलज़ाद– अफ़ग़ानिस्तान में पूर्व अमेरिकी राजदूत– का ‘सत्ता परिवर्तन’ और ‘नियंत्रित अराजकता’ में विश्वास रहा है. काबुल में मौजूदा राजनीतिक गतिरोध पर उनकी पूरी छाप है- पहले तो उन्होंने 2002 में अफ़ग़ानिस्तान के संविधान में चुनाव में आगे रहने वाले को सारी ताकत सौंपने की व्यवस्था को शामिल कराया और फिर अफ़ग़ान संवैधानिक व्यवस्था को कमजोर करने का सुनियोजित प्रयास किया, जिनमें 2019 के राष्ट्रपति चुनाव को रद्द कराने की उनकी कोशिशें भी शामिल हैं.

श्रेष्ठता का भाव रखने वाले यूरोपीय और मौकापरस्त क्षेत्रीय किरदारों को अफ़ग़ान शांति प्रक्रिया को संचालित करने के काबिल नहीं कहा जा सकता है. अफ़ग़ान राजनीतिक उद्यमी भी इस मामले में नेतृत्व करने की क्षमता और अपनी वैधता गंवा चुके हैं.

तीन बुनियादी मुद्दे

इसलिए अफ़ग़ान शांति प्रक्रिया के सफलता के लिए जरूरी है कि यह सचमुच में यह अफ़ग़ानिस्तान नियंत्रित प्रयास हो. वार्ताओं के स्थल पर भी यह बात लागू होती है. ‘संतों के निवास’ के रूप में प्रसिद्ध हेरात शहर का नाम वार्ताओं के लिए उपयुक्त स्थल के रूप में उद्धृत किया जा रहा है.


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अफ़ग़ान संघर्ष के केंद्र में तीन मूलभूत मुद्दे हैं- अफ़ग़ानिस्तान की संवैधानिक व्यवस्था की वैधता, जनकल्याण कार्यों के संचालन की सरकार की क्षमता और वर्चस्व की पाकिस्तानी महत्वाकांक्षा के मुकाबले इसकी कमजोरी. इन तीन परस्पर संबद्ध मुद्दों से निपटने के बाद ही एक टिकाऊ राजनीतिक समाधान निकालना और उसे कायम रखना संभव हो पाएगा.

(लेखक अफ़ग़ान सामरिक अध्ययन संस्थान के निदेशक हैं और पूर्व में अफ़ग़ानिस्तान के विदेश मंत्रालय में वरिष्ठ नीतिगत सलाहकार रहे हैं. व्यक्त विचार उनके निजी हैं.)

(इस लेख को अंग्रेज़ी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)

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