नई दिल्ली: जब मोदी सरकार ने गत माह गायक अदनाम सामी, पाकिस्तानी मूल के भारतीय नागरिक, को पद्मश्री प्रदान किया तो विपक्ष ने खूब हल्ला मचाया और राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी ने इसे ’130 करोड़ भारतीयों का अपमान’ करार दिया.
सामी के पिता पाकिस्तानी वायु सेना में फाइटर पायलट थे और वह 1965 के भारत-पाक युद्ध में पठानकोट एयरबेस को तबाह करने वाले हमले में शामिल रहे थे. लेकिन लंदन में जन्मे सामी ने 2016 में भारत की नागरिकता ले ली. इससे साल भर पहले पाकिस्तान ने उनके पासपोर्ट के नवीकरण से इनकार कर दिया था.
सरकार द्वारा एक पाकिस्तानी को भारत को चौथे सबसे बड़े नागरिक सम्मान से नवाजा जाना विपक्ष को भले ही नागवार गुजरा हो, पर ऐसा कोई पहली बार नहीं हो रहा था. तीन दशक पहले, पाकिस्तान ने एक भारतीय को अपना सर्वोच्च असैनिक सम्मान दिया था – और वो भारतीय पूर्व प्रधानमंत्री के ओहदे वाला था.
आपातकाल के बाद वाले दौर में दो वर्षों के लिए भारत के प्रथम गैर-कांग्रेसी प्रधानमंत्री रहे मोरारजी देसाई को 1988 में निशान-ए-पाकिस्तान सम्मान दिया गया था.
पाकिस्तान की इस पहल पर कांग्रेस ने अपना गुस्सा जताया था, लेकिन देसाई इससे बेअसर रहे और उन्होंने पड़ोसी राष्ट्र द्वारा दिए गए सम्मान को ग्रहण किया.
देसाई की 124वीं जयंती, 29 फरवरी 2020, के मौके पर दिप्रिंट ने पाकिस्तान से उनके रिश्ते पर नज़र डाली है और इस बात पर विचार किया है कि उनको पाकिस्तान का सर्वोच्च असैनिक सम्मान क्यों मिला.
उथल-पुथल वाला दौर
देसाई जब 1977 में प्रधानमंत्री बने तो दोनों देशों के बीच 1971 के भारत-पाक युद्ध और बांग्लादेश के निर्माण के बाद से खराब हुए रिश्तों में सुधार हो रहा था.
उनका दो वर्षों का कार्यकाल क्षेत्र के लिए उथल-पुथल भरा था, भारत में आपातकाल का दौर खत्म हो चुका था और चुनावों में इंदिरा गांधी पराजित हो चुकी थीं. जबकि पाकिस्तान में सैनिक जनरल ज़ियाउल हक़ ने ज़ुल्फिकार अली भुट्टो का तख्तापलट कर दिया था, और उधर बांग्लादेश में राष्ट्रपति ज़ियाउर रहमान को अवामी लीग के वज़ूद को क़ायम रखने और उसे सत्तासीन रखने के लिए तख्तापलट के प्रयासों से जूझना पड़ रहा था.
लेकिन जैसा कि कई वरिष्ठ राजनयिकों ने दिप्रिंट को बताया, देसाई के ‘स्पष्टवादी’ रुख के कारण दोनों ही देशों से भारत के रिश्ते बेहतर हो रहे थे. एक राजनयिक के अनुसार पाकिस्तान के प्रति सद्भावना और उसके साथ ‘ईमानदार एवं पारदर्शी रिश्ते में अपने दृढ़ विश्वास के कारण उन्हें 1988 में निशान-ए-पाकिस्तान का सम्मान दिया गया, जिसे उन्होंने उदारता से स्वीकार भी किया.’
देसाई और हक़ के रिश्ते
इंटरनेट उन अफवाहों से भरा पड़ा है जिसमें देसाई और ज़ियाउल हक़ को करीबी दोस्त बताया जाता है, जोकि अक्सर फोन पर बातें किया करते थे. देसाई के साथ काम कर चुके एक वरिष्ठ राजनयिक ने माना कि दोनों के बीच कई दफे पत्र-व्यवहार हुआ था, पर इनकार किया कि दोनों करीबी मित्र थे.
दोनों सिर्फ एक बार ही मिले थे— 1978 में कीनिया के राष्ट्रपति जोमो कीनियाता के अंतिम संस्कार के मौके पर, वो भी चंद मिनटों के लिए.
वरिष्ठ राजनयिक ने कहा, ‘दरअसल वे भारत-पाक समस्या को हल करना चाहते थे, और उन्होंने परस्पर सहयोग करने का संकल्प लिया था… उनमें एक-दूसरे के लिए सम्मान भाव था।‘
देसाई और हक़ की दूसरी मुलाकात नहीं हुई, पर द्विपक्षीय रिश्तों में सुधार हुआ. अटल बिहारी वाजपेयी ने, जो 1978 से 1980 के बीच विदेश मंत्री थे, दोनों देशों के बीच जनता के स्तर पर संबंधों में सुधार के लिए इस्लामाबाद की यात्रा की थी, और तब दिल्ली एवं लाहौर के बीच सीधी ट्रेन सेवा शुरू की गई थी.
पाकिस्तान में भारत का उच्चायुक्त रह चुके टीसीए राघवन ने कहा, ‘पाकिस्तान के साथ शांतिपूर्ण संबंधों के लिए देसाई ने ज़िया के साथ ईमानदार प्रयास किए थे. ज़िया इंदिरा गांधी को उतना स्पष्टवादी नहीं मानते थे.’
रॉ की सूचनाओं को ‘लीक’ किया जाना
देसाई को भारत के सर्वाधिक विवादास्पद नेताओं में से एक माना जाता है क्योंकि उन्होंने खुफिया संस्था रॉ के बजट और कार्मिकों की संख्या में 50 प्रतिशत की कटौती पर ज़ोर देते हुए उसे ‘कमज़ोर’ करने का निर्णय किया था. पूर्व राजनयिक प्रभु दयाल के अनुसार देसाई के इस रवैये को तब उनकी नादानी और आक्रामकता, या अपनी पकड़ स्थापित करने के प्रयास के रूप में देखा गया था. देसाई को रॉ से ‘चिढ़’ थी क्योंकि वे इसे इंदिरा गांधी द्वारा विपक्षी नेताओं की जासूसी के लिए गठित एजेंसी के रूप में देखते थे.
ऐसी अफवाहें थीं कि देसाई ने 1978 में ज़िया से फोन पर बातचीत के दौरान ‘असावधानीवश’ अहम सूचनाएं पाकिस्तान तक पहुंचा दी थी. रॉ के प्रतिष्ठित अधिकारी रहे बी. रमन ने अपनी किताब ‘द काउब्वॉयज़ ऑफ रॉ’ में इसका ज़िक्र किया है:
‘ज़िया चापलूसी की कला में माहिर थे. अक्सर वह देसी दवाओं और मूत्र चिकित्सा आदि पर सलाह लेने के बहाने मोरारजी देसाई को फोन करते थे. मोरारजी इस पर गदगद हो जाते. ज़िया गंभीरता दिखाते हुए उनसे पूछते: ‘मान्यवर, एक दिन में कितनी बार मूत्र का सेवन किया जाना चाहिए? क्या ये सुबह का पहला मूत्र होना चाहिए या दिन के किसी भी समय का हो सकता है?’ एक दिन ऐसे ही लापरवाही भरे क्षण में, मोरारजी ने उनसे ज़ाहिर कर दिया कि उन्हें सैन्य परमाणु क्षमता विकसित करने के पाकिस्तान के प्रयासों की जानकारी है. असावधान राजनीतिक नेता खुफिया पेशे के लिए अपरिहार्य खतरा होते हैं.’
हालांकि दिप्रिंट से बात करने वाले वरिष्ठ राजनयिक देसाई द्वारा जाने या अनजाने में ज़िया से खुफ़िया सूचनाएं साझा किए जाने के दावे को बकवास बताते हैं, और इससे पूरी तरह इनकार करते हैं. उनके अनुसार इस तरह की अफवाहें ‘बहुत बाद में’ सामने आनी शुरू हुईं.
‘वह बहुत चतुर थे और वह लंबे समय तक सार्वजनिक जीवन में रह चुके एक परिपक्व राजनीतिज्ञ थे. उनके इस तरह असावधान होने का कोई सवाल ही नहीं उठता.’
निशान-ए-पाकिस्तान का सम्मान दिया जाना
देसाई को सम्मान के साथ प्रदान किए गए प्रशस्ति पत्र में कहा गया था, ‘दोनों देशों के बीच शांति और संबंधों में सुधार के प्रति उनकी अटूट प्रतिबद्धता को मान्यता स्वरूप.’
अपनी आत्मकथा ‘द स्टोरी ऑफ माय लाइफ’ में देसाई ने एक पाकिस्तानी राजनयिक से अपनी बातचीत का उल्लेख किया है जिसमें उन्होंने अपनी नेतृत्व शैली पर बात की थी: ‘धमकी और ब्लैकमेल की नीति गलत है. मेरी स्पष्ट मान्यता थी कि पड़ोसियों की दोस्ती लाड़-प्यार से हासिल नहीं की जा सकती. लाड़-प्यार उन्हें और अधिक आक्रामक बना देगा.’
हालांकि, राघवन को लगता है कि इसके कारण और गहरे हो सकते हैं. उन्होंने अपनी किताब ‘द पीपुल नेक्स्ट डोर’ में लिखा है कि 1987 में अब्दुल गफ़्फ़ार ख़ान को भारत रत्न से सम्मानित किए जाने के तुरंत बाद देसाई को यह सम्मान दिया गया था.
उन्होंने दिप्रिंट को बताया, ‘उन्हें लगा होगा कि इस उदारता की बराबरी करनी चाहिए, हालांकि ये निर्विवाद है देसाई के कार्यकाल में दोनों देशों के संबंध बेहतर हुए थे.’
राघवन के अनुसार, सम्मान की घोषणा भले ही 1988 में की गई थी, पर बूढ़े हो चुके देसाई को यह प्रदान किया गया 1990 में आकर. एक रहस्यमय विमान दुर्घटना में ज़िया की मौत और फिर बेनज़ीर भुट्टो के उदय के बाद सम्मान पाकिस्तान की तात्कालिक प्राथमिकताओं में नहीं रह गया था.
राघवन ने बताया कि पाकिस्तान के सर्वोच्च सम्मान को आलोचकों ने ज़िया द्वारा भारत के आंतरिक मामलों में दखल की कोशिश या उनके शातिराना ‘जनसंपर्क’ कौशल के रूप में देखा था, लेकिन देसाई ने कभी संकोच नहीं किया.
देसाई ने कहा था, ‘सबसे बड़े देश का ये कर्तव्य है कि वह अपने सभी पड़ोसियों के साथ अच्छे संबंध बनाकर रखे. मेरी यही सोच थी और मैंने यही किया.’