नई दिल्ली: दिल्ली विधानसभा चुनाव में कांग्रेस के लगातार तीसरी बार खराब प्रदर्शन के पीछे कई कारण हैं. इनमें से मुख्य हैं- एक दिशाहीन और उदासीन शीर्ष नेतृत्व, प्रभावशाली चुनावी प्रचार की कमी, संदेश और निराश मतदाता.
कुछ लोग इस खराब प्रदर्शन को भारतीय जनता पार्टी के लिए जीत की संभावनाएं खत्म करने के लिए कांग्रेस की सुनियोजित रणनीति बता रहे हैं. ये दर्शाता है कि कांग्रेस पार्टी की खुद की जीत की संभावनाएं इतनी कमजोर थीं कि वो चुनावी लड़ाई में टिक पाने लायक नहीं थी. इस बात को आरएसएस के मुखपत्र ऑर्गेनाइजर के पूर्व एडिटर शेषाद्री चारी ने एनडीटीवी चैनल में एक डिबेट के दौरान भी इशारे में कह दी थी.
हाईकमान ने हाल ही में हरियाणा, महाराष्ट्र और झारखंड विधानसभा चुनावों में दिलचस्पी की कमी दिखाई दी थी. ये बात साफ करती है कि दिल्ली चुनाव के खराब प्रदर्शन पर कांग्रेस की रणनीति सुनियोजित नहीं थी, जैसा कुछ लोग दर्शाने की कोशिश कर रहे हैं.
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ये रिपोर्ट छपने तक के चुनावी रुझान बताते हैं कि दिल्ली की 70 विधानसभा सीटों में से कांग्रेस एक भी सीट पर लीड नहीं कर पाई. 2015 के विधानसभा चुनाव में भी कांग्रेस एक भी सीट नहीं जीत सकी थी. 2013 के विधानसभा चुनाव में उसके पास 8 सीटें थीं.
पार्टी का जीत को लेकर विश्वास इतना कमजोर है कि विकासपुरी के प्रत्याशी मुकेश शर्मा से समझ सकते हैं जिन्होंने पोस्टल बैलेट की काउंटिंग के दौरान ही हार मान ली.
दिल्ली में कांग्रेस के पतन के ये पांच मुख्य कारण हैं. दिल्ली राज्य कांग्रेस पार्टी की ताकत रहा है जहां पार्टी दिवंगत शीला दीक्षित के नेतृत्व में लगातार तीन बार विधानसभा चुनाव जीती.
राहुल गांधी- एक उबाऊ चेहरा
राहुल गांधी फिलहाल कांग्रेस अध्यक्ष पद पर नहीं हैं लेकिन कांग्रेस प्रमुख के रूप में उनके कार्यकाल के दौरान पार्टी ने चुनावी और राजनीतिक तौर पर गिरावट देखी है.
दिसंबर 2013 के विधानसभा चुनाव में राहुल गांधी ने वादा किया था कि वो ऐसा बदलाव लाएंगे जिसकी कोई कल्पना भी नहीं कर सकता. ये कल्पना भी किसी ने नहीं की थी कि इसके बाद होने वाले 2014 के लोकसभा चुनाव में कांग्रेस 44 सीटों पर ही सिमट जाएगी. 2019 के लोकसभा चुनाव में भी कांग्रेस केवल 52 सीटों ही जीत पाई थी.
पार्टी के मुख्य चेहरे के रूप में राहुल गांधी एक बोरिंग चेहरा हैं. मतदाता भी उन्हें कांग्रेस के लीडर के रूप में देखने के इच्छुक नहीं हैं. हां, राज्यों की स्थित कुछ अलग है क्योंकि वहां कांग्रेस का स्थानीय नेतृत्व मजबूर है जिसमें मतदाताओं का विश्वास है.
लेकिन ये विश्वास राहुल गांधी को पार्टी के मुख्य चेहरे के तौर पर पेश करने पर दिखाई नहीं देता. इस बार दिल्ली विधानसभा चुनाव में राहुल गांधी और प्रियंका गांधी वाड्रा ने चार-चार रैलियों को संबोधित किया था.
राहुल गांधी और विदेशी टूर
कई बार ये पता लगाना मुश्किल हो जाता है कि राहुल गांधी की उपस्थिति कांग्रेस पार्टी को ज्यादा नुकसान पहुंचाती है या उनकी अनुपस्थिति. लेकिन किसी भी राजनीतिक पार्टी के लिए उसके प्रमुख लीडर का अनुपस्थित रहना, पार्टी कार्यकर्ताओं और कॉडर के लिए हतोत्साहित करने वाला है. भले ही वो नेता जनता के बीच कितना भी अलोकप्रिय क्यों ना हो.
राहुल गांधी का विदेशी टूर पर लगातार जाना पार्टी के अनुशासन को खराब करता है, कार्यकर्ताओं का उत्साह कम करता है और किसी भी सुनियोजित रणनीति की तरफ ले जाने में मदद नहीं करता.
राहुल गांधी का मतदाताओं से जीरो कनेक्शन
एक अन्य कारण जिसकी वजह से भाजपा लगातार राष्ट्रीय स्तर पर खुद को मजबूत कर पा रही है और कांग्रेस पार्टी को शर्मिंदगी देखनी पड़ रही है- वो ये है कि शीर्ष नेतृत्व वो मुद्दे नहीं उठा पाता जिनसे आम जनता खुद को जुड़ा हुआ महसूस करती है.
यही कारण रहा कि लोकसभा चुनाव में कांग्रेस का ‘चौकीदार चोर है’ का नारा कांग्रेस पर ही भारी पड़ गया. राहुल गांधी का राफेल को लेकर शुरू किया गया चुनावी प्रचार भी ग्राउंड पर जीरो रंग दिखा पाया.
दिल्ली के चुनावों में भी ये बात दिखाई देती है. कांग्रेस एक प्रभावशाली प्रचार तक नहीं कर सकी. ना ही वो मतदाताओं के असली मुद्दों को उठा सकी जो पार्टी को एक विकल्प के तौर पर देख भी सके. मतदाताओं से जुड़े मुद्दे पार्टी उम्मीदवार उठा सकते हैं और चुनाव की टोन और अजेंडा शीर्ष नेतृत्व सेट कर सकता है. जैसे पीएम मोदी और गृहमंत्री अमित शाह ने शाहीन बाग, नागरिकता कानून को लेकर किया और इस चुनाव को ‘हम बनाम वो’ बना दिया.
राहुल गांधी का स्थानीय नेतृत्व को मजबूत ना कर पाना
स्थानीय नेतृत्व में मजबूती की कमी भी कांग्रेस पार्टी की एक बड़ी विफलता रही है. पंजाब, मध्य प्रदेश और राजस्थान जैसे राज्यों में लोकल लीडरशिप के ताकतवर होने की वजह से चुनावी नतीजे कुछ और रहे हैं.
लेकिन स्थानीय नेताओं को मजबूत करने में राहुल गांधी का योगदान बहुत कम रहा है. दिल्ली इसका सबसे बड़ा उदाहरण है. शीला दीक्षित एक लोकप्रिय और पंसद की जाने वाली नेता थीं लेकिन उन्हें भी दिल्ली और यूपी के बीच फंसाया जाता रहा. शीला दीक्षित के विकल्प के तौर पर किसी भी अन्य नेता को तैयार नहीं किया गया. जबकि दिल्ली के पूर्व अध्यक्ष अजय माकन बीमार पड़ चुके थे.
इसलिए एक बड़े नेता के नेतृत्व के बिना पार्टी का चुनाव-प्रचार और उपस्थिति नगण्य रही.
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राहुल गांधी का नेताओं की प्रतिद्वंद्विता खत्म ना कर पाना
राष्ट्रीय स्तर पर राहुल गांधी ने भले ही ‘पुराने नेता बनाम नए नेता’ को चलने दिया लेकिन राज्यों में भी वो पार्टी की आंतरिक लड़ाइयों को खत्म नहीं करा सके. मध्य प्रदेश और राजस्थान में कमलनाथ-ज्योतिरादित्य सिंधिया और अशोक गहलोत-सचिन पायलट की प्रतिद्वंद्विता इसके मुख्य उदाहरण हैं लेकिन ये राज्य अपने आपको बचाने में कामयाब रहे क्योंकि यहां क्षेत्रीय नेता मजबूत थे और उनका जनाधार था.
हरियाणा में भी अगर आपसी प्रतिद्वंद्विता नहीं होती और राहुल गांधी पहले ही भूपेंद्र सिंह हुड्डा जैसे नेता के जनाधार को समझते और उन्हें फ्री हैंड देते तो शायद कांग्रेस राज्य में सरकार बनाने में कामयाब हो पाती.
दिल्ली में कोई नेता भी नहीं था और आपसी लड़ाई भी जारी थी. 2013 में कांग्रेस के खराब प्रदर्शन के बाद दिल्ली यूनिट में गुटबाजी शुरू हो गई थी. अरविंदर सिंह लवली और एके वालिया जैसे पुराने कांग्रेसी नेताओं ने पार्टी छोड़ दी थी. भले ही अजय माकन 2018 में अरविंदर लवली को वापस पार्टी में लाने में सफल रहे लेकिन तब तक काफी समय जाया हो चुका था और आंतरिक लड़ाइयां बदसूरत होती जा रही थीं.
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