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Friday, 22 November, 2024
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दिल्ली की जनता ने क्यों कहा ‘आई लव केजरीवाल’, फेरा भाजपा के अरमानों पर झाड़ू

भाजपा अपनी तरफ़ से शाहीन बाग़ और जामिया से लेकर सीएए तक को मुद्दा बनाने की कोशिश करती रह गई लेकिन आप ने बिजली-पानी, स्कूल-स्वास्थ्य और मुफ्त की चीज़ों को अपना मुद्दा बनाए रखा.

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नई दिल्ली: दिल्ली विधानसभा चुनाव में एक बार फिर अरविंद केजरीवाल और आम आदमी पार्टी ने जीत की हैट ट्रिक दर्ज की है. अब वो और उनकी पार्टी उस फेहरिस्त का हिस्सा बन गए हैं जिन्होंने लगातार कहीं पर तीन बार सरकार बनाने का जादू कर दिखाया हो.

लेकिन ये करिश्मा हुआ कैसे? आइए इसके कारणों को समझने की कोशिश करते हैं.

दिल्ली में तो केजरीवाल

इसकी सबसे बड़ी वजह अरविंद केजरीवाल स्वयं हैं. आम चुनाव 2019 में मुंह की खाने के बाद आप ने अपने सबसे पहले कैंपेन में यही नारा दिया था कि ‘दिल्ली में तो केजरीवाल.’ इतना ही नहीं, उन्होंने अप्रत्यक्ष तौर पर ये बात स्वीकार कर ली की केंद्र में नरेंद्र मोदी का कोई तोड़ नहीं है और इसी तर्ज पर वोटरों के बीच गए कि दिल्ली में केजरीवाल का कोई विकल्प नहीं है.

चेहरे की कमी की आफत की वजह से भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) को सिर्फ दिल्ली में मुंह की नहीं खानी पड़ी बल्कि महाराष्ट्र, हरियाणा और झारखंड जैसे राज्यों में भी इस समस्या से जूझना पड़ा. यहां तक कि आम चुनाव से पहले हुए राजस्थान जैसे चुनाव में भी यही नारा था कि ‘वसुंधरा तेरी ख़ैर नहीं, मोदी तुझसे बैर नहीं.’ इन तमाम वजहों से ये साफ़ है कि भाजपा के लिए राज्यों में नेतृत्व का संकट बेहद गहरा है और दिल्ली में पार्टी को पिछली बार भी इसी का सामना करना पड़ा था.

कहते हैं दूध का जला छाछ भी फूंक के पीता है. संभव है कि इसी वजह से 2015 में किरण बेदी को चेहरा बनाकर राजधानी में 70 में से तीन सीटों पर सिमटी भाजपा ने इस बार किसी को चेहरा बनाने का रिस्क नहीं लिया और केजरीवाल के सामने सुनील यादव जैसे अंजान चेहरे को उतारा जिनके हारने से पार्टी को कोई फ़र्क नहीं पड़ने वाला. चुनाव से पहले भाजपा और कांग्रेस दोनों के ही वरिष्ठ नेताओं ने दिप्रिंट से कहा था कि वो केजरीवाल के समाने किसी मज़बूत कैंडिडेट को वेस्ट नहीं करेंगे.

मुफ्त, मुफ्त, मुफ्त 

जिन मुफ्त की चीज़ों की कई बार आलोचना करने की कोशिश की कई उनकी झुग्गियों से लेकर मिडिल क्लास तक ख़ूब चली. इस बारे में दिप्रिंट ने अपनी एक स्टोरी में आपको ज़मीनी हकीकत बताई थी कि पार्टी के कोर वोट बैंक यानी झुग्गी वालों और अनाधिकृत कॉलनियों वालों को ये योजनाएं खूब भाई थी.

आम चुनाव में बुरी तरह से हार का सामना करने वाले केजरीवाल ने इसके लगभग तुरंत बाद से मुफ्त की चीज़ों का ऐलान करना शुरू कर दिया. जब उन्होंने मेट्रो और बस को महिलाओं के लिए फ्री करने की घोषणा की तो ये किसी धमाके जैसा था. महिलाओं के लिए बस फ्री कर दी गई लेकिन मेट्रो अभी तक फ्री नहीं हुई है.

इसके बाद एक के बाद एक ऐसी कई घोषणाएं हुईं जिनमें सबसे अहम रही 200 यूनिट बिजली खपत पर ज़ीरो बिल. ज़ीरो बिल सोशल मीडिया से लेकर सड़क तक लोगों के बीच चर्चा का विषय रहा और ऑटो वालों ने भी ‘केजरीवाल मेरा हीरो, बिजली बिल मेरा ज़ीरो’ जैसे नारे अपने ऑटो पर लिखवाए जिससे एक तबके की भावना का साफ़ पता चला.

संभव है कि ऐसी ही भावनाएं वोटों में तब्दील हुई और केजरीवाल तीसरी बार दिल्ली के सीएम बन गए.

पॉज़ीटिव कैंपेन

भाजपा अपनी तरफ़ से शाहीन बाग़ और जामिया से लेकर सीएए तक को मुद्दा बनाने की कोशिश करती रह गई लेकिन आप ने बिजली-पानी, स्कूल-स्वास्थ्य और मुफ्त की चीज़ों को अपना मुद्दा बनाए रखा. पार्टी के नेताओं ने अपने कैंपेन से लेकर दिप्रिंट से बातचीत तक में एक ही बात कही ये चुनाव मुद्दों पर होगा.

भाजपा ने भी ‘जहां झुग्गी, वहीं मकान’ के नारे के तहत 40 लाख़ लोगों को पक्का घर देने से लेकर दिल्ली में पीएम आवास और आयुषमान जैसी केंद्रीय योजना लागू करने और घोषणापत्र में किए गए कई वादों से मुद्दों की झलक तो दी, लेकिन इन पर कभी चुनाव नहीं लड़ा.

वो राष्ट्रवाद, नागरिकता और शाहीन बाग़ जैसे मुद्दों की बात करते रहे, आप अपने पिछले पांच सालों के काम पर अड़ी रही. ऐसा भी नहीं है कि पार्टी ने अपने सारे वादे पूरे किए हों. पिछले चुनाव में आप ने जो 70 वादे किए थे उनमें से कई बड़े वादे अधूरे हैं. लेकिन नतीज़ों से साफ़ है कि लोगों को भाजपा के राष्ट्रीय मुद्दों की जगह आप के स्थानीय मुद्दे पसंद आए.

आम चुनाव के बाद से  कैंपेन मोड में

एक तरफ़ जहां भाजपा आम चुनाव के जीत के ख़ुमार में थी. वहीं, पार्टी को अपना ज़ोर महाराष्ट्र, हरियाणा और झारखंड में दिल्ली के पहले हुए विधानसभा में भी लगाना पड़ा. इन सबके बीच आप ने हारने के बाद से अपना कैंपेन प्रत्यक्ष-अप्रत्क्ष रूप से जारी रखा.

इसके लिए पार्टी ने लगभग रोज़ाना प्रेस कॉन्फ्रेंस करके माहौल बनाए रखा. किसी दिन फ्री के चीज़ों की घोषणा होती, तो किसी दिन पार्टी में भाजपा-कांग्रेस वालों को शामिल किया जाता तो किसी दिन कुछ और. ऐसा करके पार्टी ने अपनी छाप लोगों में बरकरार रखी.

वहीं, भाजपा ने भी चुनाव के दौरान या यूं कहें कि अंतिम के 15 दिन कैंपेन में कोई कसर बाकी नहीं रखी. लेकिन आम आदमी पार्टी ने 2013 के चुनाव से एक चीज़ साफ़ कर दी है कि इनके साथ लड़ना है तो लंबी लड़ाई लड़नी होगी. पिछले दो विधानसभा चुनाव में भी पार्टी ने चुनाव के घोषणा से काफ़ी पहले से ही अपना चुनावी अभियान जारी रखा और उनकी इस मेहनत का फल हर बार आए नतीजों में भी नज़र आया.

इन्हीं वजहों से चाहे कैंडिडेट्स की लिस्ट जारी करनी हो या मेनिफेस्टो जारी करने के अलावा का बाकी गतिविधियां, भाजपा से आप काफ़ी आगे रही. अचरज की बात ये है कि पिछले दो चुनावों से दिल्ली में सिमटती चली गई कांग्रेस ने कोई सबक लेने के बजाए इस चुनाव में सरेंडर करने का फ़ैसला किया और इसी वजह से आप की जीत और भाजपा की हार के कारणों में कांग्रेस कोई कारक नहीं रही.

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