भोपाल और यहां हुई दुनिया की सर्वाधिक भयावह औद्योगिक आपदा के हज़ारों पीड़ितों ने 35 वर्षों तक न्याय का इंतजार किया है, अक्सर अधिक उम्मीद के बिना. ऐसा दोबारा नहीं हो ये सुनिश्चित करने के लिए भारत के सुप्रीम कोर्ट के पास एक बेहतरीन मौका है. ये भारतीय नागरिकों के साथ न सिर्फ अमेरिकी कंपनी यूनियन कार्बाइड द्वारा बल्कि खुद की निर्वाचित सरकार द्वारा भी किए गए अन्याय को ठीक करने का मौका है.
भोपाल के लोगों के स्वास्थ्य पर गैस लीक के असर को और पीड़ितों की संख्या को कम करके दिखाने के लिए दोनों में सांठ-गांठ थी. भारी जन दबाव के कारण भारत सरकार द्वारा दायर क्यूरेटिव याचिका संख्या 345-347 अब करीब एक दशक बाद सुनवाई के लिए सुप्रीम कोर्ट की संवैधानिक खंडपीठ के समक्ष है. जजों को न सिर्फ गैस दुर्घटना में हुई मौतों की संख्या– सरकार द्वारा दर्ज संख्या से चार गुना अधिक के रिकॉर्ड को ठीक करना चाहिए बल्कि मुआवज़े के संदर्भ में पीड़ितों को हुए नुकसान को ‘मामूली या अस्थाई’ श्रेणी का बताए जाने के अन्याय को भी दूर करना चाहिए.
सबसे पहला काम
सुप्रीम कोर्ट की खंडपीठ को ये सुनिश्चित करना चहिए कि कानून के समक्ष उन लोगों की आवाज़ों को भी बराबर का महत्व मिले जो अब तक खामोश और उपेक्षित कर दिए गए थे.
यूनियन कार्बाइड और डाउ केमिकल के वकीलों ने पीड़ितों की दलीलों को रिकॉर्ड से हटाने के प्रयास किए हैं और मामले में उनकी उपस्थिति तक पर सवाल खड़ा किया है. खंडपीठ का पहला काम ये तय करने का होगा कि क्या दुर्घटना के उत्तरजीवियों की आवाज़ की, एक बार फिर, अनसुनी की जाए.
रिकॉर्ड को सही करना
1989 में केंद्र सरकार ने यूनियन कार्बाइड के साथ मिलीभगत की थी और कोर्ट ने एक भी पीड़ित से मशविरा किए बिना समझौता होने दिया था. इस दुर्भाग्यपूर्ण समझौते को सही ठहराने के लिए गैस त्रासदी में मरने वालों की संख्या मात्र 3,000 और स्थाई रूप से पीड़ित लोगों की संख्या 30,000 दर्ज की गई थी. हालांकि, भोपाल के एक सीनियर पैथोलोजिस्ट ने दुर्घटना के मात्र पहले दो हफ्तों के भीतर ही 10,000 मृत्यु प्रमाण-पत्रों पर हस्ताक्षर किए थे.
मिलीभगत के जरिए किए गए विश्वासघात को सही ठहराने के उद्देश्य से जो झूठे आंकड़े दर्ज किए गए थे. उनमें से एक है अस्थाई या मामूली नुकसान झेलने वालों की संख्या और इस आंकड़े को 70,000 बताया गया था. जब दावा करने की यातनापूर्ण प्रक्रिया पूरी हुई तो 5,74,376 सफल दावेदारों में से 93 प्रतिशत को ‘मामूली या अस्थाई’ नुकसान वाली श्रेणी में डालकर प्रत्येक को मात्र 494 डॉलर का अफसोसनाक मुआवज़ा दिया गया.
पीड़ितों के संगठनों ने इस बात के दस्तावेज़ी सबूत पेश किए थे कि मामूली/अस्थाई नुकसान की श्रेणी यूनियन कार्बाइड के उप प्रमुख रॉल्फ टोवे द्वारा गोपनीय समझौता वार्ताओं के दौरान पेश योजना में शामिल थी और ये सब कंपनी की बहुमत हिस्सेदारी वाली फैक्ट्री द्वारा भोपाल को गैस चैम्बर में तब्दील किए जाने के कुछ ही हफ्ते के भीतर हुआ था. भारतीय वार्ताकारों को मालूम नहीं था कि इस प्रस्ताव के 10 साल पहले कार्बाइड की आंतरिक सुरक्षा रिपोर्ट में निष्कर्ष निकाला गया था कि मिथाइल आइसोसाइनेट (मिक) गैस के संपर्क में आने वाले को ‘त्वरित उपचार के बावजूद अवशिष्ट संबंधी स्थाई नुकसान’ होने की संभावना रहेगी.
अन्यायपूर्ण श्रेणी
लगभग चार दशक बाद भी पुनर्वास अस्तपतालों में लगी लंबी लाइनों से इस आकलन की असलियत दिन-प्रतिदिन लगातार साबित हो रही है. करीब पांच लाख लोगों का अकेले 2002 में पुरानी और लगातार बनी रहने वाली बीमारियों के लिए इलाज किया गया था. फिर भी सरकार की याचिका में 4,66,393 अतिरिक्त पीड़ितों के लिए 62.9 करोड़ डॉलर से 1.2 अरब डॉलर के बीच मुआवजे की मांग की गई है, पर इनमें से प्रत्येक को ‘मामूली या अस्थाई’ नुकसान वाली श्रेणियों में रखा गया है.
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स्थाई नुकसान की वास्तविकता के सबूत सिर्फ पीड़ितों के संगठनों ने ही पेश किए हैं. उन्होंने भारत के शीर्ष चिकित्सा अनुसंधान संगठनों और आधिकारिक रिकॉर्डों का उल्लेख करते हुए 2010 तक हुई मौतों की संख्या कम से कम 22,917 – सरकार के दावे के मुकाबले चार गुना दर्ज किए जाने का आग्रह किया है.
पीड़ितों की कहानी
भोपाल के पांच लाख गैस पीड़ितों की व्यथा का वर्णन शुरू करने के लिए होमर के ओडिसी के स्तर के एक सौ महाकाव्यों की ज़रूरत पड़ेगी. कैलाश पवार की ही कहानी को लें, जिनकी मां ने उस रात उन्हें बचाते हुए दम तोड़ दिया था. पस्त फेफड़ों वाले पवार कोई काम करने की स्थिति में नहीं थे और परिवार पर बोझ बने हुए थे. उनकी उम्मीद लगातार बंधती-टूटती रही, उनके परिवार को जायज मुआवजा भी नहीं मिला और 1989 में मिलीभगत वाला समझौता होने के कुछ ही सप्ताह के भीतर उन्होंने खुद को आग लगा ली.
या फिर सुनील कुमार की कहानी को लें. त्रासदी की रात उन्हें अनाथ बना कर गई. उनकी नींद लाशों के ढेर के बीच खुली जिन्हें नर्मदा में फेंका जाने वाला था. सुनील को एक पीड़ित के रूप में न्यूयॉर्क की अदालत में पेश किया गया था और उन्होंने बच्चों को न्याय दिलाने के अभियान की अगुआई की थी, पर गैस त्रासदी के 22 वर्षों के बाद आखिरकार उनकी हिम्मत टूट गई और वह फंदे से झूल गए. मरते वक्त उन्होंने जो टीशर्ट पहन रखी थी उस पर लिखा था ‘नो मोर भोपाल’. या आप जेपी नगर की हाज़रा बी की कहानी सुनें. उनके मोहल्ले में गैस का स्तर सामान्य सुरक्षित स्तर से 15,000 गुना अधिक था, और इसलिए हर परिवार में लोग हताहत हुए थे और फिर भी वहां 91 प्रतिशत मामले मामूली नुकसान की श्रेणी में दर्ज किए गए हैं. हाज़रा बी की जिंदगी गैस पीड़ित बेटों की सेवा में गुजरी. प्रधानमंत्री को अपनी व्यथा सुनाने वह दो बार दिल्ली चलकर गई थीं. वह गरीबी में जीयीं और उसी अवस्था में उन्होंने कुछ हफ्ते पहले दुनिया से कूच किया. इस तरह भोपाल गैस त्रासदी के अनजान पीड़ितों में एक और नाम जुड़ गया.
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मंगलवार से शुरू अदालती कार्यवाही के हर पहलू पर इन ज़िंदगियों और इनके जैसे दसियों हज़ार और पीड़ितों का प्रभाव होना चाहिए.
सुप्रीम कोर्ट शायद भारी-भरकम खर्चे पर जुटाए गए वकीलों के कद और कौशल के प्रभाव में पहले भी दी जा चुकी दलीलों को मान ले या जजों को शायद अमेरिकी कंपनी और भारतीय सरकार द्वारा छले गए और धोखा खाए लोगों की फिक्र हो. कोर्ट शायद कानून की भावना पर गहराई से विचार करे और स्वतंत्र भारत के या आधुनिक शांति कालीन इतिहास के सर्वाधिक भयावह अन्यायों में से इस एक को ठीक कर दे. ऐसा करते हुए, अदालत अपनी गरिमा को एक हद तक खो चुके हज़ारों लोगों के भीतर न्याय का भाव जगा सकेगी.
(लेखिका भोपाल ग्रुप फॉर इन्फॉर्मेशन एंड एक्शन से जुड़ी कार्यकर्ता हैं. उनका संगठन भोपाल के गैस पीड़ितों के बीच 1986 से ही काम कर रहा है.)
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