प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी इन दिनों विपक्ष पर यह आरोप लगाते नहीं थक रहे कि वह संशोधित नागरिकता कानून व राष्ट्रीय नागरिक रजिस्टर को लेकर जानबूझकर ओछी राजनीति पर उतर आया है और भ्रम फैला रहा है. लेकिन इन्हें लेकर ‘खुद मिया फंजीहत, दीगरां नसीहत’ की तर्ज पर वे खुद कैसी राजनीति कर रहे हैं, इसकी एक मिसाल उनकी रविवार की दो दिवसीय पश्चिम बंगाल यात्रा के दौरान सामने आई, जब हावड़ा जिले के बेलूरमठ स्थित रामकृष्ण मिशन के मुख्यालय में संशोधित नागरिकता कानून को लेकर उनकी टिप्पणियों ने ऐसी अप्रिय स्थिति पैदा कर दी कि मिशन को उनके जाते ही उनसे खुद को अलग कर लेना पड़ा. यह कहकर कि वह एक अराजनीतिक संस्था है, उसके परिसर में सभी धर्मों के लोग भाइयों की तरह रहते हैं और उसमें ‘राजनीतिक टिप्पणियों’ के लिए कोई स्थान नहीं है. मिशन के कई सदस्यों ने अलग से यह कहकर भी नाराजगी जताई कि प्रधानमंत्री द्वारा मिशन के मंच से विवादास्पद राजनीतिक संदेश दिया जाना बहुत दुःखद है.
प्रसंगवश, प्रधानमंत्री ने मठ में विवेकानन्द जयंती के अवसर पर आयोजित युवा दिवस समारोह में संशोधित नागरिकता कानून को लेकर अपना यह स्टैंड दोहराया था कि उनकी सरकार उसमें किया गया संशोधन वापस नहीं लेने वाली क्योंकि उसने उसे रातोरात नहीं किया और जो किया, वह किसी की नागरिकता लेने नहीं बल्कि देने के लिए है. उन्होंने विपक्ष पर इस बाबत जानबूझकर कुछ भी समझने को तैयार न होने, भ्रम फैलाने और युवकों को गुमराह करने के आरोप लगाये तो अपने कदम को महात्मा गांधी और बाबासाहब अंबेडकर से भी जोड़ा.
सच पूछिये तो इस सबमें कोई भी बात नई नहीं थी. न सिर्फ प्रधानमंत्री बल्कि गृहमंत्री अमित शाह भी कई बार इस तरह की बातें कह चुके हैं. इसलिए प्रधानमंत्री राष्ट्रीय युवा दिवस के अराजनीतिक मंच को बख्श देते तो भी ऐसा नहीं था कि उनका कोई संदेश युवाओं या देशवासियों तक जाने से रह जाता.
यह शालीनता बरतते तो उन्हें इसका लाभ भी मिलता. कम से कम इस मायने में कि उनकी सरकार पर लगाया जा रहा यह आरोप कमजोर पड़ने लगता कि इस मामले में वह बुरी तरह फंस गई है और फसंत ने बाहर न निकल पाने का डर उसे पहले से ज्यादा अलोकतांत्रिक बनाये दे रहा है. लेकिन उन्होंने शालीन होना गवारा नहीं किया तो इस बात को लेकर दुःखी ही हुआ जा सकता है कि उन्होंने खुद को बरबस गृहमंत्री अमित शाह की पांत में ला खड़ा किया, जो उन्हीं की मानें तो पूरे देश का राष्ट्रीय नागरिक रजिस्टर बनाने को लेकर ‘झूठ, झूठ और झूठ’ बोलते आ रहे हैं और अब यह कहने से भी नहीं चूक रहे कि विपक्ष जो भी चाहे कर ले, संशोधित नागरिकता कानून पर एक इंच भी पीछे नहीं हटने वाले.
प्रधानमंत्री ने पकड़ी गृहमंत्री की राह
आसानी से विश्वास नहीं होता कि ये वही प्रधानमंत्री हैं, जिन्होंने राजधानी के रामलीला मैदान में अपनी पार्टी की रैली में गृहमंत्री की आक्रामकता को यथासंभव काबू करने की कोशिश की थी. सवाल है कि ऐसे में वे विपक्ष द्वारा ‘गुमराह’ किये जा रहे युवकों को यह समझने से कैसे रोकेंगे कि अंततः गृहमंत्री ने प्रधानमंत्री की नहीं प्रधानमंत्री ने ही गृहमंत्री की राह पकड़ ली है. करें भी क्या, विपक्ष को कुछ भी कर लेने की धमकी देने वाले गृहमंत्री अकेले नहीं हैं. उनकी पार्टी से आया देश के सबसे बड़े राज्य का मुख्यमंत्री इस कानून के विरुद्ध आन्दोलित नागरिकों को रौद्र रूप दिखाकर उनसे भरपूर बदला ले रहा है तो पश्चिम बंगाल इकाई का अध्यक्ष कह रहा है कि उसकी उत्तर प्रदेश व असम की सरकारों ने विरोधी प्रदर्शनकारियों को कुत्तों की तरह मारा.
अब यह आपकी समस्या है कि आपके मन में सवाल उठने लगे कि यह कैसा लोकतंत्र है, जिसमें विपक्ष की सर्वथा अवांछनीय अनसुनी का एलान किया जा रहा है और उसे लेकर मूंछें ऐंठी जा रही हैं? समझ सकते हैं तो समझ लीजिए वरना प्रधानमंत्री तो आपको यह बताने से रहे कि जैसे उन्हें अपनी राजनीति, राजनीति नहीं लगती, अपनों की अलोकतांत्रिकता भी अलोकतांत्रिक नहीं लगती.
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बहरहाल, प्रधानमंत्री की राजनीति की बात करें तो तय कार्यक्रम के तहत उनको पश्चिम बंगाल से पहले असम जाना था, लेकिन वहां के लोग प्रधानमंत्री के हालिया फैसलों के खिलाफ सड़कों पर हैं और प्रधानमंत्री को विरोधी आवाजें सुनने की आदत नहीं है. विरोध तो खैर उनका पश्चिम बंगाल में भी कुछ कम नहीं है. उनकी राज्य की यात्रा के पहले ट्विटर पर ‘गो बैक मोदी फ्राम बंगाल’ जैसे हैशटैग ट्रेंड कर रहे थे और वामपंथी दलों व कांग्रेस के साथ सत्तारूढ़ तृणमूल कांग्रेस भी उनका विरोध ही कर रही थी. लेकिन चूंकि वहां उनकी पार्टी को बड़ा दांव खेलना है, इसलिए उन्होंने थोड़ा जोखिम उठाया. पूरे दो दिन वहां बिताए और भरपूर राजनीति की. कोलकाता पोर्ट की 150वीं वर्षगांठ के समारोह में शामिल हुए तो उसका नाम डॉ. श्यामाप्रसाद मुखर्जी पोर्ट करने, तदोपरांत विक्टोरिया मेमोरियल हॉल में एक गैलरी खुदीराम बोस, रासबिहारी बोस, विनय बादल और दिनेश, ऋषि अरविंद और नेताजी सुभाषचंद्र बोस के लिए आरक्षित करने की घोषणा कर दी.
कोलकाता में 1833 में स्थापित एवं फिर से विकसित की गई करेंसी बिल्डिंग के उद्घाटन कार्यक्रम में भी राजनीति करने से नहीं ही बाज आये. अपने पितृसंगठन का दृष्टिकोण आगे करते हुए उन्होंने कहा कि गुलामी के दौर में ही नहीं, आजादी के बाद भी देश के इतिहास लेखन में कई महत्वपूर्ण पहलुओं की अनदेखी की गई. रवींद्रनाथ ठाकुर के हवाले से उन्होंने यह ‘ज्ञान’ भी दिया कि कुछ लोग बाहर से आये, उन्होंने सिंहासन की खातिर अपने ही रिश्तेदारों, भाइयों को मार डाला…!
रात बिताने बेलूर मठ पहुंचे तो उसे ‘घर आने जैसा’ और तीर्थस्थान बता दिया. बस इतना भर कहना बाकी रखा कि जैसे उनके और स्वामी विवेकानंद के नामों में समानता है, वैसे ही उनके व्यक्तित्वों में भी है. महाराष्ट्र में तो खैर उनके भक्त उन्हें शिवाजी बता देने से भी परहेज नहीं कर रहे. पश्चिम बंगाल में उनकी और मुख्यमंत्री ममता बनर्जी की शिष्टाचार भेंट को लेकर भी उन्होंने सियासी गलियारों में हलचल मचाई. वह तो ममता बनर्जी ने यह कहकर कि उन्होंने प्रधानमंत्री से संशोधित नागरिकता कानून, राष्ट्रीय नागरिक रजिस्टर व राष्ट्रीय जनसंख्या रजिस्टर जैसे फैसलों पर फिर से विचार करने की अपील की है, किसी तरह की मैच फिक्सिंग से साफ इनकार कर दिया. स्वाभाविक ही था कि प्रधानमंत्री उनकी अपील स्वीकार न करते. ममता भी उनके दूसरे दिन के कार्यक्रम में नहीं ही आईं.
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लेकिन उनके समर्थकों ने प्रधानमंत्री को ऐसे सवालों के सामने करने की भरपूर कोशिश भी की कि जिस तरह वे पश्चिम बंगाल पहुंचे, असम क्यों नहीं गये? क्या विरोध करने वालों के बीच जाकर अपनी बात कहने की उनकी हिम्मत नहीं होती और इसीलिए पश्चिम बंगाल में भी ‘अपने’ लोगों से ही मिले? ममता की ओर यह सवाल भी उछाला गया कि क्यों प्रधानमंत्री ने अपने भाषण में पाकिस्तान के अल्पसंख्यकों का ही जिक्र किया, बंगलादेश व अफगानिस्तान का नाम क्यों नहीं लिया, जबकि दावा करते हैं कि नागरिकता कानून में संशोधन इन तीनों देशों के अल्पसंख्यकों के लिए किया है.
बहरहाल, प्रधानमंत्री की राजनीति के आईने में देखें तो, सिंहासन की खातिर भाइयों को मारने की घटनाएं इतिहास का सच हैं, तो आज भी सत्ता की खातिर फूट डालने का कुछ कम काम नहीं हो रहा. फिर भी ईश्वरचंद्र विद्यासागर, राजा राममोहन राय, केशवसेन और शरतचंद्र का जिक्र करते हुए उन्हें यह कहते देखना संतोषप्रद था कि इस हिंसक समय में, राष्ट्र की अंतरात्मा को जगाना जरूरी है. यहां एक प्रेक्षक की बात याद आती है कि प्रधानमंत्री इतना और समझ जाते कि राष्ट्र की यह अंतरात्मा अब उसके संविधान में बसती है, तो सारी बिगड़ी हुई बातें बन जातीं, क्योंकि देशवासियों का यह विश्वास अभी भी अखंड है कि संविधान की मूल भावना बची रहेगी तो उसकी संस्कृति, इतिहास और दर्शन सब बच जाएंगे.
(लेखक जनमोर्चा अख़बार के स्थानीय संपादक हैं, इस लेख में उनके विचार निजी हैं)