शुरू में एक लफ्ज़ था, और वह लफ्ज़ लोगों के पास था. वह लफ्ज था— आज़ादी.
यह बहुत पुरानी बात है— वैसे, 5000 साल पुरानी सभ्यता के लिए 70 साल कोई लंबा समय नहीं होता—जब ग़ुलामी की जंजीरों में जकड़ी भारतमाता के लिए ‘आज़ादी’ एक युद्धघोष था.
आज यह लफ्ज़ भारतमाता के बच्चों के लिए हताश पुकार बन गई है. चाहे कन्हैया कुमार हों या कमला भसीन या महक मिर्ज़ा प्रभु, नरेंद्र मोदी और अमित शाह के दौर में आज़ादी सबके लिए सत्ता को चुनौती देने वाला नारा बन गया है. वे भले ही यह कह रहे हैं कि उन्हें आज़ादी चाहिए हिंदुत्ववाद से, जातिवाद से, पूंजीवाद से लेकिन भाजपा समर्थकों को यह ‘जिन्ना वाली आज़ादी’ के देशद्रोही नारे के रूप में सुनाई देता है. भाजपा का आइटी सेल उमर खालिद के नारे के साथ इसका घालमेल करके उसे ‘हिंदुओं से आज़ादी’ के नारे में तब्दील कर रहा है.
लेकिन भारत के लोग आज जो आज़ादी चाह रहे हैं वह एकदम अलग है—
जातिवाद से आज़ादी
मनुवाद से आज़ादी
सामंतवाद से आज़ादी
पूंजीवाद से आज़ादी
भेदभाव से आज़ादी
नफ़रत–हिंसा से आज़ादी
पितृसत्ता से आज़ादी
आज़ादी एक मौलिक अधिकार है
लेकिन आज आज़ादी की मांग को देशद्रोह माना जा रहा है. और मोदी सरकार इसे ‘अर्बन नक्सलों’ और ‘टुकड़े टुकड़े गैंग’ के युद्धघोष के रूप में देखती है. उसका मानना है कि न्यू इंडिया में यह लफ्ज़ सुना नहीं जाना चाहिए.
इसलिए दिल्ली पुलिस उस छात्र के खिलाफ कार्रवाई करने जा रही है, जो ‘सेंट स्टीफ़ेन्स कॉलेज में ‘फ्री कश्मीर’ का पोस्टर लेकर प्रदर्शन कर रहा था. मुंबई पुलिस ने इसी तरह का पोस्टर दिखाने वाली महक मिर्ज़ा प्रभु के खिलाफ एफआइआर दर्ज़ कर दिया है.
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लेकिन, जेएनयू में हमला करने वाले नकाबपोश गुंडों में से किसी को पुलिस अब तक नहीं पकड़ पाई है.
भेजे में थोड़ी भी अक्ल रखने वाला समझ सकता है कि लोग भारत से आज़ादी नहीं चाहते, भारत में आज़ादी चाहते हैं. आज भारत में फर्जी खबर और सच्चाई में, जिसे प्रायः चुप करा दिया जाता है, जंग चल रही है. लोग चुप कराए जाने से आज़ादी चाहते हैं. भारत के संविधान ने आज़ादी के अधिकार को मौलिक अधिकार घोषित किया है. इसमें अभिव्यक्ति की आज़ादी के साथ-साथ शांतिपूर्ण सभा करने की आज़ादी भी शामिल है. नागरिकता (संशोधन) कानून (सीएए) और राष्ट्रीय नागरिक रजिस्टर (एनआरसी) का विरोध करने के लिए लोग इसी अधिकार का इस्तेमाल कर रहे हैं.
जिस जोश के साथ यह विरोध हो रहा है उसने पूरे देश और मोदी सरकार को हैरत में डाल दिया है. खासकर इसलिए भी कि आज़ादी की मांग आज पूरे भारत में गूंज रही है. कई लोगों का मानना है कि देश मजहबी तानाशाही की ओर बढ़ रहा है, जिसमें भारत के मूल तत्व— धर्मनिरपेक्षता— को दरकिनार किया जा रहा है. यह सब धर्म के नाम पर हो रहा है. इसलिए आज़ादी स्वतःस्फूर्त मांग बन गई है.
आज़ादी ही तो भारत की नींव का पत्थर है
भारत के लोग ब्रिटिश राज के समय से आज़ादी की मांग कर रहे हैं. अंग्रेजों ने भारत को अपना उपनिवेश बना लिया था और वे दो तरह से इसका शोषण कर रहे थे— एक तो आर्थिक मोर्चे पर, दूसरे इसकी आवाज़ पर ताला लगाकर और यहां के लोगों को अपने ही देश में दूसरे दर्जे का नागरिक बनाकर. उस समय के राष्ट्रवादियों ने देश की आज़ादी के लिए अपनी जान तक कुरबान की. लेकिन आज के राष्ट्रवादी इस लफ्ज़ को सुनना तक नहीं पसंद करते. बाद में यह लफ्ज़ केवल कश्मीर में सुना जाने लगा इसलिए इसे अलगाववादियों की मांग कहा जाने लगा, जो कश्मीर को भारत की हिस्सा मानने को राजी नहीं थे.
लेकिन, 2016 में कन्हैया कुमार नाम के एक युवा ने इस लफ्ज़ का इस्तेमाल जेएनयू में किया और फिर मानो कयामत टूट पड़ी. उनके ऊपर आज़ादी के और भारत विरोधी नारे लगाने के लिए देशद्रोह का मामला ठोक दिया गया. जमानत पर रिहा होने के बाद कन्हैया ने साफ किया कि वे भारत से नहीं, भारत में आज़ादी की मांग कर रहे हैं. यह नारा चल पड़ा. लोगों को समझ में आ गया कि भारत के लिए आज आज़ादी का क्या मतलब है. यह एक पंथ जैसा ही बन गया.
रणवीर सिंह और आलिया भट्ट की फिल्म ‘गली ब्वॉय’ में एक रैप सॉन्ग आज़ादी पर ही है. लोगों को अंततः समझ में आ गया है कि आज़ादी की यह मांग कश्मीर वाली आज़ादी की मांग नहीं है. कांग्रेस ने तो 2019 के चुनाव अभियान के लिए इसी पर गाने का एक वीडियो चलाया था.
सीएए-एनआरसी विरोधी मुहिम ने आज़ादी लफ्ज को एक नया अर्थ दे दिया है.
एक नई आज़ादी
भारत के लोग आज जिस आज़ादी की मांग कर रहे हैं वह कुछ-कुछ वैसी ही मांग है जो देश की आज़ादी से पहले की जा रही थी. फर्क सिर्फ यह है कि आज मुक़ाबला विदेशियों से नहीं है, एक विचारधारा से है.
मुसलमानों को एहसास दिलाया जा रहा है कि वे समाज में निचले तबके के हैं, और अल्पसंख्यकों को हाशिये पर धकेला जा रहा है. दलितों, महिलाओं, समलैंगिकों और गरीबों को सदियों से सताया जाता रहा है. लेकिन नरेंद्र मोदी और अमित शाह देश को हिंदू राष्ट्र बनाने पर आमादा हैं. यही वजह है कि देश की सीमा के अंदर ही आज़ादी की मांग की जा रही है क्योंकि नस्ल और धर्म की पुरानी, कट्टरपंथी, अप्रासंगिक अवधारणाओं को नागरिकता का आधार बनाया जा रहा है.
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लोग ऐसा भारत चाहते हैं जहां वे भेदभाव और प्रताड़ना से मुक्त होकर जी सकें. कोई नहीं चाहता कि उससे यह पूछा जाए कि वह क्या खाता है, गोमांस या सुअर का मांस या पनीर? कोई नहीं चाहता कि उससे यह कहा जाए कि वह क्या पहने, कि उसके पहरावे के कारण उससे भेदभाव किया जाए. कोई नहीं चाहता कि उसे किसी मंदिर-मस्जिद में जाने के लिए कहा जाए या जाने से रोका जाए. कोई नहीं चाहता कि उसकी जाति या उसके लिंग के कारण उसका रोजगार छीना जाए. हम ऐसा ही न्यू इंडिया चाहते हैं.
भारत आज़ादी की नींव पर ही बना, इसके बिना इसका वजूद नहीं हो सकता. इसलिए हम निडर होकर इसकी मांग करें.
(लेखिका एक राजनीतिक प्रेक्षक हैं. व्यक्त विचार उनके निजी हैं.)
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