1960 वाले दशक में गुन्नार मिर्डाल जब अपना तीन खंडों वाला ग्रंथ ‘एशियन ड्रामा’ लिख रहे थे तब किसी ने कल्पना भी नहीं की होगी कि विनाशकारी तूफान के कारण तबाह हो चुका और फिर आज़ादी की लड़ाई में जूझने वाला बांग्लादेश 50 साल बाद आर्थिक क्षेत्र में जोरदार प्रदर्शन का करिश्मा कर दिखाएगा.
जिस देश को हेनरी किसिगर ने अंतरराष्ट्रीय कूड़ेदान के हवाले करने का फतवा जारी कर दिया था उसने मानव विकास और आर्थिक वृद्धि दरों से संबंधित संकेतकों के मामले में अपने पड़ोसी देशों को पछाड़ दिया है. इसकी प्रति व्यक्ति सालाना आय 1,905 डॉलर है, जो पाकिस्तान के इस आंकड़े 1,388 डॉलर से ज्यादा और भारत के 2,171 डॉलर के आंकड़े से ज्यादा नीचे नहीं है.
मिर्डाल की 2300 पृष्ठ की इस किताब को एक महान ग्रंथ माना जाता है लेकिन इसमें उन्होंने कुछ गलतियां भी की हैं और कई सही बातें भी की हैं. गलतियों का एक उदाहरण यह हो सकता है कि वे आबादी को एक बोझ मानते हैं, जबकि आज चीन और भारत में उनकी बड़ी आबादी के कारण एक बड़ा बाज़ार बना है. सही बातों का एक उदाहरण यह हो सकता है कि उन्होंने शुरुआती परिस्थितियों को असरकारक बताया है. और, ‘एशियन ड्रामा’ के कुछ अंश तो पत्रकारीय लेखन से थोड़े ही बेहतर लगते हैं. फिर भी, दीपक नैयर ने इस पुस्तक की 50वीं वर्षगांठ को एक मौका मानते हुए अपनी पुस्तक ‘रिसर्जेंट एशिया : डाइवर्सिटी इन डेवलपमेंट’ में एशिया पर दोबारा नज़र डाली है.
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नैयर की कहानी में बारीक फर्क है. इसमें इस क्षेत्र के देशों द्वारा अपनाए गए अलग-अलग रास्तों का जिक्र किया गया है, जो कि बंद बाज़ारों को खोलने में उपनिवेशवाद की भूमिका से प्रभावित हैं. शशि थरूर ने अपनी किताब ‘ऐन एरा ऑफ डार्कनेस’ में यह अंदाजा लगाने की कोशिश की है कि अगर भारत उपनिवेश न बना होता तो क्या वह इसके फलस्वरूप आए रेलवे और आधुनिक शासन व्यवस्था के बिना यहां तक पहुंचा होता (उनका मानना है कि जरूर पहुंचा होता). लेकिन यह भी सच है कि बाहरी प्रभाव के बिना इस क्षेत्र के कई देश भूमि सुधार न कर पाते. न ही ताइवान और दक्षिण कोरिया इतनी सहजता से निर्यात में उतरते; उन्होंने तो तब तक आयात को रोक कर अपने ही उत्पादों से काम चलाना जारी रखा जब तक कि उन्हें यह एहसास नहीं हो गया कि उनका अपना बाज़ार तो बहुत छोटा है.
‘एशियाई चमत्कार’ में तानाशाही शासकों का कितना हाथ है; और वे शासक आज के एरदोगन से, जिसकी देखरेख में तुर्की की अर्थव्यवस्था बदहाल हो गई है, कितने भिन्न थे? या वे पुतिन सरीखे तानाशाहों से कितने भिन्न थे, जो पुतिन का रूस तेल, सोना, कोयला, लकड़ी, और हथियार निर्यात करके अपना काम चला रहे हैं, जबकि ‘ब्रिक्स’ अर्थव्यवस्था वाला ब्राज़ील अभी भी अपनी मामूली वृद्धि दर के साथ चकमा दे रहा है? एशिया के पुराने नेता अपने नरेंद्र मोदी से इस समझदारी के मामले में कितने भिन्न थे कि अर्थव्यवस्था को ऊंचाई पर ले जाने के लिए क्या करना जरूरी है?
नैयर लोकतन्त्र बनाम तानाशाही वाली बहस में नहीं पड़ते और सिर्फ इतना कहते हैं कि लोकतन्त्र अपने आप में एक लक्ष्य है और इसमें नियंत्रण और संतुलन की गुंजाइश ज्यादा होती है. लेकिन वे यह भी कबूल करते हैं कि आर्थिक विकास के लिए राजनीतिक लोकतन्त्र न तो जरूरी है और न पर्याप्त है. वे सुझाव देते हैं कि वेब मार्का नौकरशाही का भी एशिया की अग्रणी अर्थव्यवस्थाओं की सफलता में उतना ही योगदान था. एशिया में साम्यवादी से लेकर पूंजीवादी तक अर्थव्यवस्थाएं मौजूद हैं और मिर्डाल कहते हैं कि भिन्न-भिन्न देशों में एक ही तरह के समाधान लागू करने के भिन्न-भिन्न नतीजे मिलते हैं. इन दोनों बातों के मद्देनजर भारत क्या ऐसी प्रशासनिक व्यवस्थाओं को आजमाने के लिए तैयार होगा, जिसके तहत ज्यादा विकेन्द्रीकरण जरूरी हो?
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क्या यह सदी एशिया की होगी? नैयर ऐसा नहीं मानते, शायद इसलिए कि इस क्षेत्र के दो-तीन देश ही ऊंची आय वाले वर्ग में पहुंच पाए हैं. लेकिन ब्रिक्स के चश्मे से देखें तो ऐसा लगता है कि सत्ता संतुलन में बदलाव हो कर रहेगा. माना जा रहा था कि 2025 तक पश्चिम के छह प्रमुख देशों की 50 फीसदी जीडीपी ब्रिक्स के चार देशों की बदौलत बनेगी. लेकिन वे इस आंकड़े को पहले ही पार कर चुके हैं, जबकि 2013 में उन्होंने 15 फीसदी से शुरुआत की थी. वजह यह है कि एशिया के दो दिग्गज देशों ने कितना अच्छा किया है, लेकिन उनकी आपसी तकरार उन्हें साझा लक्ष्य के लिए मिलकर काम करने से रोकेगी.
‘एशियन ड्रामा’ के लिखे जाने के बाद के 50 वर्षों में भारत कई बार मंज़िल से दूर रहा है. अगर हम एक-दो महारथियों के वर्चस्व से दबी हॉब्स वाली दुनिया से बचना चाहते हैं तो भारत को तय करना होगा कि वह नियम पालन करने वाला बनना चाहता है या नियम बनाने वाला (मसलन, क्षेत्रीय व्यापार के मामले में). और क्या हमारे पास चीन की रणनीतिक चुनौती का जवाब तैयार है? अगर नहीं है, तो हमारे विकल्प क्या हैं? इस सदी के तीसरे दशक के शुरू में एशिया के पिछले 50 वर्षों के इतिहास से इस तरह के जो सवाल उभर रहे हैं उनका जवाब जल्दी खोजना जरूरी हो गया है.
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