वाराणसी: 8 वर्षीय मोहम्मद सगीर 20 दिसंबर को जब अपने दोस्तों के साथ खेलने के लिए अपने घर से बाहर निकला, तो उसके परिवार को नहीं पता था कि यह आखिरी बार होगा जब वे उसे देखेंगे.
जब पुलिस ने वाराणसी के बजरडीहा में नागरिकता संशोधन कानून के खिलाफ आंदोलन कर रहे लोगों पर लाठीचार्ज करना शुरू किया तो भगदड़ मच गई, जिसमें सगीर की मौत हो गयी वह भीड़ में फंस गया. भीड़ पुलिस की लाठियों से बचने की कोशिश कर रही थी.
सगीर की दादी शहनाज अख्तर ने दिप्रिंट को बताया कि वह अपने साइकिल के साथ घर के बाहर खेल रहा था. वह कब मेन सड़क पर गया इसका हमें कोई अंदाजा नहीं था.
अख्तर ने कहा, ‘उस दिन शाम को लगभग 6 बजे, जब अख्तर सगीर को वापस घर बुलाने के लिए गई, तो उन्होंने महसूस किया कि वह आस-पास कहीं नहीं था. मैं घबरा गई.’
सगीर के पिता मोहम्मद वकील ने दिप्रिंट को बताया कि उन्हें इस घटना के बारे में तब पता चला जब वह रात 9.30 बजे काम से घर लौटे.
वकील ने कहा, ‘किसी ने मुझे जमीन पर पड़े मेरे बेटे की एक तस्वीर फ़ोन में दिखाई तब मैं (बनारस हिंदू विश्वविद्यालय) ट्रॉमा सेंटर पहुंचा जहां डॉक्टरों ने बताया कि सगीर की मौत हो चुकी है परिवार को सगीर की पोस्टमार्टम रिपोर्ट का इंतजार है.
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‘उन्हें पोस्टमार्टम रिपोर्ट की आवश्यकता क्यों है?’
वकील का कहना है कि जब उन्हें अपने बेटे का शव मिला तो प्रशासन ने हड़बड़ी में दफनाने की कोशिश की.
वाराणसी के जिला मजिस्ट्रेट (डीएम) कौशल राज सिंह ने आश्चर्य जताया कि उन्हें पोस्टमार्टम रिपोर्ट की जरूरत क्यों है.
सिंह ने दिप्रिंट को बताया, ‘उन्हें पोस्टमार्टम रिपोर्ट की आवश्यकता क्यों है? हमें यह जानकारी है कि वह भगदड़ में मर गया. इतने सारे चश्मदीदों ने देखा कि भगदड़ में उसकी मौत हुई है. फिर रिपोर्ट की आवश्यकता क्यों?’
डीएम ने यह भी बताया कि पोस्टमार्टम किया गया है लेकिन यह बताने से इनकार कर दिया कि रिपोर्ट अभी तक परिवार को क्यों नहीं दी गई थी. उन्होंने यह भी कहा कि शांति बनाए रखने के लिए दफनाने की कोशिश की गई थी.
सिंह ने कहा, शव को या तो उसी दिन या चार दिन बाद दफनाया जाना था. उसे दफ़न तो करना होगा. परिवार समझदारी दिखाते हुए क्षेत्र में सद्भाव बनाए रखने के लिए एक-दो घंटे में शरीर को दफनाने के लिए सहमत हुआ.
वकील, जो कि कई घरों में खाना पका कर जीविकोपार्जन करते हैं, सगीर की मृत्यु के कुछ दिनों बाद अपनी नौकरी पर वापस चले गए. उन्होंने कहा, मजदूर वर्ग के लोग शोक मनाने के लिए समय नहीं निकाल सकते हैं.
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