नई दिल्ली और कोलकाता: अक्सर लोग सवाल करते हैं कि क्या जादवपुर विश्वविद्यालय कोलकाता का जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय है. और ये सवाल बिना वजह नहीं है. दोनों ही विश्वविद्यालय वामपंथी और व्यवस्था विरोधी होने तथा विरोध प्रदर्शनों– कई बार हिंसक के लिए जाने जाते हैं.
इसलिए आश्चर्य नहीं कि ममता बनर्जी की तृणमूल कांग्रेस और भाजपा दोनों को जादवपुर विश्वविद्यालय (जेयू) के प्रतिरोध का सामना करना पड़ा है. लेकिन फिर भी दोनों इस पर नियंत्रण का प्रयास छोड़ नहीं पा रहे हैं.
हाल के दिनों में केंद्रीय मंत्री बाबुल सुप्रियो के साथ वहां हुई धक्का-मुक्की और पश्चिम बंगाल के राज्यपाल जगदीप धनखड़ को परिसर से बाहर रखे जाने की घटनाओं में जेयू का चरित्र उभर कर सामने आया.
जादवपुर विश्वविद्यालय की प्रोफेसर और पूर्व छात्रा सुचोरिता चटोपाध्याय के अनुसार आरंभ से ही जेयू में बहस और प्रगतिशील सोच को प्रोत्साहित करने की संस्कृति रही है.
इसमें राज्य में वाम मोर्चे के 34 साल के शासन की बड़ी भूमिका रही है, जिसने कि छात्र राजनीति, कैंपस यूनियन और अकादमिक पाठ्यक्रमों पर अपना प्रभाव छोड़ा है.
शायद इसी कारण जेयू कैंपस पर वामपंथी गढ़ होने का ठप्पा लग गया. इस विश्वविद्यालय के छात्रों को अक्सर ‘माओवादी’, और अब ‘शहरी नक्सली’ भी, करार दिया जाता है.
विश्वविद्यालय के पूर्व छात्रों में लेखक नील मुखर्जी, फिल्म निर्माता रितुपर्णो घोष, एसबीआई की पहली महिला प्रमुख अरुंधति भट्टाचार्य और प्रसिद्ध रसायनज्ञ समरेश भट्टाचार्य शामिल हैं.
जादवपुर विश्वविद्यालय शिक्षक संघ के प्रोफेसर पार्थ प्रतिम बिश्वास कहते हैं, ‘यह विश्वविद्यालय और यहां के छात्र अपनी बात कहने से कभी पीछे नहीं हटे हैं.‘
उन्होंने कहा, ‘जेयू हमेशा सरकार विरोधी प्रदर्शनों का केंद्र बना रहा. इसे विद्रोहियों और स्वतंत्रता सेनानियों ने स्थापित किया था. इसे सरकार, राजभवन (केंद्र) या विकास भवन (राज्य) द्वारा नियंत्रित नहीं किया जा सकता.’
उल्लेखनीय है कि जादवपुर विश्वविद्यालय स्थापित भी असंतोष के वजह से हीं की गई थी.
राष्ट्रवादी उद्यम
अगर मुगल साम्राज्य के पतन ने ब्रितानी शासकों को भारत पर अपना प्रभुत्व स्थापित करने में मदद की, तो शिक्षा वह साधन थी जिसने कि उनके इस प्रभुत्व को स्थायित्व प्रदान किया.
ब्रितानी साम्राज्य को ऐसे ‘लोगों का एक वर्ग चाहिए था जो खून और रंगरूप में तो भारतीय हों, पर उनकी प्रवृति अंग्रेजों वाली हो’ और जो कुशलता पूर्वक ब्रितानी शासन की मदद कर सकें. इसी उद्देश्य से 1857 में कलकत्ता, बॉम्बे और मद्रास विश्वविद्यालयों की स्थापना की गई थी.
पर भारतीय स्वतंत्रता संग्राम में इस ओर ध्यान नहीं दिया गया. जब विरोध प्रदर्शनों और स्वदेशी आंदोलन से जुड़ने के कारण छात्रों को पीटे जाने और तंग किए जाने की घटनाएं काफी बढ़ गईं, तब जाकर राष्ट्रवादियों को पश्चिम विचारों और शिक्षा का विकल्प उपलब्ध कराने के लिए विश्वविद्यालय स्थापित करने की जरूरत महसूस हुई.
संपन्न बंगालियों की मदद से 1910 में कोलकाता में राष्ट्रीय शिक्षा परिषद स्थापित की गई. आर्थिक मदद करने वालों में रवींद्रनाथ टैगोर और रासबिहारी घोष भी शामिल थे. अरविंदो घोष प्रथम प्रधानाचार्य बने.
यह संस्था 24 दिसंबर 1955 को औपचारिक रूप से जादवपुर विश्वविद्यालय के रूप में परिवर्तित हो गई.
इसका ध्येय वाक्य है: जानकारी पाने का मतलब आगे बढ़ना. पर इसके छह दशकों के इतिहास का एक काला अध्याय भी है.
गोपालचंद्र सेन की हत्या
गांधी जब 1930 के दशक में बंगाल का दौरा कर रहे थे तो एक युवक उनके भाषणों से बहुत प्रभावित हुआ. जल्दी ही उसे एक समस्या का अहसास हुआ– गांधी को सुनने को जमा हुए लोग उन्हें ठीक से सुन नहीं पा रहे थे. इसलिए उसने गांधी को एक स्वनिर्मित ‘पोर्टेबल स्पीकर’ भेंट किया– महात्मा को बहुत खुशी हुई. यह युवक गोपालचंद्र सेन थे, और उन्होंने अंत तक गांधीवादी जीवन जीया.
सेन 1960 के दशक में जादवपुर विश्वविद्यालय के कुलपति बने. ये बंगाल में भारी अशांति का दौर था, खास कर युवाओं के लिए जो कि नक्सल आंदोलन से जुड़ रहे थे. जल्दी ही जादवपुर विश्वविद्यालय राजनीति और आंदोलनों का अखाड़ा बन गया. नक्सल छात्रों ने सेन से परीक्षाएं रद्द करने को कहा. सेन सहमत नहीं हुए. उनका कहना था कि जिन्हें बहिष्कार करना है वो करें पर इच्छुक छात्रों के लिए परीक्षाओं का आयोजन नहीं करना गलत होगा. परीक्षाएं हुईं. छुट्टियां शुरू हो जाने पर सेन ने पास होने का सर्टिफिकेट अपने आवास पर वितरित करने की पेशकश की. इस बीच बंगाल में नक्सलों के खिलाफ पुलिस कार्रवाई में तेजी आ रही थी.
30 दिसंबर 1970 को सेन अपने आवास की तरफ बढ़ रहे थे. अगले ही दिन वह सेवानिवृत होने वाले थे. शाम के छह बजे का वक्त था और वह एक सहकर्मी की कार में बैठकर जाने के लिए राजी नहीं हुए थे.
कैंपस में ठीक पुस्तकालय के सामने सेन की हत्या कर दी गई. किसी को नहीं पता किसने की हत्या, पर इसके पीछे नक्सलियों का हाथ बताया गया. आज उस जगह पर स्थापित स्मारक इतिहास के उस काले अध्याय की याद दिलाता है.
होक कलरव
पूर्व कुलपति अभिजीत चक्रवर्ती ने 17 सितंबर 2014 की सुबह अपने कार्यालय भवन का घेराव कर रहे प्रदर्शनकारियों के खिलाफ पुलिस बुलाने की वजह के रूप में सेन हत्याकांड का ही उल्लेख किया था. तब पुलिस कार्रवाई में बहुत से छात्र घायल हो गए थे.
छात्र दरअसल कैंपस में यौन दुर्व्यवहार की एक घटना पर पर्याप्त कदम नहीं उठाने और निष्क्रियता दिखाने के लिए विश्वविद्यालय प्रशासन का विरोध कर रहे थे. कुछ ही दिनों में इसने देश के सबसे बड़े छात्र आंदोलनों में से एक का रूप ले लिया.
हज़ारों छात्रों ने चक्रवर्ती के इस्तीफे और यौन दुर्व्यवहार के आरोपी को सजा दिलाने की मांग को लेकर तत्कालीन गवर्नर केसरीनाथ त्रिपाठी के राजभवन स्थित आवास तक मार्च किया. आंदोलन को ‘होक कलरव’ या हल्ला बोल का नाम दिया गया. और सही में हल्ला मचा. इतना अधिक कि ममता बनर्जी को एक रात कैंपस आकर भूख हड़ताल पर बैठे छात्रों को मनाना पड़ा. तृणमूल सरकार के करीबी माने जाने वाले चक्रवर्ती ने इस्तीफा दे दिया– हालांकि उससे पहले उन्होंने स्वास्थ्य लाभ की कामना के साथ कुछ छात्रों द्वारा उन्हें सौंपे गए गुलाब के फूलों को लेकर तारीफ के पुल बांधे. उन्होंने टेलीग्राफ अखबार से कहा, ‘उन्होंने गुलाब के कांटों को सिलोफन पेपर से ढंक दिया था…इस तरह के विरोध को मैं बुरा नहीं मानता.’
भाजपा-तृणमूल की जंग
जादवपुर विश्वविद्यालय में 1956 से लेकर 2019 तक छात्रों और शिक्षकों के कई विरोध प्रदर्शन हुए हैं. कभी नंदीग्राम हिंसा के लिए वाम मोर्चा सरकार के खिलाफ, तो कभी शिक्षा संस्थानों में छात्र संघों के चुनाव नहीं कराने के तृणमूल सरकार के फैसले के खिलाफ. वर्तमान में जादवपुर विश्वविद्यालय भाजपा और तृणमूल के राजनीतिक संघर्ष का केंद्र बना हुआ है.
राज्य की राजनीति में वाम दलों का प्रभाव कम होने के साथ ही तृणमूल कांग्रेस के छात्र संगठन ऑल इंडिया तृणमूल कांग्रेस छात्र परिषद ने बंगाल के कॉलेजों और विश्वविद्यालयों में अपने पांव पसारने शुरू कर दिए थे. एक-एक कर विश्वविद्यालयों पर उनका कब्जा होता गया. पर जादवपुर विश्वविद्यालय में अभी तक उनकी पैठ नहीं बन पाई है जहां कला संकाय वामपंथी छात्र संगठन एसएफआई के नियंत्रण में है, जबकि विज्ञान एवं इंजीनियरिंग विभाग पर स्वतंत्र छात्र नेताओं का कब्जा है.
तृणमूल और भाजपा दोनों ही जेयू की कैंपस राजनीति में प्रभावी होने और विश्वविद्यालय के विभिन्न संकायों में अपने समर्थक शिक्षकों को नियुक्त कराने की कोशिश करती रही हैं. यहां की राजनीति में हावी होने का असर संपूर्ण दक्षिण कोलकाता और उपनगरीय इलाकों पर दिखता है. विश्वविद्यालय में छात्र, शिक्षक, प्रशासनिक कर्मचारी और गैर-शैक्षणिक कर्मचारी, सब यूनियनों में संगठित हैं.
जेयू की भौगोलिक स्थिति भी महत्वपूर्ण है. दक्षिण कोलकाता के बीचोंबीच विश्वविद्यालय का परिसर करीब 68 एकड़ के इलाके में फैला हुआ है. यहां होने वाला कोई भी बड़ा विरोध प्रदर्शन पूरे कोलकाता को ठप कर सकता है.
राजनीतिक रूप से जादवपुर विश्वविद्यालय दशकों से वामपंथी गढ़ रहा है. जादवपुर पूर्व मुख्यमंत्री बुद्धदेव भट्टाचार्य का विधानसभा क्षेत्र भी रहा है. यह वो निर्वाचन क्षेत्र भी है जहां से युवा ममता बनर्जी ने 1984 के लोकसभा चुनावों में सोमनाथ चटर्जी को हराया था. बाद में माकपा नेता और जेयू प्रोफेसर मालिनी भट्टाचार्य के हाथों यहीं ममता को हार का स्वाद भी चखना पड़ा था. वर्तमान में तृणमूल कांग्रेस नेता और अभिनेत्री मिमी चक्रवर्ती लोकसभा में इस निर्वाचन क्षेत्र का प्रतिनिधित्व करती हैं.
एक वरिष्ठ प्रोफेसर ने अपना नाम प्रकाशित नहीं किए जाने की शर्त पर कहा कि तृणमूल कांग्रेस ने जादवपुर विश्वविद्यालय में अच्छी पकड़ बना ली है. उन्होंने कहा, ‘बाहर से भले ही नहीं दिखे पर तृणमूल यहां बहुत सक्रिय है. गैर-शैक्षणिक संगठनों पर उसका खासा प्रभाव है.’
तृणमूल कांग्रेस के एक वरिष्ठ नेता ने इस बारे में कहा, ‘पहले, जेयू में हमारे लिए कोई जगह नहीं थी. राज्य के अन्य विश्वविद्यालयों में पार्टी की छात्र शाखा की इकाइयां स्थापित हो जाने के बावजूद जेयू में पैठ बनाना मुश्किल था. अब जल्दी ही विश्वविद्यालय में हम अपनी इकाई स्थापित करेंगे.’
जादवपुर विश्वविद्यालय के राजनीतिक और वैचारिक महत्व की बात भाजपा नेता भी स्वीकार करते हैं.
जेयू के पूर्व शिक्षक और भाजपा के वरिष्ठ नेता मोहित राय कहते हैं, ‘हमें छात्रों के मौजूदा विरोध प्रदर्शनों की चिंता नहीं है. जादवपुर हमेशा ही वामपंथी विचारधारा की गिरफ्त में रहा है.’
उन्होंने आगे कहा, ‘छात्र अपनी राय जाहिर कर रहे हैं. इनमें से अधिकांश मानविकी संकायों से हैं, दूसरे केंद्रों से बहुत कम. इन विरोध प्रदर्शनों को सत्तारूढ़ तृणमूल कांग्रेस से संबद्ध गैर-शैक्षणिक कर्मचारियों का समर्थन प्राप्त है. वे ऐसे प्रदर्शनों का खर्च उठाते हैं.’
विश्वविद्यालय के अंतरराष्ट्रीय संबंध संकाय के वरिष्ठ शिक्षक प्रोफेसर ओमप्रकाश मिश्रा ने दिप्रिंट को बताया कि जेयू हमेशा ही सरकार विरोधी प्रदर्शनों और आंदोलनों– जिन्हें अक्सर उचित और राष्ट्रीय भावना के अनुरूप माना जाता है का केंद्र रहा है.
उन्होंने कहा, ‘इस विश्वविद्यालय की परंपरा छात्रों में राजनीतिक चेतना विकसित करने के साथ-साथ अकादमिक उत्कृष्टता को बनाए रखने की रही है.‘
अंग्रेजी विभाग के प्रमुख अभिजीत गुप्ता ने कहा, ‘राष्ट्रीय शिक्षा परिषद (जेयू का पूर्ववर्ती) ने बंटवारे के बाद शरणार्थियों की मदद के कार्य में योगदान किया था. छात्रों की जनसांख्यिकी और छात्रावास संस्कृति भी सामाजिक कार्यों के वास्ते छात्रों को एकजुट करने में पार्टियों के लिए मददगार साबित होती हैं.’
जादवपुर विश्वविद्यालय शिक्षक संघ के प्रोफेसर बिश्वास ने कहा, ‘दक्षिणपंथी तत्व हमेशा विश्वविद्यालय पर नियंत्रण करने तथा शैक्षिक संस्थानों की स्वायत्तता को कम करने की इच्छा रखते हैं और इसीलिए जेयू हमेशा प्रतिरोध करता है.’
जहां तक राष्ट्रवाद का भाव भरने के लिए विश्वविद्यालय परिसरों में सेना के प्रतीक चिन्हों को स्थापित करने की बात है तो जादवपुर में पहले से ही ऐसी एक चीज मौजूद है– द्वितीय विश्वयुद्ध काल का एक ब्रितानी टोही वाहन, डेमलर स्काउट नामक ये कार यहां की तमाम राजनीतिक गतिविधियों का गवाह रही है.
(इस खबर को अंग्रेजी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)