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Friday, 22 November, 2024
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अयोध्या में गरीब औरतें और आदमी रश्क कर रहे- हाय, हम छुट्टा गाय या बैल क्यों न हुए

अयोध्या के कई भाजपाई संत गाय को पशु कहने पर चिढ़ जाते हैं और उपदेश देने लगते हैं कि ‘वह पशु नहीं माता है’. यह बात और है कि ये उपदेश-कुशल संत इस माता के लिए खुद कुछ नहीं करते और करदाताओं के पैसे से ही उसको पालना चाहते हैं.

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पिछले दिनों जब देशवासी महाराष्ट्र में भारतीय जनता पार्टी की राजनीति को उजाले में कपड़े उतारते देख रही थी, भगवान राम की अयोध्या में भी वह एक नई तरह के खेल में व्यस्त थी. उधर उसके भूतपूर्व मुख्यमंत्री देवेन्द्र फडणवीस राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी के अजित पवार के संख्याबल के सहारे अभूतपूर्व ढंग से अपने मुख्यमंत्रित्व की नई पारी लम्बी करने के फेर में थे और इधर अयोध्या में उसके बहुचर्चित महापौर ऋषिकेश उपाध्याय छुट्टा बैलों व बछड़े-बछियों समेत ‘गौमाता’ के समूचे परिवार को ठंड से बचाने के लिए कोट पहनाकर एक पंथ दो काज कर रहे थे- ‘करदाताओं के धन का सदुपयोग’ और पुण्य लाभ साथ-साथ.

लेकिन, भाजपा का दुर्भाग्य कि जहां महाराष्ट्र में अजित का संख्या बल ऐक्चुअल के बजाय वर्चुअल सिद्ध हुआ और फडणवीस को ‘पुनर्मूषको भव’ की गति को प्राप्त हो जाना पड़ा, वहीं न्यूज चैनलों के महाराष्ट्र के महानाटक में ही व्यस्त रह जाने के कारण अयोध्या में गौमाता को कोट पहनाने की ऋषिकेश उपाध्याय की गोवंश को कोट पहनाने की मुहिम को ज्यादा भाव नहीं मिला. इसलिए और भी कि अयोध्या में ठंड अभी ठीक से आयी ही नहीं है. अलबत्ता, अब उसे लेकर क्रियाओं व प्रतिक्रियाओं का ऐसा दौर आरम्भ हो गया है, जिसमें भाजपा को लेने के देने के तौर पर नागरिकों के कई असुविधाजनक सवालों का सामना करना या बरबस मुंह फेरना पड़ रहा है.

नागरिकों की प्रतिक्रियाओं पर आने से पहले इस मुहिम के पीछे का इरादा समझ लेना चाहिए, जिनमें सबसे बड़ा निस्संदेह, भाजपा और प्रदेश की योगी आदित्यनाथ सरकार के गोरक्षा के घोषित-अघोषित अभियान को नयी धार देना है. इसके लिए अयोध्या की सरकारी गोशाला में न सिर्फ गाय-बैलों, बछड़ों और बछियों को कोट पहनाये जा रहे है, बल्कि कहा जा रहा है कि गोशालाओं के शेडों में अलाव जलाए जाएंगे और अच्छे पर्दे लगाए जाएंगे.

स्थानीय अखबारों में छपी खबरों के अनुसार गौमाता के कोट, जिन्हें काऊकोट कहा जा रहा है, तीन तरह के होंगे. इनमें जूट के सिंगल लेयर वाले कोट बैलों के लिए होंगे, जबकि डबल लेयर वाले गायों और ट्रिपिल लेयर वाले बछड़ों व बछियों के. उनमें पहली लेयर कपड़े की, दूसरी फोम की जबकि तीसरी जूट की होगी और यह व्यवस्था भी की जायेगी कि वे गीले हो जायें, तो कुछ नुकसान न हो. ऐसे हर कोट की कीमत तीन सौ रुपये है और गौमाता व उनके परिजन उन्हें पहनकर भी प्रसन्न न हों तो बैसिंह ग्राम स्थित गोशाला में उनके लिए साढ़े आठ करोड़ रुपये खर्च करके टाउनशिप बनाने की भी योजना है. इस टाउनशिप में बैलों व गायों के लिए अलग-अलग शेडों के अलावा कई अन्य सुविधाओं की व्यवस्था भी की जायेगी.


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लेेकिन वह जब की जायेगी, तब की जायेगी. अभी तो इस सबसे क्षुब्ध नागरिक पूछ रहे हैं कि मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ के उस आह्वान का क्या हुआ, जिसमें उन्होंने आम अयोध्यावासियों के साथ संतों-महंतों से भी गायें पालने और गोरक्षा में महत्वपूर्ण भूमिका निभाने को कहा था? कितने संतों ने उनके कहने पर कितनी गायें पालीं? पालीं तो अपने खर्चें पर या उसके लिए सरकारी सहायता ली?

भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी के वरिष्ठ नेता सूर्यकांत पांडे अयोध्या में प्रति व्यक्ति औसत वार्षिक आय पचास हजार रूपये से भी कम होने का हवाला देकर अंदेशा जता रहे हैं कि ऐसे में हर साल ठिठुर-ठिठुर कर सर्दियां काटने वाले हजारों गरीब अयोध्यावासियों को गायों से रश्क होने लगेगा. वे सोचने लगेंगे कि इस धरती पर गाय-बैल या बछड़े-बछिया होकर ही क्यों नहीं पैदा हुए.

पांडे के अनुसार ‘अयोध्या में अभी भी गरीबी की हालत यह है कि ये तीन सौ के कोट गरीबों को दिये जाने लगें तो उन्हें पाने के लिए लम्बी लाइन लग जाये. कम्बल बांटने के कर्मकांड होते हैं, तो लग भी जाती हैं. एक ओर नगर निगम इन गरीबों को अलावों की आंच भी मयस्सर नहीं करा पाता और दूसरी ओर गोशालाओं में परदे लगा रहा है.’

आरटीआई एक्टिविस्ट शिवकुमार फैज़ाबादी चुटकी लेते हुए कहते हैं कि ‘चुनाव आयोग को कांग्रेस का अरसा पहले जब्त गाय-बछड़ा चुनाव निशान अगले चुनाव में भाजपा को दे देना चाहिए, क्योंकि उसकी सारी हमदर्दी गाय-बछडों के ही नाम है.’ फैज़ाबादी कहते हैं कि जब से योगी आदित्यनाथ सरकार आई है. अयोध्या में स्वर्ग उतारने के नाम पर सरयू नदी के आस-पास ही नहीं, अनेक दूसरे स्थलों पर भी निर्माणों के लिए खुदाई वगैरह से उड़ती मिट्टी व बालू ने धूल के प्रदूषण के साथ एलर्जी व दमा के रोगियों की संख्या इस तरह बढ़ा दी है, जैसे यहां फेफड़ों के रोगों का कोई अभयारण्य बनाया जा रहा हो. वे पूछते हैं कि इन रोगियों को राम-भरोसे छोड़कर गायों को कोट पहनाने का हासिल क्या है?

पूरे सच से वाकिफ होने के लिए उनकी बात को इस तथ्य से मिलाकर पढ़ना चाहिए कि अयोध्या के हृदयस्थल में रहने वाली किसी गर्भवती महिला के पास समुचित पैसे व जिला मुख्यालय पहुंचने का साधन न हो तो उसके सुरक्षित प्रसव के लाले पड़ जाते हैं. क्योंकि नगर के किसी अस्पताल या सामुदायिक स्वास्थ्य केन्द्र में प्रसव कराने की सुविधा ही नहीं है. वे कहते हैं कि यही हाल रहा तो अयोध्या के लोगों को रामधारी सिंह ‘दिनकर’ की कविता का थोड़ा पाठांतर करके गाना पड़ेगा, ‘गायों को मिलते दूध वस्त्र भूखे बालक अकुलाते हैं.’ और ‘वे सुभीते से मां के पेट से बाहर आने को भी तरस जाते हैं.’

कई लोग कहते हैं कि ऐसा इसलिए है कि क्योंकि अयोध्या के कई भाजपाई संत गाय को पशु कहने पर चिढ़ जाते हैं और उपदेश देने लगते हैं कि ‘वह पशु नहीं माता है’. यह बात और है कि ये उपदेश-कुशल संत इस माता के लिए खुद कुछ नहीं करते और करदाताओं के पैसे से ही उसको पालना चाहते हैं.


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मूल अयोध्या में आज भी लड़कों व लड़कियों के कुल मिलाकर दो ही इण्टर कालेज ही हैं. उनमें किसी में बालिकाओं के लिए विज्ञान विषय की पढाई की व्यवस्था नहीं है. दो डिग्री कालेज भले हैं, लेकिन उनमें रोजगारपरक और तकनीकी शिक्षा नहीं दी जाती.

प्रसंगवश, अयोध्या के बेनीगंज मोहल्ले में स्थित मजार के सामने एक पंडित जी के यहां सात सौ रुपये महीने किराये पर रह रही बेघर जैनब अपने पति के साथ मोचीगिरी करके जैसे-तैसे अपना, पति व अपने दो बच्चों का पेट पालती है. यह बताने पर कि नगर निगम की योजनाओं के तहत उसे शौचालय समेत अपना घर मिल सकता है, वह विश्वास नहीं कर पाती. वो कहती है, ‘आज तक मुझे ऐसी किसी योजना का लाभ नहीं मिला. इसके दो कारण हैं. पहली, मेरी कोई पहुंच नहीं है और दूसरी, मैं गाय नहीं हूं.’

लेकिन, महापौर ऋषिकेश उपाध्याय उसकी इस प्रतिक्रिया से भी विचलित नहीं होते. निर्लिप्त होकर कह देते हैं, ‘नगर निगम में अभी भी आवास और शौचालय के लिए ऑनलाइन व ऑफलाइन आवेदन हो रहे हैं. जैनब को नगर निगम कार्यालय भेज दीजिए. उसके दोनों फार्म भरा दिये जायेंगे और उसकी मदद हो जायेगी’ है कोई जो उनसे पूछे कि कितनी गायों ने नगर निगम में कोट के लिए आवेदन किये थे? अगर नहीं, तो सुमित्रानन्दन पंत ने जैसे उन्हीं जैसों से पूछा था- रे मानव कैसी विरक्ति थी जीवन के प्रति? आत्मा का अपमान प्रेत और छाया से रति!

(लेखक जनमोर्चा अख़बार के स्थानीय संपादक हैं, इस लेख में उनके विचार निजी हैं)

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