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Wednesday, 18 December, 2024
होम50 शब्दों में मतममता को चुनावी हार से सीखना चाहिए, राजनीतिक हिंसा की जिम्मेदारी लेनी चाहिए

ममता को चुनावी हार से सीखना चाहिए, राजनीतिक हिंसा की जिम्मेदारी लेनी चाहिए

दिप्रिंट का महत्वपूर्ण मामलों पर सबसे तेज नज़रिया.

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पश्चिम बंगाल में लगातार हो रही राजनीतिक हिंसा से पता चलता है कि राज्य की कानून और व्यवस्था चरमरा रही है. ममता बनर्जी वास्तविक राजनीतिक साजिशों के लिए दूसरों को जिम्मेदार ठहराकर अपनी जिम्मेदारी से बच नहीं सकती हैं. लोकसभा परिणाम उसके शासन मॉडल का स्पष्ट संकेत थे, उन्हें इससे सबक लेनी चाहिए.

राहुल गांधी को जवाबदेह बनाया जा रहा है, कांग्रेस को सफल होने के लिए उन्हें गैर-वंशवादी होना चाहिए

राहुल गांधी कांग्रेस अध्यक्ष पद छोड़ने के अपने फैसले पर अडिग रहने का श्रेय लेने के हकदार हैं. यह इस्तीफे के नाटक से कहीं अधिक है. पार्टी को इसे स्वीकार करना चाहिए क्योंकि यह जवाबदेही की संस्कृति का संकेत देती है. कांग्रेस की छवि को बदलने और पुनरुद्धार प्रक्रिया शुरू करने के लिए गैर-राजवंश नियुक्त करने का अवसर भी है.

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1 टिप्पणी

  1. ममता दी, जैसा कि ठेठ हिंदी में कहते हैं, सठिया गई हैं। अपने राजनीति का आत्ममंथन वो क्या करेंगी – उनकी राजनीति तो अनावश्यक आक्रामकता की और बिना किसी विचारधारा की राजनीति रही है और कांग्रेस से ज्यादा उनको और कौन जानेगा?
    दरअसल आज की राजनीति में उनकी कोई सार्थकता बच नहीं गई है। जब एक मुख्य मंत्री यह जाने कि उनके ही लोगों के द्वारा कट मनी लिया जा रहा है और अपने ही लोगों को ये पैसे वापस करने को कहे – तो क्या उन्हें एक पल भी मुख्य मंत्री बने रहना चाहिए? और कट मनी लेने वाले के साथ क्या किया जा रहा है? और यह मनी जा कहां रहा है?
    और यह सब ले के वो भाजपा का मुकाबला करने वाली हैं? वास्तव में ममता दी जहां तक निकल चुकी हैं वहां से वापसी संभव ही नहीं है। जब वो सी पी एम के कैडर को टी एम सी के कैडर में कन्वर्ट कर पाई तो भाजपा उनके कैडर को अपने कैडर में कन्वर्ट क्यों नहीं कर पायेगी?
    आज के समय में जब पूरे विपक्ष की कमर टूट चुकी है और सबके घर में आग लगी है तो किसे उनके घर की आग बुझाने की फुरसत है? ममता दी ने समय की नजाकत कभी नहीं समझी। जब वो कांग्रेस में थी तब भी नहीं, जब एन डी ए में थी तब भी नहीं तो अब अकेले रह के क्या समझेंगी।
    किसी की बात सुनने की आदत उनकी रही नहीं क्योंकि सब दिन सबको वो सुनाती ही रही हैं।
    काश! वो थोड़ी देर चुप रहती। काश! वो थोड़ा अपने लोगों को कुछ बोलने कहती। काश! वो किसी का तो सुनती। उनकी व्यक्तिगत ईमानदारी और सादगी के साथ साथ थोड़ी शालीनता और गंभीरता भी उनमें जन्म लेती तो उनका बंगाल उन्हें काफी दिनों तक अपने सर पे रखता – जैसा कि बंगाल की आदत है। लेकिन अब तो उन्होंने काफी पावन पानी दक्षिणेश्वर के बगल से निकल जाने दिया है। अगर अब भी इस बहाव को थोड़ा रोक सकें तो शायद अब भी बात कुछ बने। अपने लोगों को अपने पास बुला के बात तो करें। अपनी थोड़ी कमियों की तरफ ध्यान तो दें और थोड़ी देर के लिए भी ये तो मान लें कि वो टी एम सी की नेता नहीं पूरे राज्य की नेता हैं!

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