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Sunday, 22 December, 2024
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जम्मू-कश्मीर में कहीं टूट न जाए मुफ्ती मोहम्मद सईद का सपना

अपने गठन के बाद अपने संस्थापक स्वर्गीय मुफ्ती मोहम्मद सईद के बिना पहला चुनाव लड़ रही पीपुल्स डेमोक्रेटिक पार्टी (पीडीपी) के लिए इस बार का लोकसभा चुनाव उसके अस्तित्व की लड़ाई बन गया है.

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जम्मू: अपने गठन के बाद अपने संस्थापक स्वर्गीय मुफ्ती मोहम्मद सईद के बिना पहला चुनाव लड़ रही पीपुल्स डेमोक्रेटिक पार्टी (पीडीपी) के लिए इस बार का लोकसभा चुनाव उसके अस्तित्व की लड़ाई बन गया है. अपने सबसे बुरे दौर से गुज़र रही पार्टी के लिए 2014 का प्रदर्शन दोहरा पाना तो मुश्किल हो ही रहा है, आशंका है कि कहीं इस बार के लोकसभा चुनाव के परिणाम से पीडीपी संस्थापक स्वर्गीय मुफ्ती मोहम्मद सईद का सपने टूट कर बिखर न जाए.

कश्मीर घाटी से मिल रहे संकेतों के अनुसार घाटी की तीनों लोकसभा सीटों पर पीडीपी के उम्मीदवारों को कड़ी चुनौती मिल रही है. किसी भी सीट पर पार्टी उम्मीदवार मज़बूत हालत में नहीं हैं. यहां तक की अनंतनाग लोकसभा क्षेत्र से एक बार फिर चुनाव लड़ रहीं पार्टी अध्यक्ष महबूबा मुफ्ती की स्थिति भी सुरक्षित नहीं मानी जा रही है.


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उल्लेखनीय है कि 2014 के लोकसभा चुनाव में पार्टी ने राज्य की छह सीटों में से तीन पर न केवल ज़बर्दस्त जीत हासिल की थी बल्कि राज्य की राजनीति में उसने एक नया इतिहास लिख डाला था.

पिछले लोकसभा चुनाव में कश्मीर घाटी की तीनों संसदीय सीटों पर मिली कामयाबी कई मायनों में ऐतिहासिक थी. जम्मू कश्मीर के इतिहास में यह पहला मौका था जब नेशनल कॉन्फ्रेंस किसी लोकसभा चुनाव में एक भी सीट जीत सकने में कामयाब नहीं हो सकी थी.

1939 में अपने गठन के बाद से नेशनल कॉन्फ्रेंस को पहली बार किसी लोकसभा चुनाव में इतनी बड़ी हार का सामना करना पड़ा था और उसके अभेद्य किले की नींव पीडीपी ने हिला कर रख दी थी. नेशनल कॉन्फ्रेंस की हार शेख परिवार के लिए भी बहुत बड़ा झटका थी. इस चुनाव में शेख परिवार को खुद हार का मुंह देखना पड़ा. नेशनल कॉन्फ्रेंस के अध्यक्ष फारूक अब्दुल्ला श्रीनगर संसदीय सीट से खुद चुनाव हार गए थे. राज्य के इतिहास में यह भी पहली बार ही था कि कश्मीर की किसी लोकसभा सीट पर अब्दुल्ला परिवार को हार का मुंह देखना पड़ा था.

2014 लोकसभा चुनाव से पहले तक श्रीनगर लोकसभा सीट पर अब्दुल्ला परिवार का एकछत्र वर्चस्व था. मगर 2014 लोकसभा चुनाव में पीडीपी ने अब्दुल्ला परिवार के घर में ही सेंध लगा कर पीडीपी ने अब्दुल्ला परिवार को ज़बर्दस्त झटका दिया था.

भाजपा से हाथ मिलाना महंगा पड़ा

मगर 2014 लोकसभा चुनाव में मिली सफलता को पीडीपी अधिक दिन तक कायम नहीं रख सकी. 2015 में भारतीय जनता पार्टी के साथ गठबंधन सरकार बनाने के बाद पार्टी में अंदर ही अंदर असंतोष सुलगने लगा. हालांकि मुफ्ती मोहम्मद सईद के विराट व्यक्तित्व के कारण स्थिति कभी भी विस्फोटक तो नहीं हुई पर नाराज़गी बनी रही.
अलबत्ता जनवरी 2016 में सईद के निधन के बाद हालात खराब होने शुरू हो गए. धीरे-धीरे मतभेद बढ़ने लगे और लोग पार्टी छोड़ने लगे.

मुफ्ती मोहम्मद सईद की उत्तराधिकारी के रूप में उनकी बेटी महबूबा मुफ्ती की नेतृत्व क्षमता पर भी सवाल उठने लगे. सितंबर 2016 में पार्टी को पहला बड़ा धक्का उस समय लगा जब 2014 के लोकसभा चुनाव में डॉ फारूक अब्दुल्ला को हराने वाले तारिक हमीद करा ने लोकसभा और पार्टी से त्यागपत्र दे दिया. करा भारतीय जनती पार्टी के साथ गठबंधन करने के सख्त विरोधी थे.

तारिक के इस्तीफे के बाद पीडीपी के भीतर की नाराज़गी हर दिन बढ़ती चली गई और करा के जाने के बाद कई अन्य वरिष्ठ नेता भी नेतृत्व के खिलाफ खुल कर बोलने लगे.

19 जून 2018 को पीडीपी-भाजपा सरकार के गिरने के बाद तो हालात बेकाबू हो गए व ताश के पत्तों की तरह पीडीपी बिखरना शुरू हो गई. लगभग 10 विधायकों और विधान परिषद सदस्यों ने विद्रोह कर पार्टी छोड़ दी. अभी तक पार्टी छोड़ने वालों में हसीब द्राबू, इमरान अंसारी, अबिद अंसारी, अब्बास वानी, जावेद मुस्तफा मीर शामिल हैं.

रिश्तेदारों पर भरोसा

पीडीपी छोड़ने वाले नेताओं को महबूबा मुफ्ती की कार्यशैली से शिकायत रही है. पार्टी के कई वरिष्ठ नेताओं की अनदेखी पार्टी के लिए नुकनदायक रही है. दरअसल, पार्टी संस्थापक मुफ्ती मोहम्मद सईद की मृत्यु के बाद महबूबा ने अपने करीबी रिश्तेदारों को पार्टी की सारी कमान सौंप दी जिससे पार्टी में असंतोष पनपा. महबूबा के सगे मामा सरताज मदनी और नईम अख्तर ही पार्टी का कामकाज संभालते हैं.

पिता मुफ्ती मोहम्मद सईद के देहांत के बाद जिस ढंग से महबूबा ने अचानक अपने भाई तसद्दुक मुफ्ती को पार्टी में सक्रिय किया उससे भी पार्टी के वरिष्ठ नेताओं में असुरक्षा की भावना पैदा हुई. उल्लेखनीय है कि तसद्दुक मुफ्ती राजनीति से दूर मुंबई में रहकर बॉलीवुड में काम कर रहे थे.

कश्मीर के वरिष्ठ पत्रकार और ‘कश्मीर इमेजिस’ के मुख्य संपादक बशीर मंजर का कहना है कि ‘अगर पिता मुफ्ती महोम्मद सईद के साथ कंधे से कंधा मिला कर पीडीपी को बनाने का श्रेय महबूबा को दिया जाता है तो पार्टी के वर्तमान संकट के लिए भी महबूबा ही ज़िम्मेवार हैं’.


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बुरहान वानी की मौत भी बनी नाराज़गी की वजह

जुलाई 2016 में आतंकवादी बुरहान वानी का एक मुठभेड़ में मारा जाना भी पीपुल्स डेमोक्रटिक पार्टी (पीडीपी) के लिए परेशानी भरा रहा. इस वजह से आम लोग पीडीपी से दूर हुए, खास तौर पर दक्षिण कश्मीर में पार्टी को भारी नुकसान उठाना पड़ा है.

आतंकवादी बुरहान वानी दक्षिण कश्मीर में सक्रिय था और बेहद ‘लोकप्रिय’ था. उसे ‘पोस्टर बॉय’ के रूप में जाना जाता था. जिस समय बुरहान मारा गया उस समय कश्मीर में महबूबा मुफ्ती की ही सरकार थी और महबूबा खुद मुख्यमंत्री थीं. कश्मीर विशेष कर दक्षिण कश्मीर में लोग बुरहान की मौत के लिए पीडीपी को ही जिम्मेवार मानते रहे हैं.

ऐसा माना जाता है कि आतंकवादी बुरहान वानी और उसके साथियों ने 2014 के विधानसभा चुनाव में पीडीपी की अप्रत्यक्ष रूप से मदद भी की थी.

पीडीपी का गढ़ रहा है दक्षिण कश्मीर

यहां यह उल्लेखनीय है कि पीडीपी का मुख्य आधार दक्षिण कश्मीर में ही रहा है. दक्षिण कश्मीर से ही पीडीपी ने अपने सफर की शुरुआत की थी. पार्टी के संस्थापक मुफ़्ती मोहम्मद सईद दक्षिण कश्मीर के बिजबिहाड़ा इलाके के रहने वाले थे और उन्होंने अपनी राजनीति इसी क्षेत्र से शुरू की थी.

पीडीपी को दक्षिण कश्मीर में शुरू से ही अच्छी सफलता मिलती रही है. पार्टी ने अपने गठन के बाद हुए पहले विधानसभा चुनाव (2002) में क्षेत्र की 16 में से 10 विधानसभा सीटें जीत कर कश्मीर में एक मज़बूत विकल्प दिया था. इसी तरह से 2008 के विधानसभा चुनाव में दक्षिण कश्मीर से पीडीपी ने 16 में से 12 सीटों पर कब्ज़ा जमाया था.

2014 के विधानसभा चुनाव में भी पीडीपी ने अपना दबदबा कायम रखा और दक्षिण कश्मीर की 16 में से 11 विधानसभा सीटें जीती. पिता मुफ़्ती मोहम्मद सईद की तरह उनकी बेटी महबूबा मुफ़्ती ने भी अपना राजनीतिक सफर दक्षिण कश्मीर से ही शुरू किया. महबूबा 1996 में पहली बार दक्षिण कश्मीर की बिजबिहाड़ा विधानसभा सीट से ही कांग्रेस के टिकट पर विधायक चुनी गईं थी. बाद में महबूबा पीडीपी के प्रत्याशी के रूप में अनंतनाग लोकसभा सीट से 2004 और 2014 में सांसद भी रहीं.

दक्षिण कश्मीर में ही कमज़ोर

लेकिन अब पीडीपी को दक्षिण कश्मीर में ही मुश्किलों का सामना करना पड़ रहा है. भारतीय जनता पार्टी से गठबंधन और आतंकवादी बुरहान वानी प्रकरण ने पीडीपी को अपनी ही ज़मीन पर कमज़ोर कर दिया है. इस बार पार्टी के वरिष्ठ नेता नाराज़ हैं और चुनाव में काम नहीं कर रहे हैं.

पीपुल्स डेमोक्रेटिक पार्टी (पीडीपी) को लेकर पहले से ही कोई लहर घाटी में दिखाई नहीं दे रही थी, उस पर कम मतदान ने रही सही आशा पर भी पानी फेर दिया है.

दक्षिण कश्मीर की अनंतनाग संसदीय सीट पर तो हालत और भी खराब हैं. स्वर्गीय मुफ्ती मोहम्मद सईद और महबूबा मुफ्ती के गृह नगर बिजबिहाड़ा तक में मात्र दो प्रतिशत मतदान हुआ. गत 23 अप्रैल को हुए मतदान में बिजबिहाड़ा में कुल 93289 मतदाताओं में से मात्र 1905 ने ही अपने मताधिकार का इस्तेमाल किया.

पूरे अनंतनाग ज़िले का कुल मतदान 13.63 प्रतिशत रहा जो कि पीडीपी की चिंताएं बढ़ाने के लिए काफी है. अनंतनाग लोकसभा सीट के लिए कुलगाम ज़िले में गत 29 अप्रैल को हुए मतदान में भी मात्र 10 प्रतिशत मतदान हुआ. अब 6 मई को पुलवामा और शोपियां ज़िलों में अनंतनाग संसदीय सीट के लिए मतदान होगा. उल्लेखनीय है कि सुरक्षा कारणों से अनंतनाग संसदीय सीट पर तीन अलग-अलग चरणों में मतदान हो रहा है.

1999 में हुआ था गठन

सीमित साधनों और कुछ लोगों को साथ लेकर कश्मीर के वरिष्ठ राजनीतिक नेता मुफ्ती मोहम्मद सईद ने जब 1999 में पीपुल्स डेमोक्रटिक पार्टी (पीडीपी) का गठन किया था तो बहुत कम लोगों ने उनके इस प्रयास को गंभीरता से लिया था. मगर अपने गठन के फौरन बाद दो विधानसभा सीटों पर हुए उपचुनाव को जीत कर पार्टी ने अपने इरादों से सभी को अवगत करा दिया था.

2002 के विधानसभा चुनाव में शानदार प्रदर्शन करते हुए पीडीपी ने जम्मू कश्मीर की राजनीति में वर्षों से बिना किसी खास चुनौती के पहले स्थान पर काबिज नेशनल कान्फ्रेंस को झटका देते हुए 16 विधानसभा सीटें जीत कर साबित कर दिया कि जम्मू कश्मीर की भविष्य की राजनीति में पीडीपी की अहम भूमिका हो सकती है और उसे नज़रअंदाज नहीं किया जा सकेगा.

पीपुल्स डेमोक्रेटिक पार्टी ने 2002 में कांग्रेस के साथ मिल कर राज्य में सरकार बनाई जो छह वर्ष तक चली. अपने गठन के तीन सालों के भीतर ही सत्ता में काबिज हो जाना पीडीपी की एक बड़ी उपलब्धि रही.


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अपने शानदार सफर को जारी रखते हुए उसने 2008 में विधानसभा की 21 (24.1 प्रतिशत) सीटों पर जीत हासिल कर फिर एक बार साबित कर दिखाया कि पार्टी राज्य की राजनीति में निर्णायक स्थिति हासिल कर चुकी है. अलबत्ता कांग्रेस के साथ खराब संबंधों के कारण और अमरनाथ भूमि आंदोलन से पैदा हुए हालात के कारण 2008 में पीडीपी प्रदेश में सरकार नहीं बना सकी. मगर पीपुल्स डेमोक्रेटिक पार्टी ने कश्मीर के लोगों को नेशनल कांन्फ्रेंस के मुकाबले एक बड़े विकल्प के रूप में उभर कर दिखाया.

पीडीपी ने 2014 के विधानसभा चुनाव में फिर शानदार प्रदर्शन कर 32.2 प्रतिशत मत प्राप्त कर 28 विधानसभा सीटों पर जीत हासिल की. बाद में भारतीय जनता पार्टी के साथ मिल कर राज्य में सरकार भी बनाई.

(लेखक जम्मू कश्मीर के वरिष्ठ पत्रकार हैं)

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