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Friday, 22 November, 2024
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चौधरी छोटूराम: हरियाणा के सर्वमान्य नेता, जिनके बाद ‘जाट राजनीति’ का उदय हुआ

पिछले साल रोहतक में चौधरी छोटूराम की मूर्ति का अनावरण करने गए पीएम नरेंद्र मोदी के ट्विटर हैंडल से ‘जाटों का मसीहा’ और ‘किसानों की आवाज़’ लिख दिया गया था

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2019 का लोकसभा चुनाव प्रचार चालू हो चुका है. हरियाणा में विपक्षी पार्टियां भाजपा पर जाट-गैर जाट की राजनीति के आरोप लगा रही हैं. इस दौरान चौधरी छोटूराम को भी याद किया जाएगा. गौरतलब है कि 2016 में हुए जाट आरक्षण दंगों को लेकर खट्टर सरकार को घेरा गया था. राजनीतिक जानकारों का कहना है कि इस बार भी भाजपा हरियाणा में जाति की राजनीति पर ही दांव खेलेगी.

आलोचकों का कहना है कि भाजपा राष्ट्रीय स्तर पर धर्म की राजनीति खेलती है और राज्य में जाति के नाम पर. जनवरी 2019 में हुए जींद उपचुनाव में भाजपा की जीत को गैर जाटों के एकजुट होने से जोड़कर देखा जा रहा था. इससे पहले भी 2018 में हुए मेयर के चुनावों में मुख्यमंत्री मनोहर लाल खट्टर पर आरोप लगा कि उन्होंने कहा था कि अगर जाति पर ही वोट देना है तो पंजाबियों को तो उन्हें ही वोट देना चाहिए.

गौरतलब है कि पिछले साल रोहतक में चौधरी छोटूराम की मूर्ति का अनावरण करने गए पीएम नरेंद्र मोदी के ट्विटर हैंडल से ‘जाटों का मसीहा’ और ‘किसानों की आवाज़’ लिख दिया गया था. आलोचना के बाद ये ट्वीट हटा लिया गया था. गाहे-बगाहे हरियाणा की लगभग सभी राजनीतिक पार्टियां चौधरी छोटूराम की विरासत को क्लेम करने की कोशिश करती हैं. चाहे वो इनेलो के ओम प्रकाश चौटाला ही क्यों ना रहे हों. बाकी पार्टियां इनेलो द्वारा चौधरी छोटूराम के नाम पर सियासत करने के ऊपर भी सवाल उठाती रही हैं. चौधरी छोटूराम के दोहते बीरेंद्र सिंह भाजपा में हैं और फिलहाल केंद्रीय इस्पात मंत्री हैं.

हरियाणा में जाट राजनीति का उदय

हरियाणा का राजनीतिक पैटर्न देखें तो यहां भजनलाल को छोड़कर कोई गैर जाट सीएम की कुर्सी पर टिका नहीं है और अगर कोई टिका है तो उसकी सरकार कार्यकाल पूरा होने से पहले गिरा दी गई है. अभी मनोहर लाल खट्टर अपने पांच साल का कार्यकाल पूरा करने वाले हैं. भगवत दयाल शर्मा, राव बिरेंदर, बनारसी दास गुप्ता भी कुछ समय के हरियाणा के मुख्यमंत्री रह चुके हैं.

इन सभी बातों के मद्देनजर सवाल ये उठता है कि राज्य की एक चौथाई आबादी वाले जाट समुदाय को लेकर गैर जाट लामबंद क्यों हो रहे हैं? जाट समुदाय का राजनीतिक स्तर पर इतने प्रभाव क्यों है?

दिप्रिंट से बातचीत के दौरान हरियाणा में सीपीआईएम पार्टी से जुड़े इंद्रजीत सिंह ने बताया कि संख्या में सबसे बड़ा समुदाय होने की वजह से ही हरियाणा की राजनीति में जाट डॉमिनेंस है. इसके अलावा दूसरा कोई कारण नहीं है.

हरियाणा अकेडमी ऑफ हिस्ट्री एंड कल्चक के पूर्व डायरेक्टर और डीन ऑफ सोशल सांइसेंज (कुरुक्षेत्र) के डॉक्टर के सी यादव का कहना है कि जिस तरह दक्षिण हरियाणा में अहीरों की संख्या संगठित है उसी तरह रोहतक, हिसार, भिवानी और झज्जर जिलों में जाटों की संख्या ज्यादा है. ऐसे में एक खास इलाके में एक खास समुदाय का राजनीतिक और सामाजिक प्रभाव रहता है. 

लेकिन हरियाणा की राजनीति पर किताबें लिख चुके प्रोफेसर डॉक्टर भीम एस दहिया का इस पर अलग मत है. अपनी एक किताब में वो हरियाणा में जाट राजनीति के उभरने पर लिखते हैं कि इसकी शुरुआत चौधरी छोटूराम और पंडित श्री राम शर्मा के दौर में हुई. वो लिखते हैं कि चौधरी छोटूराम किसान समुदाय को विभिन्न प्रताड़ित करने वाले कानूनों से तो बचा ले गए लेकिन उनके समय में ‘जाट राजनीति’ की शुरुआत हो गई, वो अभी तक जारी है. 

चौधरी छोटूराम: ‘किसानों की आवाज़’

1881 में रोहतक के गढ़ी-सांपला में पैदा हुए चौधरी छोटूराम ने 1905 में दिल्ली के सेंट स्टीफेंस से स्नातक की पढ़ाई की.1910 में आगरा से वकालत की पढ़ाई की. उसके बाद 1912 में झज्जर में जाट सभा बनाई. चौधरी छोटूराम ने 1916 में रोहतक के डिप्टी कमिश्नर की मदद से साप्ताहिक ‘जाट गजट’ की शुरुआत की. लेकिन इसके जवाब में 1923 में पंडित श्री राम शर्मा ने ‘हरियाणा तिलक’ लॉन्च कर दिया. ये दोनों वीकली ही तत्कालीन हरियाणा राजनीति के दो स्तम्भों का प्रतिनिधित्व करते हैं. किसान राजनीति और ब्राह्मण-बनियों की राजनीति. उस वक्त जाट समुदाय मुख्यतः किसानी से जुड़ा था इसलिए इससे जाट राजनीति के उदय को समझा जा सकता है.

चौधरी छोटूराम ने राजनीति की शुरुआत कांग्रेस में शामिल होकर ही की. लेकिन वो 1920 में कांग्रेस से अलग हो गए. उसके बाद छोटू राम ने यूनियनिस्ट पार्टी खड़ी कर दी और पंडित श्रीराम कांग्रेस से जुड़ गए. दोनों ही नेताओं पर आरोप लगाए गए कि इन्होंने अपनी साप्ताहिक मैग्ज़ीनों का प्रयोग राजनीति चमकाने के लिए इस्तेमाल किया.

उस समय देश में आर्य समाज आंदोलन भी ज़ोरो पर था. इस आंदोलन से जुड़ी एक बात बेहद रोचक रही. इसे शुरू करने वाले महर्षि दयानन्द खुद एक ब्राह्मण थे लेकिन ब्राह्मण समाज इस विचारधारा का विरोधी रहा. आर्य समाज आंदोलन से जुड़ने वाले ज्यादातर जाट रहे.

चौधरी छोटूराम के महत्वपूर्ण कार्य

अपने राजनीतिक करियर में चौधरी छोटूराम एक किसान नेता, एक वकील, एक पत्रकार और  एक स्वतंत्रता सेनानी के तौर पर स्थापित हुए. उन्होंने किसानों की गिरवी ज़मीनों को छुड़वाया और पंजाब में भाखड़ा नांगल बांध बनवाने में भी मदद की.  9 जनवरी 1945 को छोटूराम का देहांत हो गया. लेकिन इससे पहले छोटू राम कृषक समुदाय के लिए बहुत कुछ कर चुके थे. अमूमन आज भी हरियाणा के लोग किसानों को सड़कों पर उतरते देखकर कह देते हैं कि अगर छोटूराम होते तो ये समस्याएं हल हो गई होतीं. हमारी संसद में कोई किसान नेता ही नहीं है. चौधरी छोटूराम ने विधान सभा पहुंचकर किसानी से जुड़े जो क़ानून पास करवाए, वो हैं-

– कर्जा माफी ऐक्ट 1934

– साहूकार पंजीकरण ऐक्ट 1938

– गिरवी जमीनों की मुफ्त वापसी ऐक्ट 1938

– कृषि उत्पाद मंडी ऐक्ट 1938

– व्यवसाय श्रमिक ऐक्ट 1940

राजनीतिक द्वेष में चौधरी छोटूराम पर लगाये गये आरोप

लेकिन रोचक बात है कि उस वक्त से चौधरी छोटूराम पर जिला स्तर पर ‘जाट पॉलिटिक्स‘ करने के आरोप लगते रहे. चौधरी छोटूराम और हरियाणा की राजनीति पर प्रकाशित रिसर्च पेपर्स में इस बात के कई उदाहरण भी मिलते हैं. जो जाट गजट, हरियाणा तिलक और हिंदुस्तान टाइम्स में छपने वाली घटनाओं के आधार पर लिखे गए. जानी-मानी इतिहासकार प्रेम चौधरी द्वारा लिखा रिसर्च पेपर ‘द रोल ऑफ चौधरी छोटूराम इन पंजाब पॉलिटिक्स: अ केस स्टडी ऑफ रोहतक डिस्ट्रिक्ट में पंजाब प्रांत की पॉलिटिक्स का लेखा-जोखा है. प्रेम चौधरी दिल्ली बेस्ड हरियाणवी हैं और एक सोशल सांइटिस्ट हैं. साथ ही, वो यूनिवर्सिटी ग्रांट कमीशन से भी भी जुड़ी हुई हैं. आगे हमने उनकी किताब  पंजाब पॉलिटिक्स: द रोल ऑफ सर छोटूराम जो 1984 में पब्लिश हुई, से कुछ तथ्य उठाए हैं. हालांकि इस किताब के छपने के बाद विरोध प्रदर्शन हुए. 

‘जब 1920 के आसपास निम्न वर्गों द्वारा मज़दूरी बढ़ाए जाने की मांगें बढ़ी तो इन्हें अनुचित ठहराते हुए जाट गजट ने लिखा था कि जुलाहा, बढ़ई, लुहार और हरिजनों का बहिष्कार किया जाना चाहिए जब तक कि वो मज़दूरी की मांगों को कम नहीं करते हैं.  

जब निम्न वर्गों को ज़मीन पर अधिकार देने की मांगें बढ़ने लगी तब छोटूराम ने अपना जमींदार समर्थक होने का पुख्ता सबूत दिया. इसी तरह छोटूराम और उनके समर्थकों ने निम्न वर्गों की टैक्स कम करने की मांगों का भी विरोध किया. हिंदुस्तान टाइम्स ने लिखा था कि छोटूराम ने गांव के टैक्स को खत्म करने की बातों का विरोध किया. रोहतक के हेडिना गांव के कथित निम्न वर्गों से कहा कि मैं अपने ज़मींदार भाइयों को नाराज़ नहीं कर सकता हूं. अगर ज़मींदार इस टैक्स को खत्म नहीं करना चाहते हैं तो मैं कुछ नहीं कर सकता. अगर इस आधार आप हमें वोट ना देना चाहें तो कोई बात नहीं.’

‘जाट गजट’ ने यह बात स्वीकारी थी कि निम्न वर्ग के लोगों ने यूनियनिस्ट पार्टी के 125 उम्मीद्वारों के खिलाफ वोट डाले थे. सिर्फ तीन निम्न वर्ग के उम्मीदवार यूनियनिस्ट पार्टी से लड़े थे और तीनों ही हार गए थे.

हरिजनों की आर्थिक स्थिति (मज़दूरों से जोतदार) में कोई सुधार हुआ तो उसका भी जाट-हरिजन समीकरण पर कोई असर नहीं पड़ा. हरिजनों की संख्या जब स्वतंत्र जोतदारों के रूप में बढ़ने लगी तब अधिकारियों ने उन्हें कानूनी रूप से ‘कृषक’ होने का दर्ज़ा देने पर विचार किया. लेकिन छोटूराम और उनके समर्थकों ने इस बात पर विरोध किया और अपनी असहमति जताई.

उस वक्त आरोप लगे कि जाटों के बढ़ते आर्थिक, शैक्षणिक और संख्यात्मक प्रभुत्व ने उस वक्त कई हत्या की घटनाओं को भी जन्म दिया. एक मर्डर के मामले में छोटूराम के राइट हैंड कहे जाने वाले टिका राम का नाम आया. छोटूराम जब पंजाब प्रान्त की राजनीति में प्रवेश कर चुके थे, तब उनकी पार्टी से जुड़े लोग ऐसे केसों में गिरफ्तार हो रहे थे.’

चौधरी छोटूराम को पहले अंग्रेजों ने नकारा, बाद में तारीफें कीं

‘शुरुआत में छोटूराम को ‘निचले स्तर’ और ‘विवादास्पद नेता’ कहने वाले ब्रिटिश अधिकारियों ने बाद में उन्हें विनम्र और निष्ठापूर्ण आचरण रखने वाले नेता की तरह प्रोजेक्ट करना शुरू कर दिया. क्योंकि उन्हें प्रथम विश्वयुद्ध के दौरान सेना के लिए सैनिक भर्ती करने थे. चौधरी छोटूराम ने जाटों को प्रथम विश्वयुद्ध के लिए बनी सेना भर्ती कराने में जिले के अधिकारियों की मदद की. उस वक्त दक्षिण हरियाणा से भी सेना में अहीरों की भर्तियां हुईं.

इसके बाद जॉर्ज कैम्बेल और गुबिंस ने आधिकारिक तौर पर जाटों को ‘सबसे बेहतर नस्ल’ कहना शुरू कर दिया. इसके पीछे उनकी मंशा सेना में ज़्यादा से ज़्यादा जाटों को भर्ती कराने और बाकी समाज को जाट-गैर जाट में बांटने की भी थी. जैसा वो राष्ट्रीय स्तर पर 1857 की क्रांति के बाद हिन्दू और मुसलमानों के बीच कर रहे थे. चौधरी छोटूराम को सर की उपाधि भी दी गई.

जब जाटों के बीच ही टकराव की परिस्थितयां आईं तो छोटूराम ने कास्ट फैक्टर छोड़कर क्लास फैक्टर का पक्ष लिया. जब जाट जोतदारों ने जाट साहूकारों और जाट ज़मींदारों पर सवाल उठाए तो छोटूराम ने ज़मींदारों और साहूकारों के पक्ष में खड़े दिखाए दिए. क्योंकि उनकी राजनीति की रीढ़ की हड्डी ज़मींदार और साहूकार थे. जोतदार महज संख्यात्मक ताकत का हिस्सा थे.

पंजाब प्रांत के हरियाणवी क्षेत्रों में जाटों का सपोर्ट काफी नहीं था. प्रांतीय राजनीति, जिले की राजनीति से भिन्न थी. प्रांतीय स्तर पर जाट समुदाय के साथ-साथ सभी हिन्दू कृषक समूहों का साथ भी जरूरी था. पंजाब में ‘जाट राज’ की बजाय ‘जमींदार राज’ का दावा आसानी से किया जा सकता था.’

समय के साथ विचार और राजनीति विकसित होती गई

इंस्टीट्यूट ऑफ सोशल सांइसेज(नई दिल्ली) के सीनियर फेलो प्रोफेसर रणबीर सिंह इस बात को स्वीकारते हैं कि शुरुआत में चौधरी छोटूराम एक जाट लीडर के तौर पर स्थापित हुए लेकिन ये सिर्फ जिले की राजनीति तक सीमित था. उस वक्त राजनीति का रुख इकॉनोमिक स्थिति तय कर रही थी. इसलिए छोटूराम ने पहले हिंदू जाटों को लामबंद किया. फिर सिख और मुस्लिम जाटों को जोड़ा. उसके बाद उन्होंने कृषक समुदायों को अपने से जोड़ लिया. प्रांत की राजनीति में वो किसानों के नेता के तौर पर स्थापित हुए. छोटूराम के विचार और राजनीति समय के साथ विकसित होते गए थे.

उनका कहना है कि चौधरी चरण सिंह और चौधरी देवीलाल भी सर छोटूराम की राजनीतिक स्ट्रैटजी का इस्तेमाल करने लगे थे.

जाट आरक्षण के दौरान कुछ जाट नेताओं द्वारा छोटूराम को सिर्फ जाट समुदाय का मसीहा बताने पर प्रोफेसर रणबीर सिंह का कहना है कि ये उनका खुद का एजेंडा है जिसके लिए वो किसी का भी इस्तेमाल कर सकते हैं.

मौजूदा जाट-गैर जाट की राजनीति पर कमेंट करते हुए उन्होंने कहा कि 1996-2014 तक हरियाणा में सिर्फ जाट मुख्यमंत्री ही रहा जिससे गैर जाटों में ये भावना मजबूत हुई कि उन्हें सत्ता से जान बूझकर अलग रखा गया है.

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