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Saturday, 21 December, 2024
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जनादेश के सम्मान का अर्थ ये नहीं कि जो चुनाव जीत गये हैं हम उन्हें माथे पर बैठा लें

विपक्ष को सीखना होगा कि मुद्दे को चिन्हित करके अपनी बात कहे, रचनात्मक और सकारात्मक ढंग से अपनी बात रखनी होगी और लोगों की आशा-आकांक्षा से जुड़ने वाली भाषा अख्तियार करनी होगी.

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क्या इस चुनाव के नतीजों से ऐसा कुछ झांकता है जो लगे कि भारत नाम के विचार की रक्षा की राजनीति के लिए अभी गुंजाइश बची हुई है? गुरुवार को आये चुनाव परिणाम की धमक थमने के साथ ही मैं इस सवाल का जवाब खोजने में लगा हूं. दिल में ये भी चल रहा है कि अब तक जो व्याख्या-विश्लेषण आये हैं, मेरे दोस्त-मुहीब उससे कहीं ज्यादा सधे और साफ विश्लेषण लेकर आयें.

मैंने इस चुनाव को भारत नाम के विचार पर जनादेश की संज्ञा दी थी मैंने मोदी को अबतक का सबसे झूठा प्रधानमंत्री करार दिया था. मैंने अपने निर्वाचन-क्षेत्र के मतदाताओं से कहा था कि चाहे और किसी को भी वोट दे देना लेकिन बीजेपी को वोट नहीं डालना. लेकिन मतदाताओं ने मेरी एक नहीं सुनी. अनेकानेक भारतीयों के समान मैं भी उदास, हताश और क्रुद्ध हूं.

मतदाताओं की आवाज़ को सुनना चाहिए

तो फिर इस घड़ी मेरा क्या फर्ज बनता है? क्या मैं अपने विश्वासों को तिलांजलि दे दूं, प्रधानमंत्री और उनकी पार्टी के बारे में अपनी राय बदल लूं- ये मान लूं कि जनादेश आ चुका है सो प्रधानमंत्री और उनकी पार्टी का ही भारत विषयक विचार ठीक है ? जीत के उन्माद से ग्रस्त ट्रोल-सेना तो यही चाहती है. क्या ऐसा ना करके विकल्प के रूप में मतदाता का गिरेबान अपनी मुट्ठी से जकड़कर उसे ये बताऊं कि आपलोग बड़े कूढ़मगज हैं? या फिर मतदाताओं को अज्ञानी मानकर उनपर तरस खाऊं, उन्हें ज्ञान दूं कि आपने जो फैसला लिया उसमें बड़ा खोट है ? या फिर, उदारमना लोगों की जमात में जा बैठूं और उनके सुर में सुर में मिलाकर ये अफसोस जताऊं कि आह! देखो, दुनिया दुर्गति के किस मुकाम तक आ पहुंची!


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ये दोनों प्रतिक्रियाएं राजनीति के लिए गुंजाइश नहीं छोड़तीं. लोकतंत्र का हामी होने का जो अर्थ होता है- ये दोनों प्रतिक्रियाएं उस अर्थ को बाधित करती हैं. जनादेश के सम्मान का अर्थ ये नहीं होता कि जो चुनाव जीत गये हैं हम उन्हें माथे पर बैठा लें, उनकी पूजा शुरू कर दें. कोई बहुसंख्या में है तो इसका मतलब ये नहीं कि हम उसे सच्चाई या इंसाफ का सरपंच बना लें. ऐसा ना तो किया जा सकता है और ना ही किया जाना चाहिए. साथ ही, जनादेश के सम्मान का मतलब उसे यथावत स्वीकार कर लेना भी नहीं होता. तकरीबन 60 करोड़ की तादाद में जनता ने अपनी अंगुलियों के सहारे फैसला सुनाया है. हमें इस फैसले के आगे सिर झुकाना चाहिए, मतदाताओं की आवाज़ को सुनना चाहिए. जनादेश का सम्मान करना लोकतांत्रिक मिजाज और व्यवहार के व्यक्ति पर ज़िम्मेदारी आयद करता है कि लोगों की आवाज़ को सुना जाय और सीखने, सोच-विचार करने तथा साहस के साथ कदम उठाने के लिए तैयार रहा जाय.

जनादेश के सम्मान का एक मतलब है- आना-कानी करने से बचना, बहानेबाजी की ओट ना करना, इस या उस बहाने कतराकर बच निकलने की प्रवृत्ति से छुटकारा पाना. ईवीएम और वीवीपीएटी को लेकर हमारे बीच अंतहीन बहस चली है. ऐसी कुछ बहसें चुनाव-परिणाम आने के बाद भी जारी हैं. क्या हम इन बहसों को अब खत्म नहीं कर सकते, मुझे लगता है, ऐसी बहसों को अब विराम देना चाहिए. बेशक, चुनाव आयोग ने पक्षपाती रवैया अपनाया. ये भी सच है कि चुनावी मुकाबले का अखाड़ा सबके लिए एक समान सुविधाजनक नहीं था.

बेशक, बीजेपी को कुबेर का खजाना हाथ लगा था और उसने जिस मात्रा में रुपये खर्च किये वह ना तो वैधानिक कहलाएगा और ना ही उन रुपयों की हम गिनती करना चाहें तो गिन सकते हैं. ये बात भी सही है कि बीजेपी ने चुनाव को एकदम पेशवराना अंदाज़ में लड़ा और इसके बरक्स विपक्ष का रवैया कुछ ऐसा था मानो किसी बैठे-ठाले ने यों ही मौज में रणभेरी बजायी हो. बीजेपी की सीट बेशक इन वजहों से भी बढ़ी है लेकिन हमें ये बात तो माननी ही पड़ेगी कि मोदी को जितनी बड़ी जीत मिली है उतनी बड़ी जीत के लिए सिर्फ इन्हीं बातों को एकमात्र कारण नहीं बताया जा सकता.

कांग्रेस की नाकामयाबी को देख पाना आसान है लेकिन दोष का ठीकरा सिर्फ कांग्रेस के मत्थे मढ़ना बेवकूफी है. कांग्रेस ही नहीं पूरा विपक्ष ही मुगालते और भुलावे में जकड़ा हुआ था. कुछ यही हाल हमारे जैसों का था जिन्होंने किसानों को आंदोलनी तेवर में सड़कों पर तो उतारा लेकिन जब बीजेपी ने चुनाव के अजेंडे को हथिया लिया तो कुछ खास नहीं कर पाये. फिर भी ये बात अपनी जगह कायम रहती है कि बीजेपी को मिली जीत का आकार विपक्ष की रणनीतिक गलती और दांवपेंच की खामियों की तुलना में कहीं ज्यादा बड़ा है. आखिर को हम सोच के इसी मुकाम पर पहुंचते हैं कि मोदी की जीत हुई है और ये जीत इसलिए हुई कि उनपर देश की देखभाल के लिए लोगों ने किसी और की तुलना में कहीं ज्यादा भरोसा किया है.

आखिर लोगों ने मोदी पर भरोसा किया तो क्यों ?

लेकिन आखिर लोगों ने मोदी पर भरोसा किया तो क्यों ? इसे समझने के लिए हमें मतदाताओं की बातों को बड़े गौर से सुनना होगा. हो सकता है, मतदाताओं के पास ठीक-ठीक जानकारी ना हो, वे गलतफहमी में हों, उनका ध्यान चुनाव के असली मुद्दे पर ना जमा हो, उनके मन में किसी किस्म का पूर्वाग्रह रहा हो लेकिन किसी शॉपिंग मॉल में खरीदारी करते वक्त ऐसा कई दफे हमलोगों के साथ भी होता है. पूरे मीडिया-परिदृश्य पर बीजेपी ने अपना दबदबा कायम कर रखा था और जनसंचार के साधनों पर उसका जिस हद तक नियंत्रण है उसे देखते हुए ऐसी कोई गुंजाइश ही नहीं बचती कि मतदाताओं को सही और युक्तिसंगत जानकारियां मिलतीं और वो खूब सोच-विचारकर मतदान के बारे में अपना फैसला लेता. फिर भी, हमें मतदाताओं की आवाज को खूब गौर से सुनना चाहिए.

एक होता है ‘ढुलमुल’ मतदाता जिसे चुनाव-विश्लेषक अपनी जबान में स्विंग वोटर कहते हैं. इस ‘ढुलमुल’ मतदाता ने ही सारा खेल किया और बाजी पलट दी. बीजेपी के साथ टिके रहने या फिर उसकी तरफ झुक जाने वाले इस मतदाता से आप पूछें तो वो आपसे कहता मिलेगा: ‘देखिए, मैं पिछले पांच साल में हुए अपने निजी नुकसान या फायदे की बात नहीं सोच रहा. मैं ये भी नहीं सोच रहा कि मेरे मुकामी सांसद या फिर राज्य सरकार का रिकार्ड बीते पांच सालों में क्या रहा है. मैं अपनी जाति या समुदाय के हिसाब से भी नहीं सोच रहा. मैं इससे इतर एक बड़ी तस्वीर को ध्यान में रखकर वोट कर रहा हूं- मैं राष्ट्रहित की सोचकर वोट कर रहा हूं. मैं ये देख रहा हूं कि कौन हमारे देश की खुशहाली, सुरक्षा और गौरव सुनिश्चित कर सकता है. सो, जो विकल्प मौजूद हैं, उन्हें देखते हुए मेरे मन में अपनी पसंद को लेकर कोई शंका नहीं है: नरेन्द्र मोदी की अगुवाई वाली बीजेपी की सरकार को एक मौका और मिलना चाहिए.’


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इन बातों को सुन लेने के बाद हमें सीखने पर जोर देना चाहिए. हम मतदाता की पसंद से असहमत हो सकते हैं लेकिन हम इस सच्चाई को दरकिनार नहीं कर सकते कि ज्यादातर मतदाताओं ने अपने निजी स्वार्थ के तंग दायरों से ऊपर उठकर वोट डाला है. मोदी ने एक बड़ी तस्वीर दिखाते हुए मतदाताओं का आह्वान किया- मतदाताओं को उन्होंने कोई ऐसी चीज दिखायी जिसकी ओर से विपक्ष विमुख था. बहुत सी बातें खारिज करने के काबिल हैं और मतदाताओं ने ऐसी कई बातों को खारिज किया, जैसे सामाजिक न्याय के नाम पर चलने वाला जातिवाद, धर्मनिरपेक्षता के नाम पर अल्पसंख्यकों को बंधुआ बनाये रखने की रीत और राष्ट्रहित के नाम पर चलने वाला अवसरवादी गठबंधन. ये बात ठीक है कि मोदी ने राष्ट्र का जो विचार लोगों के सामने पेश किया उसमें मुस्लिम आबादी की दखल नहीं और साथ ही राष्ट्र की सुरक्षा के बाबत उन्होंने चिन्ता जगायी जबकि चिन्ता का ऐसा कोई कारण मौजूद था नहीं लेकिन इस क्रम में वो राष्ट्रहित के एकमात्र रक्षक बनकर उभरे.

ये बात ठीक है कि उन्होंने अपने शासन के दौरान हुए कामधाम के असली रिकार्ड को छुपाया, उस तरफ से लोगों का ध्यान हटाया लेकिन इसके बावजूद वो आशा के प्रतीक के रुप में उनकी छवि कायम रही, लोग पिछले पांच साल को भूलकर अगले पांच साल के लिए उनसे उम्मीद बांधे रहे. ये बात भी ठीक है कि मोदी का चुनाव प्रचार-अभियान बड़ा विभाजनकारी था, उसमें नकारात्मकता बहुत ज्यादा थी लेकिन मतदाता सिर्फ विभाजनकारी भावनाओं से संचालित नहीं हो रहा था. दरअसल पीछे मुड़कर देखें तो ये भी लगता है कि अपने प्रचार अभियान में मोदी नकारात्मकता के स्वर ना फूंकते तो भी चुनाव जीत जाते. हा, इस चुनाव के निहितार्थ विध्वंसक हो सकते हैं (मैंने इस बाबत जो कुछ लिखा है उसे आप इस लिंक पर क्लिक करके देखे सकते हैं. लेकिन ये जनादेश जिस मंशा संचालित है, उसे खुराफाती करार नहीं दिया जा सकता.

अगर मतदाताओं की बात गौर से सुनकर उससे ये सबक सीखा जाय तो फिर इस सबक के आधार पर सोच-विचार करके कदम उठाना जरुरी है. इस जनादेश ने संवैधानिक मान-मूल्यों की हिफाजत करने वाली राजनीति के लिए दरवाजे बंद नहीं किये. लेकिन संविधान के मान-मूल्यों की हिफाजत की राजनीति अब पुराने ढर्रे पर नहीं हो सकती. विपक्ष अब अपने पुराने राह-रवैये से नहीं चल सकता. इस सिलसिले की पहली बात यह कि मोदी-विरोध की राजनीति, विरोध भर के लिए विरोध का ढुलमुल रवैया आत्मघाती साबित होगा. विपक्ष को सीखना होगा कि मुद्दे को चिन्हित करके अपनी बात कहे, रचनात्मक और सकारात्मक ढंग से अपनी बात रखनी होगी और लोगों की आशा-आकांक्षा से जुड़ने वाली भाषा अख्तियार करनी होगी. दूसरी बात, राष्ट्रीय हित, राष्ट्रीय सुरक्षा तथा राष्ट्रीय गौरव के मुद्दों से आंखें फेरे रहना विपक्ष के लिए मारक सिद्ध होने जा रहा है. तंगमिजाज, फूटमत पैदा करने वाले, युद्धोन्मादी राष्ट्रवाद से लड़ने का एक ही तरीका है कि हम अपने आजादी के आंदोलन को नजर में रखें और उससे सबक सीखते हुए सकारात्मक राष्ट्रवाद के तौर-तरीके अपनायें. तीसरी बात, हिन्दू-मुस्लिम भेद की राजनीति को जातिवाद और क्षेत्रवाद के मुहावरों से नहीं हराया जा सकता.

विपक्ष को आशाओं और उम्मीदों की वो सियासत अख्तियार करनी होगी जो हिन्दू-मुस्लिम भेद से ऊपर उठकर लोगों को अपील करे. चौथी बात, फिलहाल विपक्ष के पास मोदी की कद-काठी के आधे के बराबर भी ऐसा कोई नेता नहीं तो लोगों में विश्वास जगा सके और लोगों से संवाद कायम कर सके. भरोसा जगा सकने लायक चेहरे या कह लें कि लोगों से अपनापा कायम करने वाले नेता की जरुरत को विपक्ष अब दरकिनार करके नहीं चल सकता. इस सिलसिले की आखिरी बात भी इसी नुक्ते से जुड़ी है- विपक्ष अगर अपने को बुनियादी तौर पर नहीं बदलता तो फिर इस जनादेश के सामने एकदम ही आत्महीन होकर बैठा रहेगा. दरअसल विपक्ष अभी जिस हालत में है, उसी हालत में आगे भी बना रहता है तो ये बीजेपी के सत्ता में बने रहने की सबसे बड़ी गारंटी होगी. याद रहे कि मतदाता विपक्ष नहीं चाहता, वो विकल्प चाहता है.

और, साल 2019 के चुनाव के घटाटोप से झांकने वाली आशा की किरण भी यही है कि जनादेश ने राष्ट्रीय स्तर पर वैकल्पिक राजनीतिक ताकत खड़ा करने की जरुरत और संभावना की राह दिखायी है.

(अंग्रेज़ी में इस लेख को पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)

(योगेंद्र यादव राजनीतिक दल, स्वराज इंडिया के अध्यक्ष हैं.)

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