‘एक जमाना था कि इस इलाके को चीनी का कटोरा कहा जाता था. भाइयों-बहनों, लाल बहादुर शास्त्री ने कहा था, ‘जय जवान-जय किसान’. गन्ने की खेती करने वाले मेरे भाई बताओ, क्या कहीं जय किसान नजर आता है? कहीं किसान के जय की संभावना दिखती है क्या? इन्होंने कभी किसान का जय किया है क्या? अरे गन्ना किसान को पैसे तक नहीं दे पाते. वो जय जवान-जय किसान का नारा कैसे बोल सकते हैं? इनका तो नारा है, ‘मर जवान-मर किसान’. युद्ध में जितने जवान मरे हैं, उससे ज्यादा किसानों ने आत्महत्या की है.’
लोकसभा 2014 के प्रचार के दौरान नरेंद्र मोदी ने ये भाषण उत्तरप्रदेश के लखीमपुर जिले में दिया था. इस भाषण से लखीमपुर ही नहीं देश के किसानों ने सत्ता में बदलाव का मन बनाया. जज़बात को छेड़ा ही आखिर ऐसे गया था. बदलाव हुआ भी और नरेंद्र मोदी प्रधानमंत्री बन गए.
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किसानों की अहमियत कम नहीं थी. लिहाजा उन्होंने कृषि बीमा योजना के इर्द-गिर्द कई रैलियां कीं, खासतौर पर उत्तरप्रदेश में. बाद में किसान कल्याण रैलियों का भी सिलसिला चला. इसी के साथ सैनिकों के नाम पर जोश बढ़ाया. यहां तक कि पिछले दिनों पुलवामा में हुए आतंकी हमले के बाद ‘जवानों की शहादत व्यर्थ नहीं जाने देंगे’, देश नहीं झुकने दूंगा आदि वाक्यों से भी सेना की कुर्बानी पर रोमांचक तकरीरों का सिलसिला चला. अलबत्ता उनके कार्यकाल की हकीकत काफी उलट है.
पहले उन किसानों की बात कर ली जाए, जिनकी खातिर प्रधानमंत्री ने देशभर में रैलियां कीं. किसानों की ओर सरकार ने वाकई ध्यान दिया होता तो कर्नाटक के किसान साथी किसानों के कंकालों को लेकर भूखे-प्यासे महीनों दिल्ली की चौखट पर नहीं बैठते. क्या नहीं किया उन्होंने प्रधानमंत्री को दुखड़ा बताने को, लेकिन वे नहीं मिले. बल्कि उनकी तकलीफ का ये कहकर तमाशा बनाया गया कि वे विपक्ष के एजेंट हैं.
महाराष्ट्र के किसानों मीलों पैदल चलकर सरकार को सच्चाई बताने की कोशिश की. लेकिन उन्हें भी नक्सली कहकर दुत्कारा गया. संख्याबल से घबराकर महाराष्ट्र की भाजपा सरकार ने कोरे आश्वासन देकर टरका दिया. दूसरी बार उन्हें आने ही नहीं दिया. इसी तरह दिल्ली में उत्तरप्रदेश समेत कई जगह के किसान पहुंचे तो सरहद पर ही रोक दिया गया. पुलिसिया दमन करने की भी कोशिश की गई.
कम नहीं मरे किसान
पूर्ववर्ती कांग्रेस सरकार पर ‘मर जवान मर किसान’ का आरोप जडक़र सत्ता में पहुंचने वाली भाजपा ने क्या किया. हकीकत पर पर्दा डालने के लिए यहां भी आंकड़े छुपाने की कोशिश की. इंडिया टुडे की रिपोर्ट के अनुसार, नेशनल क्राइम रिकॉर्ड्स ब्यूरो में किसानों की आत्महत्या का आंकड़ा 2015 से अपडेट ही नहीं किया. राज्यों से मिला आधा अधूरा डाटा भी गृह मंत्रालय ने जारी नहीं किया.
छह जुलाई 2017 को सरकार ने सुप्रीम कोर्ट में एक हलफनामा दिया जिसने पोल खोल दी. हलफनामे के मुताबिक, वर्ष 2015 में लगभग 12,602 किसानों और खेती करने वालों ने आत्महत्या की. कर्नाटक में 1,569 ने, तेलंगाना में 1,400 और मध्य प्रदेश में 1,290 किसानों ने आत्महत्या की.
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सरकार के अंतिम आंकड़ों के अनुसार, भारत भर में किसानों की आत्महत्या संख्या पहले ही 11,458 तक पहुंच गई है. ऐसा तब है जब पश्चिम बंगाल और बिहार जैसे राज्यों का डेटा नहीं मिला. कर्नाटक में आत्महत्याओं में 2,067 की वृद्धि हुई है. महाराष्ट्र में आत्महत्याओं में मामूली रूप से 3,661 गिरावट आई है, जबकि मध्य प्रदेश में 1,321 की वृद्धि दर्ज की गई है. नवभारत टाइम्स की रिपोर्ट के अनुसार, विदर्भ के छह जिलों में जनवरी 2001 से अक्टूबर 2018 तक अलग-अलग कारणों से 15,629 किसानों ने आत्महत्या की.
जवान भी कम नहीं मरे
मोदी सरकार के कार्यकाल में सैनिकों की मौत भी सस्ती हो गई. शायद ही कोई दिन जाता हो जब सैनिकों की शहादत की खबर न आए. सिर्फ जम्मू कश्मीर में आतंकी घटनाओं में 176 फीसद का इजाफा हो गया. पुलवामा हमले से अब तक कश्मीर में सुरक्षाबलों के 65 से ज्यादा जवानों की शहादत हो गई. गृह मंत्रालय के आंकड़ों के अनुसार वर्ष 2014 से 2018 के बीच जम्मू-कश्मीर राज्य में आतंकी घटनाओं में 1315 लोगों की जानें गईं, जिनमें 25 फीसद यानी 339 सुरक्षाकर्मी थे, जबकि 138 आम नागरिकों की मौत हुई.
वर्ष 2014 से 2018 के बीच यहां तैनात सुरक्षाकर्मियों की मौत में 93 प्रतिशत बढ़ गई. इसके अलावा महज दो वर्ष 2014-15 में सियाचिन में तैनात सैनिकों में 3250 की मौत वहां के वातावरण और एक हद तक बदइंतजामी के चलते हो गई. इन वर्षों में 3305.14 करोड़ रुपये सियाचिन मोर्चे के बंदोबस्त पर खर्च हुआ. अगले वर्ष सियाचिन में 839 फौजी बिना जंग के मारे गए, जिनमें 33 अफसर थे और 54 इस दौरान कमीशंड हुए थे.
(आशीष सक्सेना स्वतंत्र पत्रकार हैं)