नई दिल्ली: देश में जब-जब जातिवादी राजनीति की बात होती है, तब तब उत्तर प्रदेश और बिहार जैसे राज्यों का नाम ज़ेहन में आता है. ऐसा इसलिए है क्योंकि हिंदी बोलने वाले इन राज्यों में जयप्रकाश नारायण द्वारा आपातकाल के दौरान किए गए आंदोलनों के बाद जो नेता जन्में उन्होंने जातिवाद की राजनीति को बढ़ावा दिया. ऐसी राजनीति करने वालों में लालू, मुलायम, नीतीश, मायावती और रामविलास जैसे दिग्गज नेताओं का नाम शामिल है.
वहीं, देश के अन्य राज्यों में भी जातिवादी राजनीति होती है. लेकिन उनकी बात उतनी प्रमुखता से नहीं होती है और मामला जब देश की राजधानी दिल्ली का हो या देश के सबसे विकसित राज्य गुजरात का तब तो जाति की बात होती ही नहीं है. लेकिन पड़ताल करने पर पता चलता है कि हाल के दिनों में इन दोनों राज्यों में भी जमकर जातिवादी राजनीति हुई है.
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आप ने धर्म पर कथित विवाद को दिया जाति का रंग
इसकी पड़ताल दिल्ली से शुरू करते हैं जहां आम आदमी पार्टीे (आप) के नागेंद्र शर्मा ने शनिवार को ट्वीट करके कांग्रेस पर गंभीर आरोप लगाए. उन्होंने लिखा कि कांग्रेस के असली चेहरे का पर्दाफाश हो गया. शर्मा का आरोप है कि ओखला से कांग्रेस विधायक आसिफ़ ख़ान ने आतिशि को यहूदी बताया है. वो कहते हैं कि आतिशी यहूदी नहीं हैं और ये एक झूठ है. वैसे तो विवाद आतिशी के धर्म को लेकर था, लेकिन दिल्ली के शिक्षा मंत्री सिसोदिया ने इसे जातिवादी मोड़ दे दिया.
Real face of Congress exposed :
Its habitual offender former Okhla MLA Asif Khan falsely calls @AtishiAAP a Jewi & says Muslims won't accept her. Shameless turncoat @ArvinderLovely who was till recently in BJP is sitting there. Here is the evidence : pic.twitter.com/Hn4Gt7EFBm— Nagendar Sharma (@sharmanagendar) April 27, 2019
सिसोदिया ने बताई आतिशी की जाति
कांग्रेस द्वारा आतिशी को कथित तौर पर यहूदी बताए जाने पर आप नेता मनीष सिसोदिया ने पलटवार किया. इससे जुड़े अपने जातिवादी ट्वीट में प्रगतिशील माने जाने वाले दिल्ली के शिक्षा मंत्री सिसोदिया लिखते हैं, ‘मुझे दुःख है कि बीजेपी और कांग्रेस मिलकर हमारी पूर्वी दिल्ली की प्रत्याशी आतिशी के धर्म को लेकर झूठ फैला रहे है. बीजेपी और कांग्रेस वालों! जान लो- ‘आतिशी सिंह’ है उसका पूरा नाम. राजपूतानी है. पक्की क्षत्राणी…झांसी की रानी है. बच के रहना. जीतेगी भी और इतिहास भी बनाएगी.’ ये पहला मौका नहीं है जब प्रगतिशील मानी जाने वाली आप ने दिल्ली में जातिवादी राजनीति की है. इस पर राजनीतिक टिप्णणीकार और दिल्ली विश्वविद्यालय के प्रोफेसर अपूर्वानंद कहते हैं, ‘पूरा विवाद इस बात का प्रतीक है कि भारत की राजनीति में किसी सामाजिक परिवर्तन का साहस नहीं है.’
मुझे दुःख है कि बीजेपी और कांग्रेस मिलकर हमारी पूर्वी दिल्ली की प्रत्याशी @AtishiAAP के धर्म को लेकर झूँठ फैला रहे है.
बीजेपी और कांग्रेस वालो! जान लो- 'आतिशी सिंह' है उसका पूरा नाम. राजपूतानी है. पक्की क्षत्राणी…झाँसी की रानी है. बच के रहना. जीतेगी भी और इतिहास भी बनाएगी.
— Manish Sisodia (@msisodia) April 27, 2019
आतिशी भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) के गौतम गंभीर के ख़िलाफ़ पूर्वी दिल्ली से आप की उम्मीदवार हैं. ये पहला मामला नहीं है जब उनकी पहचान को लेकर विवाद हुआ है. इसके पहले भी आरोप लगे हैं कि केजरीवाल ने आतिशी से उनके नाम से उनका सरनेम ‘मार्लेना’ हटाने को कहा था. इसके पीछे तर्क ये दिया गया था कि भाजपा वोटरों को बरगला रही है. भाजपा कह रही है कि मार्लेना नाम वाली आतिशी ईसाई हैं. कहा गया कि इसकी वजह से केजरीवाल को लगा कि पार्टी को वोटों का नुकसान हो सकता है. इसलिए उन्होंने आतिशी का सरनेम हटवा दिया. हालांकि, आप ने इन आरोपों से इंकार किया था. ताज़ा विवाद में सिसोदिया ने आतिशी की जाति बता दी.
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आतिशी विवाद पर अपूर्वानंद कहते हैं, ‘आतिशी का सरनेम उनके परिवार वालों ने मार्क्स और लेनिन के नाम को मिलाकर मर्लेना रखा था.’ आतिशी के माता-पिता दोनों ही वामपंथी रहे हैं और दोनों ने सोचा कि वो अपनी बेटी के लिए ये नई पहचान बनाएंगे. लेकिन भाजपा की राजनीति ऐसी है कि आपके नाम से खुलकर हिंदू होने का भाव आना चाहिए और अगर ऐसा नहीं होता तो वो आपकी पहचान को संदेहास्पद बना देते हैं. अपूर्वानंद आगे कहते हैं कि ऐसी राजनीति की वजह से बाकी लोग बैकफुट पर चले जाते हैं और फिर वही पहचान की जातिवादी राजनीति होने लगती है.
2015 विधानसभा से पहले बनिया बने थे केजरीवाल
सिसोदिया के इस जातिवादी ट्वीट को दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल का समर्थन है. उन्होंने इस ट्वीट को रीट्वीट किया है. आपको याद होगा कि 2015 के दिल्ली विधानसभा चुनाव में अरविंद केजरीवाल ने अपनी जाति का कार्ड खेला था. उनका बयान था, ‘मैं बनिया हूं और धंधा समझात हूं.’ उनके इस बयान के ख़ूब आलोचना हुई थी और कहा गया था कि मुद्दों की राजनीति का दावा करने वाली आप भी जातिवादी राजनीति की राह पर चल निकली.
2014 के आम चुनाव के दौरान पत्रकारिता से बिना कूलिंग ऑफ़ पीरियड के राजनीति में कूदे आशुतोष के साथ भी कुछ-कुछ मार्लेना जैसा ही हुआ था. 29 अगस्त 2018 के एक ट्वीट में उन्होंने आरोप लगाया, ‘मेरी 23 साल की पत्रकारिता में किसी ने मेरी जाति या सरनेम नहीं पूछा. लोग मुझे मेरे नाम से जानते थे.’ वो आगे लिखते हैं कि 2014 में जब उन्हें लोकसभा का उम्मीदवार बनाया गया तो उनके विरोध के बावजूद उनके सरनेम को प्रमुखता से सबके सामने रखा गया. बाद में उन्हें बताया गया, ‘सर, आप जीतोगे कैसे, आपकी जाति के यहां काफी वोट हैं!’
इससे साफ है कि दिल्ली में मुद्दों की राजनीति का दावा करने वाली आम आदमी पार्टी को जब-जब मौका मिला तब इन्होंने जातिवादी राजनीति की. आतिशी का सरनेम हटवाना कोई अपवाद नहीं है. यहां केजरीवाल और आशुतोष के बनिया होने का उदाहरण दिया जा चुका है. वहीं, केजरीवाल ने दिल्ली में वोटों के डिलीट होने पर भी जाति और पहचान की राजनीति करने का मौका हाथ से नहीं जाने दिया.
अपूर्वानंद कहते हैं, ‘भले ही बात सिर्फ यूपी-बिहार की जातिवादी राजनीति की होती हो. लेकिन आप दक्षिण भारत से उत्तर पूर्व भारत तक में जाएंगे तो जातिवाद वहां की राजनीति में भी है.’ वो कहते हैं कि जाति तो महानगरों की भी सच्चाई है. इसके लिए देश की राजधानी का उदाहरण देते हुए वो कहते हैं कि दिल्ली अपने आप में एक पुरानी ग्रामीण मानसिकता का शहर है. दिल्ली के छात्र संघ के चुनाव में जाट-गुर्जर राजनीति का खेल खुलकर दिखाई देता है. हालांकि, वो कहते हैं कि छात्र राजनीति को जातिवाद से परे माना जाता है और वामपंथी छात्र राजनीति इसका उदाहरण है.
पीएम मोदी ने खेला अति पिछड़ा कार्ड
वैसे भाजपा जातिवादी राजनीति की जगह सांप्रदायिक राजनीति करती है. इसमें पार्टी का फायदा है. भाजपा को पता है कि ब्राह्मण-बनिया वोट बैंक की राजनीति करने वाली इस पार्टी की ताकत जातिवादी राजनीति नहीं है. लेकिन पार्टी को जब-जब मौका मिला है, इसने जातिवादी राजनीति का मौका नहीं छोड़ा. अभी हाल ही में जब बसपा सुप्रीमो मायावती ने पीएम नरेंद्र मोदी के पिछड़े होने पर सवाल उठाया तो पीएम ने ख़ुद को अति पिछड़ा बता दिया. उन्होंने तो ये तक कहा कि उनके राज्य गुजरात के गांवों में उनकी जाति के एक-दो परिवारों के ही घर होते हैं.
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अपूर्वानंद कहते हैं, ‘बिहार में जब मोदी 2015 में गए थे तो उन्होंने कहा था कि मैं यदुवंशियों को बताना चाहता हूं कि मैं कृष्ण की नगरी से आया हूं.’ यहां मोदी जातिवादी राजनीति कर रहे थे. वो मोदी द्वारा एक रैली में सम्राट अशोक को कुशवाहों का पूर्वज बताए जाने का भी उदाहरण देते हैं. वो ये भी बताते हैं कि जब सीपी ठाकुर ने रामधारी सिंह दिनकर पर एक कार्यक्रम का आयोजन किया था तो इस कार्यक्रम में दिनकर के भूमिहार होने पर ज़ोर दिया गया था. वो आगे कहते हैं कि सहूलियत के हिसाब से भाजपा जाति की राजनीति करती रही है.
मोदी पहले भी खेल चुके हैं पिछड़ा कार्ड
मायावती के हमले के बाद ये पहला मौका नहीं है जब पीएम मोदी ने ओबीसी कार्ड खेला है. गुजरात से आने वाले पीएम नरेंद्र मोदी ने 2014 के आम चुनाव में भी ख़ुद को ओबीसी बताया था. 2014 के चुनाव अभियान के दौरान राज्य के लखीमपुर खीरी के मतदाताओं को उन्होंने कहा था कि ये भीम राव अंबेडकर की देन है कि मोदी के जैसा कोई ओबीसी आज उनके सामने खड़ा है.
गुजरात में जातिवाद का बोलबाला
गुजरात से बिहार तक जातिवादी राजनीति का बोलबाला है. लेकिन गुजरात की जातवादी राजनीति की बात नहीं होती है. बिहार के ताज़ा मामले में भाजपा ने कन्हैया कुमार के ख़िलाफ़ नावादा से सांसद रहे गिरिराज सिंह को उतारा. इसके पीछे पार्टी का जातवादी गणित बहुत बड़ी वजह थी. दरअसल, भूमिहार जाति से आने वाले कन्हैया बेगूसराय की उस सीट से लड़ रहे हैं जो भूमिहार बहुल सीट है. भाजपा ने इसी को ध्यान में रखते हुए इसी सीट पर इसी जाति से आने वाले गिरिराज को भेजा. इसे नहीं भूलना चाहिए की इस तरह की जातिवादी राजनीति उस पीएम के नेतृत्व में हो रही है जो उत्तर प्रदेश और बिहार की क्षेत्रिय पार्टियों पर वोटबैंक की राजनीति करने का आरोप लगाते हैं.
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अपूर्वानंद कहते हैं कि भाजपा जाति की तो राजनीति करती है. लेकिन हिंदू धर्म की सवर्ण, पिछड़ों और दलितों जैसी जातियों से पार्टी एक काम ये करवाती है कि मुस्लिम और ईसाई विरोध के नाम पर वो इन सबको एक झंडे के तले लाने की कोशिश करती है. भाजपा के जातिवाद के लिए उन्होंने हरियाणा का उदाहरण देते हुए कहा कि यहां भाजपा 35 बिरादरी बनाम एक बिरादरी की बात करती है. वो कहते हैं कि यहां 36 बिरादरी होती है और भाजपा ने यहां जाटों को बाकी की 35 बिरादरियों के ख़िलाफ़ खड़ा किया.
जाति-धर्म के चक्कर में मुद्दा विहीन हो गया था 2017 का गुजरात चुनाव
2017 का गुजरात विधानसभा चुनाव मुद्दा विहीन चुनाव था और पूरी तरह से जातिवाद और सांप्रदायिकता से भरा हुआ था. एक तरफ कांग्रेस से जुड़े पटेल समुदाय के नेता हार्दिक पटेल, दलित नेता जिग्नेश मेवानी और ओबीसी समुदाय का नेतृत्व करने वाले अल्पेश ठाकोर अपनी-अपनी जातियों की राजनीति कर रहे थे. वहीं, भाजपा ने इस चुनाव को पूरी तरह पाकिस्तान और राम मंदिर पर लड़ने की कोशिश की. अपूर्वानंद कहते हैं कि बीजेपी को जातिवादी राजनीति से बाहर रखना सही नहीं होगा. वो गुजरात से लेकर बंगाल और असम तक जातिवादी राजनीति कर रहे हैं. बिहार का उदाहरण देते हुए वो कहते हैं कि बेगूसराय में कन्हैया के ख़िलाफ़ बीजेपी ने ऐसे उम्मीदवार को खड़ा किया जो इस सीट पर काफी संख्या में मौजूद भूमिहारों की जाति से आते हैं. वो ये भी कहते हैं कि बिहार की हर सीट पर जिस हिसाब से भाजपा ने उम्मीदवार उतारे हैं उसे देखने पर पता चलता है कि भाजपा जमकर जातिवादी राजनीति करती है.
फिलहाल ओबीसी राजनीति करने वाले अल्पेश ठाकोर को भाजपा ने अपनी पार्टी में शामिल कर लिया है. वहीं, जिस राज्य को जातिवादी राजनीति से जोड़कर नहीं देखा जाता वहां के हार्दिक पटेल ने आरक्षण के लिए लंबा आंदोलन चलाया. इस आंदोलन में हुए हिंसा का अंदाज़ा आप इस बात से लगा सकते हैं कि इससे जुड़ी हिंसा के मामले में हार्दिक पर देशद्रोह का मुकदमा चल रहा है. वहीं, एक पार्टी के तौर पर भाजपा के हाथ जब-जब बड़े पद पर बिठाने के लिए लोगों को चुनने का मौका मिला तो पार्टी ज़्यादातर सवर्णों को ही चुना. उदाहरण के लिए जब देश के सबसे बड़े राज्य उत्तर प्रदेश में मुख्यमंत्री चुनने का मौका आया तो ख़ुद को अति पिछड़ा बताने वाले पीएम मोदी की पार्टी ने मठ से आने वाले सवर्ण जाति के योगी आदित्यनाथ को सीएम बना दिया.
वामपंथी पार्टियों पर लगता रहा है ब्राह्मणवादी नेतृत्व का आरोप
यही नहीं, पश्चिम बंगाल से लेकर केरल तक लेफ्ट की राजनीति पर ब्राह्मणवादी नेतृत्व के आरोप लगे हैं. वैसे तो लेफ्ट का दावा रहा है कि वो जातिवादी राजीनित नहीं करते और उनकी राजनीति के केंद्र में वर्ग होता है. लेकिन जब आप इसके नेतृत्व की जाति पर नज़र डालेंगे तो आपको ये आरोप सही नज़र आएंगे. वामपंथी पार्टियों में अहम फैसले लेने वाली बॉडी को पोलितब्यूरो कहते हैं. स्क्रॉल के एक लेख में लिखा है कि अगर आप पोलितब्यूरो में शामिल लोगों के सरनेम पर नज़र डालेंगे तो आपको भट्टाचार्या, बासु और मित्रा जैसे सरनेम मिलेंगे और ये सारे सरनेम सवर्णों के सरनेम हैं.
लेफ्ट पार्टियों के ब्राह्मणवादी नेतृत्व की वजह से ही दलित जाति से आने वालों ने अंबेडकराइट स्टूडेंट यूनियन बना लिया और लाल की जगह नीले झंडे को उठा लिया. इन्होंने अपने नारे से ‘लाल सलाम’ तो नहीं हटाया लेकिन संविधान का जनक कहे जाने वाले भीम राव अंबेडकर के नाम का भीम जोड़कर अपने नारे को ‘जय भीम-लाल सलाम’ बना लिया. भारतीय राजनीति में वामपंथियों के फेल के पीछे की एक सबसे बड़ी वजह ये भी बताई जाती है कि भारतीय समाज में जाति जैसी कड़वी सच्चाई को ये अपने ब्राह्मणवादी नेतृत्व की वजह से नकारते रहे और राज्यों में इसी वजह से इनकी तुलना में क्षेत्रिय पार्टियां सफल रहीं क्योंकि को जातिवादी राजनीति करती हैं.
यही हाल बेगूसराय से चुनाव लड़ रहे वर्तमान सीपीआई कैंडिडेट कन्हैया कुमार का है. उनपर भी उनकी जाति की वजह से जमकर निशाना साधा गया. वो बिहार में दबंग मानी जाने वाली भूमिहार जाति से आते हैं. हालांकि, उन्होंने आतिशी या पीएम मोदी की तरह कभी अपनी जाति ख़ुद से सार्वजनिक नहीं की. वहीं, जैसा कि हम आपको बता चुके हैं कि इस सीट से भाजपा ने जानबूझ कर गिरिराज सिंह को उतारा था क्योंकि वो भूमिहार हैं. इससे पता चलता है कि कैसे जाति की राजनीति नहीं करने का दावा करने वाली भाजपा और गुजरात से आने वाले मोदी ने जातिवादी राजनीति का कोई मौका नहीं छोड़ा.
लेफ्ट के ब्राह्मणवादी नेतृत्व के पीछे अपूर्वानंद एतिहासिक कारण बताते हैं. वो कहते हैं कि एतिहासिक रूप से शिक्षा सवर्णों के पास सबसे पहले आई. शिक्षा आपको अपनी ग़लतियों को समझने में मदद करती है. वामपंथ की ओर बढ़े सवर्ण शिक्षित थे और उन्हें अपने समाज की बुराईयां नज़र आईं. वो कहते हैं कि राहुल सांकृत्यायन से लेकर सहजानंद सरस्वति तक सब सवर्ण थे. लेकिन इन्होंने शिक्षा के जरिए समाज में मौजूद उत्पीड़न को समझा और अपना पाला बदल लिया यानी वो अपनी जाति के ख़िलाफ़ चले गए. वो बताते हैं कि सहजानंद सरस्वति तो भूमिहार थे. भूमिहार सामंतियों की जाति है. लेकिन शिक्षा ने इन सबका परिचय वास्विकता से करवाया और इस तरह को वामपंथी बने.
सवर्ण नेतृत्व वाले अपने जाति और वर्ग के ख़िलाफ़ जाकर वामपंथी बने. वहीं, वामपंथियों के राजनीति में असफल होने की वजह बताते हुए वो कहते हैं कि भारतीय वामपंथ ये समझने में असफल रहा कि भारत में जाति जो है वो वर्ग का काम करती है. वो कहते हैं कि लेफ्ट ने इसकी तरफ आंखें मूंद ली, लेकिन आंखें मूंद लेने से सच्चाई नहीं बदली जा सकती है. वो लेफ्ट के फेल होने की एक वजह से भी बताते हैं कि जो पृथक तबका है उसके लिए सिर्फ राजनीति नहीं की जानी चाहिए बल्कि उनका नेतृत्व भी होना चाहिए.
अंबेडकराइट छात्रों संघों के उदय के पीछे भी वो लेफ्ट के ब्राह्मणवादी नेतृत्व को वजह मानते हैं. वो कहते हैं कि वामपंथी सवर्ण अगर बाकी की जातियों के लिए बोल रहे हैं तो ये अच्छी बात है. लेकिन बाकी की जातियों से आने वाले लोग अगर अपने बारे में नहीं बोल पाते हैं तो उनके भीतर एक हीनता का भान पैदा होता है जो कि लेफ्ट में टूट का एक कारण है. इसे वो लेफ्ट के समर्थकों में हुई टूट की एक बड़ी वजह बताते हैं. यानी अगर इनकी माने तो लेफ्ट पार्टियों के हाशिए पर आने में ब्राह्मणवादी नेतृत्व एक बड़ा कारण रहा है,
ऐसे में आप जब देश भर की राजनीति पर नज़र डालेंगे तो पाएंगे की कोई भी ऐसा हिस्सा नहीं है जो जाति की पकड़ से बाहर हो. चाहे विकास और अच्छे दिन का दावा करने वाले पीएम मोदी या उनके राज्य गुजरात का मामला हो या दिल्ली में मुद्दों की राजनीति करने वाले अरविंद केजरीवाल का या जाति को नहीं मानने की बात करने वाले लेफ्ट का. ये सारे के सारे जाति की जकड़ में हैं और मामला बस इनकी सहूलियत का है.