उत्तर भारत की राजनीति में कुछ बड़े बदलाव हो रहे हैं, जो आम तौर पर समाजशास्त्रियों की नजरों से अभी ओझल हैं. इन बदलावों का असर बड़ा हो सकता है और इसका पूरे देश पर असर पड़ सकता है. इस लेख में मैं इस बदलाव के कुछ तथ्यों को रेखांकित करने की कोशिश करूंगा. हालांकि शोधार्थी इस पर और अध्ययन कर सकते हैं.
उत्तर भारत की राजनीति के एक प्रमुख केंद्र बिहार के पूर्व मुख्यमंत्री लालू प्रसाद यादव इन दिनों जेल में हैं. उनके पुत्र और आरजेडी नेता तेजस्वी यादव ने पार्टी और बिहार में विपक्ष की कमान संभाल ली है. उन्होंने कांग्रेस के साथ ही, उपेंद्र कुशवाहा की राष्ट्रीय लोक समता पार्टी, मुकेश सहनी की ‘वीआईपी’ पार्टी, जीतनराम मांझी की ‘हम’ पार्टी और भाकपा-माले के साथ मिलकर एक बड़ा सामाजिक गुलदस्ता सजाया है. कांग्रेस के अलावा ये सभी नेता और दल बिहार की वंचित जातियों का प्रतिनिधित्व करते हैं.
वहीं, उत्तर प्रदेश में दलितों व पिछड़ो की राजनीति करने वाली समाजवादी और बहुजन समाज पार्टी पुराने गिले-शिकवे भूलते हुए साझा गठबंधन बनाकर और राष्ट्रीय लोकदल के साथ मिलकर चुनाव मैदान में हैं. मैनपुरी में संयुक्त रैली में मायावती ने मुलायम सिंह यादव के लिए वोट मांगे और उन्हें पिछड़ों का सबसे प्रमुख नेता करार दिया. इनकी रैलियों में उमंग और उत्साह से भरपूर अपार जनसैलाब उमड़ रहा है. मानो कोई बड़ा उत्सव चल रहा हो और ये सब राष्ट्रीय मीडिया की नजरों से बहुत दूर है.
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उत्तर भारत में विशेषकर उत्तर प्रदेश और कुछ हद तक बिहार में हो रहे राजनीतिक घटनाक्रम को कैसे देखा जाना चाहिये? निश्चित ही विद्वानों और राजनीतिक विश्लेषकों के इसे देखने व समझने के अपने-अपने तर्क और नजरिए होंगे. मेरे लिए ये घटनाक्रम एक बड़े सामाजिक इन्कलाब की आहट हैं. एक ऐसा इन्कलाब जिसका सपना डॉ बाबासाहेब अम्बेडकर और डॉ राम मनोहर लोहिया ने कभी साझा रूप में देखने की कोशिश की थी. ऐसा इन्कलाब जिसकी कोशिश मान्यवर कांशीराम ताउम्र करते रहें.
मै सामाजिक इन्कलाब की आहट की बात किसी भावुकतावश अथवा दो पार्टियों में हुए गठबंधन के आधार पर नहीं कह रहा हूं, बल्कि ऐसा कहने के पीछे कई ठोस तर्क भी हैं-
पहला तर्क गठबंधन की प्रकृति व इतिहास में छुपा हुआ है. आखिर यह गठबंधन क्यों हुआ? फौरी तौर पर आप इसे मजबूरी या अवसरवाद की राजनीति का गठबंधन कह सकते हैं. लेकिन यह आधा-अधूरा सत्य है. दरसल यह राजनीतिक गठबंधन कम और सामाजिक गठबंधन ज्यादा है. राजनेताओ के सामाजिक इंजीनियरिंग तथा मैकेनिकल तत्वों से बने राजनीतिक गठबंधन से कहीं अधिक, यह दलित-बहुजन समाज के साझे दर्द, तड़प, उम्मीद, ख्वाब और दिलों से निकला गठबंधन है.
सवाल उठता है कि ये समाज समूह क्यों गठजोड़ कर रहे हैं? क्योंकि पिछले पांच सालों में तमाम ऐसी घटनाएं हुई हैं, जिसका साझा दर्द दलित-पिछड़ा, आदिवादी व अल्पसंख्यक समाज ने बड़े पैमाने पर झेला है – चाहे वह नोटबंदी हो, जीएसटी, मंहगाई व बेरोजगारी हो अथवा सरकारी मशीनरी स्कूल, अस्पताल, पुलिस की गिरती साख हो. इतना ही नहीं, कई ऐसे मौके आए जब इन समुदायों ने आगे बढ़कर साझी लड़ाई भी लड़ी. एससी-एसटी प्रिवेंशन ऑफ एट्रोसिटी एक्ट में संशोधन के खिलाफ लड़ाई और विश्वविद्यालयो में प्रोफेसर की नियुक्ति हेतु लाए गये आरक्षण विरोधी विभागवार (13प्वाइंट) रोस्टर के खिलाफ लड़ाई अपने साझेपन के कारण महत्वपूर्ण रही है.
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इन दो मुद्दों ने इस समाज के आम जनमानस से लेकर बुद्धजीवियों के बीच एक एका कायम की है. रोस्टर आन्दोलन का हिस्सा होने और बेहद करीब से देखने के नाते मैं यह बात दावे के साथ कहा सकता हूं कि देश के विश्वविद्यालयों – विशेषकर दिल्ली विश्वविद्यालय, जवाहरलाल विश्वविद्यालय, जामिया मिल्लिया इस्लामिया और बनारस हिन्दू विश्विद्यालय के दलित बहुजन शिक्षकों, छात्रों, शोधार्थियों के बीच बनी इस एकता ने न केवल सपा-बसपा के सांसदों को 13प्वाइंट रोस्टर विरोध की तख्ती लेकर संसद में एक साथ खड़ा किया, बल्कि गठबंधन के वर्तमान स्वरूप के लिए प्रेरित भी किया.
गठबंधन के इतिहास और प्रकृति के अलावा दूसरा तर्क जो इसे महज राजनीतिक गठजोड़ से अलग बनाता है वह है इसकी कार्यप्रणाली. जिस तरह से दोनों दलों के शीर्ष नेता, कार्यकर्ता और मतदाता एक दूसरे के प्रति सम्मान व जुड़ाव दिखा रहे हैं तथा साझा रैलियां व कार्यक्रम कर रहे हैं यह अपने आप में एक अनोखा प्रयोग है. इससे कई उम्मीदें जगती हैं.
हाल ही में मैनपुरी की साझा रैली में एक तरफ बसपा सुप्रीमो मायावती ने पुरानी तल्खी भुलाकर मुलायम सिंह यादव के लिए समर्थन व सम्मान दिखाया, वहीं दूसरी तरफ अखिलेश यादव ने मायावती को मुख्य अतिथि के रूप में सम्मान दिया. इससे भी कहीं अधिक आकर्षक है अपने समाज के मुद्दों पर दोनों नेताओ का मुखर होकर बोलना. मायावती से लेकर अखिलेश यादव तक, उधर बिहार में तेजस्वी यादव सामाजिक न्याय, सामाजिक भाईचारे के मुद्दे पर धारदार व स्पष्टता से बोलते दिखाई पड़ते है. यह कोई साधारण बात नहीं है.
इतिहास गवाह है कि दक्षिण और मध्य भारत में हुए सामाजिक आन्दोलनों (दलित पैंथर व द्रविड़ आंदोलनों) के इतर, उत्तर भारत में बड़ा सामाजिक बदलाव हमेशा राज्य व राजनीति के साए में हुआ है. इस बार जो एकता बन रही है, उसका नतीजा क्या होगा ये तो भविष्य के गर्भ में है, लेकिन ये एकता कई तरह की संभावनाओं के दरवाजे खोलने में सक्षम है.
(लेखक दिल्ली विश्वविद्यालय में राजनीतिशास्त्र पढ़ाते हैं और उत्तर भारत में दलित राजनीति के विशेषज्ञ हैं)