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Sunday, 22 December, 2024
होम2019 लोकसभा चुनावबिहार में लेनिनग्राद से मिलता-जुलता कुछ है तो वो बेगूसराय नहीं, भोजपुर है

बिहार में लेनिनग्राद से मिलता-जुलता कुछ है तो वो बेगूसराय नहीं, भोजपुर है

कन्हैया कुमार के कम्युनिस्ट पार्टी के टिकट पर बेगूसराय से चुनाव लड़ने को लेकर वामपंथियों में काफी उत्साह है. बिहार में वामपंथियों पर नजर रखनी है तो आरा सीट को देखिए.

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बिहार में सीपीआई यानी कम्युनिस्ट पार्टी के लोग बेगूसराय को लेनिनग्राद और मधुबनी को मास्को कहते हैं. इसका कोई कारण नहीं है. इन दोनों जगहों में लेनिननग्राद या मास्को के कोई लक्षण नहीं हैं. कम्युनिस्ट आंदोलन की दृष्टि से ये बेहद कमजोर इलाके रहे हैं.

अब तो बिहार में कम्युनिस्ट आंदोलन अपने पिछले अच्छे दिनों की छाया भर है, लेकिन कम्युनिस्ट आंदोलन के अच्छे दिनों में भी बेगूसराय में कोई वामपंथी आंदोलन नहीं था. लेनिनग्राद तो लेनिन के नेतृत्व में रूस में 1917 में हुई कम्युनिस्ट क्रांति का केंद्र था, जिसने अगले 60-70 साल तक यूरोप ही नहीं, पूरी दुनिया को प्रभावित किया. लेकिन बेगूसराय में न तो कोई क्रांति हुई है और न ही निकट भविष्य में वहां किसी क्रांति के होने के कोई आसार हैं.

फिर बेगूसराय को लेकर इतना रोमांटिसिज्म क्यों? दरअसल बेगूसराय बिहार के उन इलाकों में रहा है जहां अविभाजित कम्युनिस्ट पार्टी का कुछ असर हुआ करता था. कभी कभार सीपीआई की विधायक की सीट यहां से निकल जाती थी.


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इस असर की सतह को अगर खुरचकर देखें तो और भी कुछ दिलचस्प बातें दिखेंगी. दरअसल यह असर कम्युनिस्ट पार्टी का नहीं, इस इलाके में प्रभावशाली एक जाति – भूमिहारों का है. अब चूंकि बिहार में कम्युनिस्ट पार्टी के नेतृत्व में भूमिहार हमेशा से प्रभावी रहे हैं, इसलिए भूमिहारों के नेतृत्व वाली पार्टी के असर को कम्युनिस्ट पार्टी का असर मान लिया गया और इस तरह बेगूसराय बगैर सर्वहारा या जनवादी क्रांति किए ही लेनिनग्राद बन गया.

बेगूसराय पर भूमिहारों का प्रभाव सीपीआई का मोहताज नहीं है. यह पार्टी पॉलिटिक्स से ऊपर की बात है. इस लोकसभा सीट से अलग अलग पार्टियों से भूमिहार-ब्राह्मण ही जीतते रहे हैं. सिर्फ एक बार 2009 में यहां से जेडीयू के टिकट पर एक मुसलमान जीत गया था, लेकिन 2014 में फिर से भूमिहारों की वापसी हुई. यहां से बीजेपी के टिकट पर भोला सिंह जीत गए. अब इससे क्या फर्क पड़ता है कि वे पहले सीपीआई में थे.

इसलिए यहां से कन्हैया कुमार चुनाव में कैसा प्रदर्शन करते हैं, इससे बेगूसराय की सामाजिक हकीकत नहीं बदलेगी. क्रांति तो कतई नहीं होगी.

बिहार में क्रांति की दिशा में एकमात्र, लेकिन छोटी कोशिश भोजपुर और साथ लगे मध्य बिहार के इलाकों में 1970 के आसपास के दौर में हुई. इसे हालांकि बाद में सरकार और स्थानीय भूमिपतियों ने कुचल दिया, लेकिन इसकी दास्तान कई एकेडमिक रचनाओं और कथा-कहानियों में दर्ज है. इस आंदोलन के नेता जगदीश मास्टर और रामनरेश राम जैसे लोग यानी दलित और पिछड़े थे. ये नक्सलबाड़ी आंदोलन के दौर की बात है. बेगूसराय को इस बात से फर्क भी नहीं पड़ा कि मध्य बिहार में ऐसा कोई आंदोलन हो रहा है. नक्सल आंदोलन बेगूसराय के पास मुजफ्फरपुर के मुशहरी तक पहुंचा और इसके प्रभाव को खत्म करने के लिए जयप्रकाश नारायण भी मुशहरी पहुंचे, लेकिन बेगूसराय को ये आंदोलन छू भी नहीं सका.

वहीं, आरा से 1989 में भाकपा माले से रामेश्वर प्रसाद लोकसभा का चुनाव भी जीत गए. इस मामले में भी आरा का रेकॉर्ड बेगूसराय से अच्छा है. कम्युनिस्ट आंदोलन की दृष्टि से बेगूसराय यथास्थिति की जमीन साबित हुआ है.


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बल्कि सामाजिक परिवर्तन की दृष्टि से देखें तो बेगूसराय क्रांतिविरोध या परिवर्तन को रोकने वाली जमीन है. जब पूरे हिंदी प्रदेश खासकर गंगा-यमुना के मैदान यूपी-बिहार में राजनीति में पिछड़ी और दलित जातियों का उभार हो रहा था, तब बेगूसराय चुनाव-दर-चुनाव किसी न किसी भूमिहार-ब्राह्मण को चुनकर लोकसभा भेज रहा था. कई बार तो जीतने वाला और हारने वाला, दोनो भूमिहार हुए. वह भी एक ऐसी सीट पर जिस पर सबसे ज्यादा वोटर अति पिछड़े और मुसलमान हैं.

सवाल उठता है कि बिहार में और खासकर बेगूसराय जैसी जगहों पर भूमिहार कम्युनिस्ट पार्टी से क्यों जुड़े और खासकर पार्टी नेतृत्व पर हमेशा उनका दबदबा क्यों रहा? इसकी एक संभावित वजह ये है कि आजादी से पहले स्वामी सहजानंद सरस्वती ने भूमिहारों को संगठित करने की कोशिश की. उन्होंने भूमिहार ब्राह्मण सभा के तहत भूमिहारों को संगठित किया. बाद में वे किसान आंदोलन से जुड़े और अखिल भारतीय किसान सभा के नेता बने. किसान सभा बाद में सीपीआई से जुड़ गई. हो सकता है कि इसी क्रम में बिहार में कम्युनिस्ट पार्टी का नेतृत्व भूमिहारों के हाथ में चला गया.

ये अपने आप में अंतर्विरोधी स्थिति है कि जिस पार्टी को भूमिहीनों और गरीब किसानों का नेतृत्व करना था, उस पार्टी का अपना नेतृत्व एक ऐसी जाति के पास रहा, जिसके भूमिपतियों की अच्छी-खासी संख्या है. इन भूमिपतियों का खेत मजदूरों और गरीब किसानों से टकराव हुआ तो भूमिहार भूस्वामियों के एक हिस्से ने रणवीर सेना बना ली, जिसने बिहार में सबके क्रूर नरसंहारों को अंजाम दिया. रणवीर सेना के चीफ ब्रह्मेश्वर सिंह को भूमिहारों का एक हिस्सा नायक मानता है और आपसी टकराव में जब ब्रह्मेश्वर सिंह मारा गया तो उनके स्वजातीय समर्थकों ने पटना की सड़कों पर कोहराम मचा दिया था.

कन्हैया के पास ये विकल्प है कि वे भूमिहार जाति के अंदर समाज सुधार का आंदोलन चलाते और उसे प्रगतिशील बनाते. उनकी उन प्रवित्तियों को रोकते जो उन्हें रणवीर सेना बनाने की ओर ले जाती है. उम्मीद है कि वे आगे चलकर ये कर पाएंगे.

ये चुनावी हार-जीत से बड़ी चीज है.

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं.)

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