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Saturday, 21 December, 2024
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नोटा का बटन दबाना वोट की बर्बादी या भविष्य की ‘क्रांति’ की ओर एक कदम?

पूर्व चुनाव आयुक्त ओपी रावत से जब पूछा गया कि नोटा को लेकर एक आम धारण है कि ये पूरी तरह से वोट की बर्बादी है. उन्होंने कहा- नहीं, ऐसा नहीं है.

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नई दिल्ली: इलेक्ट्रॉनिक वोटिंग मशीन (ईवीएम) के अख़िरी बटन नोटा (None of The Above यानी इनमें से कोई नहीं) का जन्म साल 2013 में हुआ था. इस बटन को लाए जाने के पीछे का तर्क ये था कि वोट देने का अधिकार जितना अहम है उतना ही अहम वोट नहीं देने का अधिकार भी है. सुप्रीम कोर्ट ने इसे भाषा और अभिव्यक्ति के मौलिक अधिकार से जोड़ते हुए कहा था कि ऐसा हो सकता है कि लोकतंत्र में किसी वोटर का विश्वास किसी भी उम्मीदवार में ना हो. ऐसी स्थिति में उसके पास किसी को भी वोट नहीं करने का भी विकल्प होना चाहिए और ऐसा करते हुए उसकी पहचान भी सुरक्षित होनी चाहिए.

भारतीय लोकतंत्र में ऐसी कई वजहें हैं जिनकी वजह से वोटर किसी भी उम्मीदवार को वोट नहीं करना चाहते. इनमें उम्मीदवार की आपराधिक पृष्ठभूमि से लेकर पैसे और बल के बूते चुनाव को प्रभावित करने, राजनीतिक हिंसा, बूथ कैप्चरिंग, सांप्रदायिकता, जातिवाद से लेकर ऐसे उम्मीदवार भी वजह होते हैं जिन्होंने पांच सालों में कोई काम नहीं किया. नोटा को इसलिए विकल्प बनाया गया ताकि इनसे उब चुके वोटर बिना अपनी पहचान ज़ाहिर किए वोट कर सकें.

इन सबके बावजूद भारत में इस बटन का नतीजों पर कोई प्रभाव नहीं पड़ता और इस वजह से ये माना जाता है कि नोटा का बटन दबाना अपने वोट को बर्बाद करना है. ऐसे में ये सवाल उठता है कि नोटा का बटन दबाना क्या सच में अपने वोट बर्बाद करना है?

क्या कहते हैं पूर्व चुनाव आयुक्त

इसपर दिप्रिंट ने जब पूर्व चुनाव आयुक्त ओपी रावत से बातचीत की तो उन्होंने कहा कि नोटा का बटन इस्तेमाल करना वोट को पूरी तरह से बर्बाद करना नहीं है. लेकिन जब उनसे पूछा गया कि तब क्या होगा जब किसी सीट पर नोटा को सबसे ज़्यादा वोट्स मिलते हैं तो इसके जवाब में रावत ने कहा, ‘जिस उम्मीदवार को नोटा के बाद सबसे ज़्यादा वोट मिलेंगे वो जीत जाएगा. ऐसा इसलिए है क्योंकि नोटा उम्मीदवार नहीं होता.’

कानून बदलने पर हो सकता है दोबारा चुनाव

अगर किसी सीट पर नोटा को सबसे ज़्यादा वोट मिलते हैं तो क्या फिर से चुनाव कराए जा सकते हैं जैसे सवाल के जवाब में रावत ने कहा, ‘ऐसा कानून के लिहाज़ से संभव नहीं है. चुनाव आयोग ऐसा इसलिए नहीं कर सकता क्योंकि वो ख़ुद में कानून नहीं है और वो कानून से बंधा हुआ है.’ रावत कहते हैं कि पहले इससे जुड़ा कानून पास करना होगा.

आगे की जानकारी देते हुए उन्होंने कहा कि ऐसा मामला अगर राज्य का हो तो राज्य को कानून पास करना पड़ेगा और केंद्र का हो तो केंद्र सरकार को कानून पास करना पड़ेगा. वो आगे कहते हैं कि हालांकि, सुप्रीम कोर्ट ने चुनाव आयोग को परिपूर्ण ताकत (plenary power) दी है और इसका इस्तेमाल ऐसे मामलों में किया जा सकता है जिनसे जुड़ा कोई कानून नहीं है.

रावत कहते हैं कि बिना कानून वाले मामलों में चुनाव आयोग अपना नियमन लागू कर सकता है. लेकिन नोटा को लेकर पहले से कानून है और कानून कहता है कि ये सिर्फ एक बटन मात्र है, कोई कैंडिडेट नहीं. आपको बता दें कि 6 नवंबर 2018 को महाराष्ट्र के चुनाव आयोग ने एक आदेश पास किया था जिसमें कहा था कि अगर नोटा के बटन को जीतने वाले से ज़्यादा वोट मिलते हैं तो फिर से चुनाव कराए जाएंगे.

महाराष्ट्र चुनाव आयोग के इस आदेश से जुड़े सवाल पर रावत कहते हैं कि महाराष्ट्र चुनाव आयोग ने परिपूर्ण ताकत का ही हवाला दिया था. लेकिन जब पहले से कानून है तो आयोग परिपूर्ण ताकत का इस्तेमाल कैसे कर पाएगा? परिपूर्ण ताकत के मामले में आर्टिकल 324 के तहत चुनाव आयोग को कुछ ताकतें दी गई हैं ताकि चुनाव कराने में बाधा न आए.

कानून में तब्दील हो जाते हैं परिपूर्ण ताकत के तहत लिए गए फैसले

उन्होंने जानकारी दी कि मनोहर सिंह गिल बनाम यूनियन ऑफ इंडिया मामले में सुप्रीम कोर्ट ने परिपूर्ण ताकत से जुड़ा ये आदेश दिया था. इसमें कहा गया था कि जिन मामलों में कानून नहीं है वहां चुनाव आयोग परिपूर्ण ताकत का इस्तेमाल कर सकता है और चुनाव आयोग ऐसे मामलों में चुनौतियों का समाना करने के लिए जो फैसले लेता है वो कानून बन जाते हैं.

उदाहरण के लिए रावत अपना अनुभव साझा करते हुए कहते हैं कि एक बार वो तमिलनाडु में थे, तब उन्होंने तंजावुर, अरवाकुर्ची और आरके नगर में पाया कि भारी मात्रा में पैसे और उपहार बांटे जा रहे हैं और तब इससे जुड़ा कोई कानून नहीं है. हालांकि, फिर से चुनाव करवाने से लेकर बूथ कैप्चरिंग तक से जुड़े कानून मौजूद थे.

उन्होंने बताया कि वोट के लिए पैसे और उपहार बांटने के ख़िलाफ़ कानून नहीं होने की स्थिति में चुनाव आयोग ने इस मामले में अपने परिपूर्ण ताकत का इस्तेमाल किया और बाद में ये कानून बन गया. लेकिन तभी रावत ये भी कहते हैं, ‘लेकिन महाराष्ट्र चुनाव आयोग ने जो कहा वो कानून की कसौटी पर ख़रा नहीं उतरेगा.’

कानून की कमी से जीत जाएगा 0.01 प्रतिशत वोट पाने वाला उम्मीदवार

एक रिपोर्ट के मुताबिक महाराष्ट्र के पिछले स्थानीय चुनाव में पुणे की एक सीट पर 85% से ज़्यादा वोट नोटा को पड़े थे. अगर आम चुनाव में कई सीटों पर ऐसा होता है तो क्या ये किसी तरह के बदलाव का रास्ता खोल सकता है, इसपर रावत का कहना है कि इस बारे में नेताओं को सोचना चाहिए और कानून बनाना चाहिए. क्योंकि अभी का जो कानून है उसके मुताबिक 99.99 प्रतिशत वोट नोटा को मिलें और 0.01 प्रतिशत वोट किसी उम्मीदवार को मिलें तो उम्मीदवार ही जितेगा.

अगर लोग पहल करें तो बदलाव संभव है

जब रावत से पूछा गया कि क्या ये लोकतंत्र का उपहास नहीं है? तो उन्होंने कहा कि नहीं, ये लोकतंत्र का उपहास नहीं है क्योंकि (कानून बनाने वाली) संसद सर्वोच्च और संप्रभु है. इसके बाद जब कहा गया कि संसद तो लोगों का ही प्रतिनिधित्व करती है और अगर किसी सीट पर बहुमत से उम्मदवारों को ख़ारिज किया जाता है तो क्या ये लोगों का प्रतिनिधित्व करने वाले सांसदों और विधायकों के लिए संदेश नहीं है?  इस पर उन्होंने कहा, ‘लोग अपने प्रतिनिधियों पर इससे जुड़ा कानून बनाने का दबाव बना सकते हैं. अगर ऐसा हो रहा है तो इससे जुड़ी बहस अभी से तैयार की जानी चाहिए. इसके लिए माहौल बनाया जाएगा तभी तो कानून बदलेगा.’

वहीं, जब उनसे पूछा गया कि अगर आम चुनाव में कई या कुछ सीटों पर नोटा का प्रतिशत जीतने वाले उम्मीदवार से ज़्यादा होता है तो क्या ये बदलाव की मांगों से जुड़ी जनहित याचिका का आधार हो सकता है तो उन्होंने कहा, ‘ये काल्पनिक प्रश्न है. लेकिन अगर किसी को लगता है कि ये एक मज़बूत आधार हो सकता है तो वो कोर्ट जा सकता है.’ वहीं उन्होंने ये भी कहा कि लोगों और उनके प्रतिनिधियों के बीच एक करार होता है. अगर लोगों को लगता है कि करार पूरा नहीं हो रहा तो पहले उन्हें अपने प्रतिनिधियों के पास जाना चाहिए जिसके बाद भी बदलाव संभव है.

वो आगे कहते हैं कि चुनाव आयोग भी पहले सरकार के पास ऐसे कई संशोधनों के लिए गया है और इनसे जुड़े कई संशोधन हुए भी हैं. इलेक्ट्रॉनिकली ट्रांस्मिटेड पोस्टल बैलट फॉर सर्विस वोटर्स को वो ऐसा ही एक बदलाव बताते हैं. फिर कहते हैं कि अगर लोगों को लगता है कि बदलाव होना चाहिए तो वो मांग करते हुए इसके लिए माहौल तैयार कर सकते हैं. अगर ऐसी सकारात्मक मुहिम को आगे बढ़ाया जाता है तो मुझे लगता है कि संसद इसका संज्ञान लेगा.

क्या है नोटा के बटन के मायने?

जब उनसे सबसे अहम सवाल पूछा गया कि नोटा को लेकर एक आम धारण है कि ये पूरी तरह से वोट की बर्बादी है. क्या उन्हें भी ऐसा लगता है तो रावत ने कहा कि ऐसा नहीं है. वो कहते हैं, ‘ये किसी चीज़ का तो सूचक है. ये इस बात का सूचक है कि लोगों की एक संख्या नेताओं से पूरी तरह से खिन्न है और जितने भी उम्मीदवारों को मैदान में उतारा गया उनमें से किसी को ये लोग इनका प्रतिनिधित्व करने लायक नहीं मानते.’

वो आगे कहते हैं कि इससे एक डेटा भी तैयार हो रहा है जिससे पता चलता है कि 2013 से अब तक कितनी संख्या में वोटरों ने अपनी नाराज़गी ज़ाहिर की है. ये डेटा भविष्य में किसी जनहित याचिक की ज़मीन तैयार करने में मदद कर सकता है. ऐसे में ये वोट की पूरी तरह से बर्बादी नहीं है. ये एक तरफ की प्रतीकात्मक चीज़ है.

‘छोटा हथियार लेकिन लोकतंत्र में अविश्वास के ख़तरे को किया कम’

दिप्रिंट से बातचीत में चुनाव विश्लेषक और रानजीतिक पार्टी स्वराज इंडिया के राष्ट्रीय अध्यक्ष योगेंद्र यादव ने कहा, ‘जब नोटा का कोई असर नहीं होगा तब ये एक बहुत छोटा हथियार है.’ वो कहते हैं कि असर से मतलब ये है कि अगर ऐसा हो कि विजेता से ज़्यादा वोट नोटा को मिलें तो चुनाव दोबारा हो या विजेता और हारने वाले के बीच का अंतर जो है उससे ज़्यादा नोटा वोट होने पर चुनाव फिर से हो तो कुछ असर होगा.

यादव कहते हैं, ‘नोटा की वजह से वोटर कुछ जगहों पर अपनी नाराज़गी और अपना असंतोष प्रकट कर सकते हैं.’ उनका मानना है कि व्यवस्था के प्रति असंतोष ज़ाहिर करने से जुड़े जो विकल्प लोगों को मिलते हैं वो बेहद सीमित होते हैं. पहले अगर वोटर किसी को नहीं चुनना चाहता था तो उसके पास घर बैठने के अलावा कोई विकल्प नहीं था. ऐसे स्थिति में लोकतांत्रिक व्यवस्था के प्रति अविश्वास का ख़तरा रहता है. नोटा ने उस ख़तरे को कम किया है.

हालांकि, नोटा से पहले भी 49-0 के विकल्प के तहत एक वोटर किसी को नहीं चुनने का फैसला कर सकता था. लेकिन इस तरीके की कमज़ोरी ये थी कि इससे वोटर की पहचान उजगार हो जाती थी. भारतीय राजनीति को उम्मीदवार से लेकर वोटर तक इतने निजी स्तर पर लेता है कि अगर इन्हें पता चल जाए कि किसने किसे वोट किया है तो ये कई तरीके से वोट करने वाले की ज़िंदगी को प्रभावित कर सकते हैं. ऐसे में बिना पहचान बताए किसी को नहीं चुनने का विकल्प देने वाला नोटा एक बेहद सशक्त करने वाला विकल्प है.

नोटा से जुड़ी कुछ और बड़ी बातें

2013 में चुनाव आयोग ने छत्तीसगढ़, मिज़ोरम, राजस्थान, दिल्ली और मध्य प्रदेश जैसे राज्यों में नोटा के बटन का शुरू किया था. 2014 में चुनाव आयोग ने इसे राज्यसभा और लोकसभा के चुनाव में शुरू किया. सुप्रीम कोर्ट ने पब्लिक यूनियन फॉर सिविल लिबर्टीज (पीयूसीएल) की एक याचिका पर सुनवाई करते हुए इस बटन को हरी झंडी दी थी. अंग्रेज़ी के अख़बार दि हिंदू की 2018 की एक रिपोर्ट के मुताबिक सुप्रीम कोर्ट के इस फैसले के बाद ‘नकारात्मक वोटिंग’ को अपनाने वाला भारत 14वां देश बन गया.भारत के अलावा कोलंबिया, यूक्रेन, ब्राज़ील, बांग्लादेश, फिनलैंड, चिली, बेल्जियम, स्पेन और स्वीडन जैसे देशों में नोटा का इस्तेमाल होता है. वहीं, अमेरिका के कुछ राज्यों में भी इस बटन का इस्तेमाल होता है.

पूर्व सुप्रीम कोर्ट चीफ जस्टिस पी सथासिवम की अध्यक्षता वाली बेंच ने तब इस बटन के बारे में कहा था, ‘नकारात्मक वोटिंग से चुनाव में प्रणालीगत बदलाव आएगा और राजनीतिक पार्टियों को सही उम्मीदवार उतारने के लिए मजबूर होना पड़ेगा. अगर वोट देने का अधिकारी वैधानिक अधिकार है तो संविधान में मिले बोलने और अभिव्यक्ति के अधिकार के तहत एक उम्मीदवार को ख़ारिज करने का अधिकार मौलिक अधिकार है.’

नेटवर्क 18 की एक रिपोर्ट के मुताबिक 2013 से 2017 तक नोटा को कुल 1.33 करोड़ वोट मिले हैं. इस बटन को लाने के पीछे की एक वजह ये थी कि ऐसा विकल्प होने से वोट ज़्यादा पड़ेंगे. सुप्रीम कोर्ट ने इस बटन पर फैसला देते हुए कहा था कि इससे राजनीतिक पार्टियों पर अच्छे उम्मीदवारों को मैदान में उतारने का दबाव बनेगा. सुप्रीम कोर्ट का ये भी मानना था कि इससे राजनीति की सफाई भी हो सकती है.

आपको जानकार हैरानी होगी कि नक्सली इलाकों में तो इस बटन ने कमाल कर दिया है. 2018 के अंत में साल हुए पांच राज्यों के विधानसभा चुनाव में छत्तीसगढ़ में नोटा का प्रभाव 90 सीटों पर रहा और इसे 2.1 प्रतिशत वोट मिले थे. इंडियन एक्सप्रेस की रिपोर्ट के मुताबिक राज्य में नोटा को सात पार्टियों से ज़्यादा वोट मिले और इन पार्टियों में एनसीपी, बीएसपी और सीपीआई जैसी बड़ी पार्टियां भी शामिल थीं.

ऐसी भी बहस रही है कि अगर किसी क्षेत्र में नोट पर सबसे ज़्यादा वोट पड़ते हैं तो वहां फिर से चुनाव कराए जाने चाहिए. वहीं, ये मांग भी की गई है कि जिन उम्मीदवारों को नकार दिया गया हो उन्हें एक तय समय तक चुनाव नहीं लड़ने देना चाहिए और एक मांग ये भी रही है कि जिस पार्टी का उम्मीदवार नोट से हारा है उसे उस सीट पर फिर से होने वाले चुनाव का ख़र्च वहन करना चाहिए.

टाइम्स ऑफ इंडिया ने अपनी एक रिपोर्ट में बताया है कि 2014 के आम चुनाव में 14 विभिन्न लोकसभा सीटों पर 241 उम्मीदवार थे. इनमें से 137 उम्मीदवारों को नोटा से भी कम वोट मिले थे. वहीं, द ब्रूट की एक वीडियो रिपोर्ट में बताया गया है 2014 के आम चुनाव में वाराणसी के अलावा वडोदरा की जिस सीट से पीएम नरेंद्र मोदी लड़े थे उसमें नोटा तीसरे नंबर पर था.

वहीं,  टाइम्स ऑफ इंडिया की ही एक और रिपोर्ट में बताया गया है कि महाराष्ट्र के नागरिक समूहों ने चुनाव आयोग से ये मांग की है कि अगर नोटा को सबसे ज़्यादा वोट मिलते हैं तो फिर से चुनाव कराए जाएं. इसी ख़बर में चुनाव आयोग के वरिष्ठ अधिकारियों ने कहा है कि एक तरफ जहां राज्य के चुनाव आयोग ऐसे आदेश दे सकते हैं, वहीं दूसरी तरफ चुनाव आयोग को इसके लिए चुनाव नियमों के संचालन से जुड़े नियम 64 में संसोधन प्रस्तावित करने पड़ेंगे.

थोड़े बदलावों के साथ क्रांति ला सकता है नोटा

नियम 64 के तहत चुनाव से जुड़े नतीजों और विजेता की घोषणा की जाती है. इस नियम के तहत नोटा के वोटों की संख्या सबसे ज़्यादा होने के बावजूद इसे विजेता घोषित नहीं किया जा सकता है. ऐसे में अगर हम ओपी रावत ने जो कहा है उससे लेकर योगेंद्र यादव और बाकी के तथ्यों पर नज़र डालें तो नोटा को वोट की बर्बादी नहीं कहा जा सकता. उल्टे, नियम और कानून में थोड़े बदलाव कर दिए जाएं तो ये भारतीय लोकतंत्र में ‘क्रांति’ लाने वाला विकल्प साबित हो सकता है.

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