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Friday, 20 December, 2024
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आजमगढ़: दिलचस्प हो गया है अखिलेश और निरहुआ का मुकाबला

भाजपा द्वारा अपने बाहुबली नेता रमाकांत यादव का टिकट काटकर निरहुआ को थमा देने को लेकर रमाकांत समर्थकों की बगावत में भी संभावनाएं दिख रही हैं.

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समाजवादी पार्टी, बहुजन समाज पार्टी व रालोद गठबंधन की ओर से सपा प्रमुख अखिलेश यादव की प्रतिष्ठा से जोड़ दिये जाने के कारण उत्तर प्रदेश की आजमगढ़ लोकसभा सीट पर हो रहा मुकाबला 2014 के लोकसभा चुनाव के मुकाबले से भी कहीं ज्यादा महत्वपूर्ण हो गया है. 2014 में बढ़ती चली आ रही मोदी लहर को थामने के लिए अखिलेश के पिता मुलायम सिंह यादव ने, जो तब समाजवादी पार्टी के संरक्षक नहीं सुप्रीमो ही थे, यहां से चुनाव लड़ने का फैसला किया था. मोदी लहर तो खैर तब उनके रोके नहीं रुकी थी, वे खुद यह सीट बचा ले गये थे.

वैसे भी यह लोकसभा सीट पिछले कई दशकों से सपा-बसपा का मजबूत गढ़ रही है. यही कारण है कि इस बार जब अखिलेश ने मोदी लहर के खात्मे का एलान-सा करते हुए यहां से खुद की उम्मीदवारी घोषित कर दी तो भाजपा ने उन्हें राजनीतिक टक्कर देने से कन्नी काट ली और अपना परचम भोजपुरी फिल्मों के स्टार/गायक दिनेशलाल यादव उर्फ निरहुआ को थमा दिया.

निरहुआ अभी हाल तक अखिलेश और मुलायम के बहुत करीबी माने जाते थे. अखिलेश ने अपने मुख्यमंत्री रहते उन्हें प्रतिष्ठित ‘यश भारती’ पुरस्कार से भी नवाजा था. यही कारण है कि आजमगढ़ में भोजपुरी लोकगीतों की धुनों पर बज रहे प्रचार-गीतों में निरहुआ के इस ‘पालाबदल’ को ‘दगाबाजी’ बताकर खूब गिले-शिकवे किये जा रहे हैं. साथ ही उलाहना दिया जा रहा है कि वे जिस वृक्ष की छांव में पले बढ़े, उसी को काटने पर आमादा हो गये हैं. ये शिकवा शिकायतें गवाह हैं कि निरहुआ के इस कदम से सपाइयों को गहरी चोट लगी है.

यह कोफ़्त अपनी जगह रहे लेकिन उम्मीद तो फिलहाल किसी को भी नहीं थी कि भाजपा का ‘निरहुआ-दांव’ आजमगढ़ में दशकों से परम्परा बने ‘जाति युद्ध’ को समाप्त कर चुनाव को वास्तविक मुद्दों की ओर लौटा देगा, लेकिन निरहुआ के लटकों-झटकों का क्षेत्र में इतना असर साफ है कि इस बार के ‘युद्ध’ में यादव निर्णायक नहीं रह गये हैं और अखिलेश को दलितों व अल्पसंख्यकों पर भी ‘निर्भर’ करना पड रहा है.


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ठीक है कि यादवों के साढ़े तीन लाख मतों के बड़े हिस्से का अभी भी सपा के खाते में जाना तय है, लेकिन निरहुआ की सभाओं में होने वाली भीडों का संकेत है कि उसमें दरार पड़ गई है. भाजपा का दावा है कि प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी द्वारा गत बृहस्पतिवार को मंदुरी गांव में हवाई पट्टी के पास स्थित मैदान में निरहुआ के लिए की गई विशाल रैली से यह दरार 2014 में मुलायम के खिलाफ रमाकांत यादव द्वारा डाली गई दरार से कहीं ज्यादा चौड़ी हो गई है. उसमें प्रधानमंत्री लोगों से अपील कर गये हैं कि वे देश में कमजोर या खिचड़ी सरकार चाहने वालों के अरमान पूरे न होने दें और अखिलेश को हराकर उन हालात से निजात पा लें, जिनके कारण आजमगढ़ पर ‘आतंक का गढ़’ होने का कलंक लगा था.

प्रधानमंत्री की रैली के बाद से सपा चौंकी हुई भी है और सावधान भी. 2014 में उसके सुप्रीमो मुलायम यहां साठ हजार से ज्यादा वोटों से जीते थे. अब उसने मंसूबा बना रखा है कि नये सुप्रीमो के रूप में अखिलेश को इससे कई गुना ज्यादा अंतर से जितायेगी. अपनी चिर प्रतिद्वंद्वी बसपा से उसका गठबंधन तो उसके इस मंसूबे का साथ दे ही रहा है, भाजपा द्वारा अपने बाहुबली नेता रमाकांत यादव का टिकट काटकर निरहुआ को थमा देने को लेकर रमाकांत समर्थकों की बगावत में भी संभावनाएं दिख रही हैं. रमाकांत यादव अब भदोही से कांग्रेस के प्रत्याशी हैं और कांग्रेस ने एक नीति के तहत अखिलेश के खिलाफ कोई प्रत्याशी नहीं खड़ा किया और रमांकात से उनका समर्थन करने को कहा है.

ऐसे में, सपा के खुद कार्यकर्ता जहां अखिलेश को वाकओवर मिले होने का दावा कर रहे हैं, वहीं कई सपाइयों को डर है कि बसपा व कांग्रेस के समर्थन के बावजूद उनकी जीत का अंतर सम्मानजनक नहीं हुआ तो फिलहाल उसमें कोई चमक नहीं रह जायेगी. खासकर जब मायावती भी उनके लिए वोट मांग गई हैं और उनके प्रतिद्वंद्वी निरहुआ को सिर्फ और सिर्फ नरेन्द्र मोदी पर ही भरोसा है, क्योंकि वे भी अखिलेश की ही तरह ‘बाहरी’ बताये जा रहे हैं.


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दोनों पक्षों की सीधी लड़ाई में चुनाव प्रचार समाप्त हो जाने के बावजूद क्षेत्र के उन्नीस लाख मतदाताओं में से ज्यादातर खामोश हैं. उनमें साढ़े तीन लाख से अधिक यादव, तीन लाख से ज्यादा मुसलमान और करीब तीन लाख दलित हैं. भाजपा की उम्मीदें इस पर टिकी हैं कि निरहुआ सपा के यादव वोट बैंक में तो सेंध लगायेंगे ही, गैर-यादव अन्य पिछड़े वर्ग, गैर-जाटव दलितों और सवर्णों के समर्थन से बाजी पलट देंगे. लेकिन उसके बाजी पलट सकने के दावे पर एक भी निष्पक्ष जानकार एतबार नहीं कर रहा. कहा जा रहा है कि इस दिलचस्प मुकाबले में सबसे बड़ा सवाल यही है कि अखिलेश कितने छोटे या बड़े अंतर से जीत दर्ज करते हैं. यों तो आजमगढ़ के मतदाताओं का चौंकाने वाले नतीजे देने का इतिहास भी रहा है.

(लेखक जनमोर्चा अख़बार के स्थानीय संपादक हैं)

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