scorecardresearch
Monday, 23 December, 2024
होम2019 लोकसभा चुनावनरेंद्र मोदी के खिलाफ क्यों बेहतर उम्मीदवार साबित होंगे कन्हैया कुमार?

नरेंद्र मोदी के खिलाफ क्यों बेहतर उम्मीदवार साबित होंगे कन्हैया कुमार?

कन्हैया कुमार भूमिहार जाति के हैं, जिनकी बनारस में अच्छी संख्या है. वहां कभी कम्युनिस्टों का भी असर था. अपनी भाषण कला से कन्हैया बीजेपी की नाक में दम कर सकते हैं.

Text Size:

बिहार के बेगूसराय से जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय में पढ़ाई करने आए कन्हैया कुमार सरकार के खिलाफ प्रतिरोध की बड़ी आवाज बन चुके हैं. एक औसत किसान परिवार में जन्मे कन्हैया सरकार की मामूली स्कॉलरशिप पर पढ़ाई करने दिल्ली आए, जो सरकार प्रतिभाशाली विद्यार्थियों को देती है. उनके पिता जयशंकर सिंह को लकवा है और मां आंगनवाड़ी में काम करके परिवार का भरण पोषण करती हैं. कन्हैया बेहतर जिंदगी के सपने लेकर पढ़ाई करने आए थे. अब वह सत्ता के समर्थकों के सीधे निशाने पर हैं और उनकी जिंदगी बदल चुकी है. उनकी जेएनयू की पढ़ाई अब पूरी हो चुकी है.

कन्हैया यूं बने सत्तासीन वर्ग के शिकार

कम्युनिस्ट पार्टी से जुड़े कन्हैया ने पार्टी की छात्र इकाई आल इंडिया स्टूडेंट फेडरेशन की तरफ से जेएनयू में छात्रसंघ चुनाव लड़ा और अध्यक्ष बन गए. इस दौरान, प्रतिरोध की हर आवाज को राष्ट्रद्रोही हरकत बताने की बीजेपी की कवायदों का शिकार जेएनयू भी बन गया. एक समाचार चैनल ने खबर चलाई कि जेएनयू में “भारत तेरे टुकड़े होंगे” का नारा लगाया गया. मामले में मुख्य अभियुक्त कन्हैया को बना दिया गया और उन पर राजद्रोह का मुकदमा कायम हो गया. देश के कई इलाकों में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के समर्थक उन पर हमले कर चुके हैं. मोदी समर्थक उन्हें ‘टुकड़े-टुकड़े गैंग’ वाला ‘राष्ट्रद्रोही’ बताते हैं.

कैसे जीता छात्रसंघ चुनाव

सामान्यत यह धारणा है कि विश्वविद्यालय छात्रसंघ का चुनाव जीतने वाले बहुत अमीर होते हैं क्योंकि दर्जनों एसयूवी और बैनर, पोस्टर, होर्डिंग के खर्च के लिए लाखों रुपये की जरूरत होती है. जेएनयू अलग है. अगर कोई छात्र 5,000 रुपये का इंतजाम कर ले, तो वह आसानी से चुनाव लड़ सकता है. जेएनयू की दीवारों पर एबीवीपी, आइसा, एनएसयूआई, एआईएसएफ, एसएफआई, बापसा आदि छात्र संगठनों की स्थायी पेंटिंग है. जब छात्रसंघ चुनाव आता है तो कागजों पर हाथ से लिखे छात्र नेता के नाम और पद चिपका दिए जाते हैं. पेंटिंग भी स्टूडेंट करते हैं. कागज व चिपकाने की गोंद का ही खर्च आता है. इसी फॉर्मूले से कन्हैया चुनाव जीतने में कामयाब हुए थे, न कि किसी की फंडिंग या करोड़पति बाप के बेटे होने की वजह से.

किस तरह की आवाज?

कन्हैया को जब सत्ता की राजनीतिक आक्रामकता का शिकार बनाया गया तो चैनलों ने व्यापक कवरेज देकर उन्हें रातोंरात विख्यात कर दिया. जिस तरह 2014 के लोकसभा चुनाव के पहले अन्ना हजारे ने जंतर मंतर पर धरना देकर माहौल बनाया और बाद में निर्भया रेप के बाद जनता राष्ट्रपति भवन तक चढ़ आई थी, कुछ उसी तरह की सत्ता विरोधी आवाज के प्रतिनिधि कन्हैया बन चुके हैं.

कन्हैया की संवाद शैली शानदार है. विद्यार्थियों के बीच उनका यह कहते हुए वीडियो बहुत पॉपुलर है कि मोदी जी को यशोदा (नरेंद्र मोदी की पत्नी) और कन्हैया दोनों ही नहीं पसंद हैं. राजद्रोह के मुकदमे के बारे में भी कन्हैया कहते हैं कि केंद्र सरकार का इतना बड़ा अमला है, 4 साल से उन्हें केवल परेशान किया जा रहा है. सरकार जांच पूरी करके उन्हें सजा क्यों नहीं दिला पाती? सरकार को हर मोर्चे पर न्यायालय की फटकार क्यों सुननी पड़ रही है? इस तरह से कन्हैया अपनी बात बड़ी आसानी से लोगों को पहुंचा पाने में सक्षम हैं.

किसे मिलेगा फायदा

जिस तरह से अन्ना के आंदोलन का सीधा लाभ विपक्ष को मिला और मोदी सरकार प्रचंड बहुमत से सत्ता में आई, उसी तरह कन्हैया पर सरकारी हमले का सीधा लाभ विपक्षी दलों को मिलेगा. कन्हैया घूम घूमकर सरकार के विरुद्ध भाषण दे रहे हैं. वह बेरोजगारी, आम लोगों के सरकारी उत्पीड़न और दमन को लेकर आवाज उठा रहे हैं तो इसका सीधा फायदा विपक्ष को मिलेगा.

खासकर कांग्रेस ही देश भर में मुख्य विपक्ष है. ऐसे में सबसे ज्यादा फायदा कांग्रेस को ही मिल रहा है. शुरुआत में कांग्रेस द्वारा कन्हैया को पिछले दरवाजे से समर्थन देने के बाद अब वह इस प्रतिरोध का लाभ नहीं उठा पा रही है.

अगर कांग्रेस इस समय कन्हैया को सीधे मोदी के मुकाबले चुनाव में उतारती है तो स्वाभाविक रूप से उन्हें मीडिया के सामने अपनी बात रखने का मौका मिलेगा. मोदी के भाषणों का जवाब देने में सक्षम कन्हैया को अगर मौका मिलता है तो उसका असर एक संसदीय सीट तक सीमित नहीं रहेगा. इलेक्ट्रॉनिक मीडिया के दौर में वह आवाज देश के कोने कोने तक पहुंचेगी. खासकर हिंदी पट्टी में वह आवाज बड़ी दमदारी से सुनी जा सकेगी.

वाराणसी संसदीय क्षेत्र में बड़ी संख्या में ताकतवर भूमिहार मतदाता हैं, जिन्हें भाजपा मनोज सिन्हा के माध्यम से साध चुकी है. अजय राय को प्रत्याशी के रूप में उतारकर कांग्रेस भी साधने की कवायद कर चुकी है. कन्हैया कुमार भी भूमिहार हैं. साथ ही वाराणसी क्षेत्र में एक दौर में कम्युनिस्टों की अच्छी पकड़ रही है, जहां रुस्तम सैटिन से लेकर कॉमरेड ऊदल चुनाव जीतते रहे हैं. कन्हैया को मोदी के बरक्स मैदान में उतारने से पूरे विपक्ष को लाभ की संभावना है.

आरएसएस संरक्षित केंद्र की भाजपा सरकार जहां मनुवादी, जातिवादी और वर्णाश्रम व्यवस्था की समर्थक है, वहीं कन्हैया का जीवन ब्राह्मणवाद हो बर्बाद, मनुवाद हो बर्बाद नारों के बीच गुजरा है. आरएसएस की नीतियों का मुखर विरोध करने वाले जेएनयू के कम्युनिस्टों का मनोबल तोड़ने के लिए संघी विचारकों ने कन्हैया पर हमला बोला, लेकिन वह अब भी सरकार के सामने सीना ताने खड़े हैं.

(लेखिका राजनीतिक विश्लेषक हैं)

share & View comments