पटना साहिब सीट इस बार बिहार ही नहीं बल्कि भारत के सर्वाधिक दिलचस्प मुकाबले वाले चुनावी क्षेत्रों में शामिल है, जहां टक्कर दो कायस्थों के बीच है. इस हाईप्रोफाइल सीट पर भाजपा नेता और केंद्रीय मंत्री रविशंकर प्रसाद के सामने हैं अभिनेता से नेता बने और हाल ही में भाजपा छोड़कर कांग्रेस खेमे में पहुंचे शत्रुघ्न सिन्हा. बिहार में प्रसाद और सिन्हा के बीच प्रतिष्ठा की इस लड़ाई में स्पष्ट है कि कौन ‘खामोश’ होने वाला है.
ये रहे शत्रुघ्न सिन्हा की आसन्न हार के तीन कारण
संगठनात्मक पृष्ठभूमि और ट्रेनिंग
परंपरागत रूप से पटना साहिब क्षेत्र भाजपा का गढ़ रहा है और वर्तमान में इस क्षेत्र की छह विधानसभा सीटों में से पांच पर भाजपा के विधायक हैं. इस लोकसभा क्षेत्र में कायस्थों की अच्छी-खासी संख्या है, और पिछले एक दशक से शत्रुघ्न सिन्हा के रूप में एक कायस्थ ही संसद में यहां का प्रतिनिधित्व कर रहा है.
सिन्हा के खिलाफ अपना पहला लोकसभा चुनाव लड़ रहे रविशंकर प्रसाद भाजपा के एक जांचे-परखे वकील-नेता हैं जिनकी खुद की एक पहचान है.
वह जनसंघ के स्वर्गीय नेता ठाकुर प्रसाद के पुत्र हैं. ठाकुर प्रसाद को कैलाशपति मिश्र और अन्य नेताओं के साथ बिहार में पार्टी के संस्थापकों में शुमार किया जाता है. वह 10 वर्षों तक जनसंघ की बिहार इकाई के अध्यक्ष रहे थे.
रविशंकर प्रसाद ने नानाजी देशमुख और अटल बिहारी वाजपेयी जैसे आरएसएस और जनसंघ के दिग्गजों की देखरेख में राजनीति का ककहरा सीखा. उन्होंने अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद (एबीवीपी) के सदस्य के रूप में अपना राजनीतिक करियर शुरू किया, पटना विश्वविद्यालय छात्र संघ का चुनाव जीता और इसके महासचिव बने – सुशील मोदी और लालू प्रसाद यादव भी पटना विश्वविद्यालय छात्र संघ के पदाधिकारी रहे हैं.
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पटना के वरिष्ठ पत्रकार लव कुमार मिश्र प्रसाद को उनके एबीवीपी के दिनों से जानते हैं. उन्होंने बताया, ‘रविशंकर प्रसाद नया टोला स्थित एबीवीपी कार्यालय साइकिल पर आया करते थे.’
प्रसाद ने प्राथमिक शिक्षा पटना के राजेंद्र नगर स्थित एक सरकारी स्कूल से प्राप्त की है. मिश्रा के अनुसार, ‘प्रसाद अपने चुनाव प्रचार की शुरुआत सुबह की सैर से करते हैं. शहर में शायद ही कोई बड़ा पार्क प्रसाद के इस अभियान से छूटा हो.’
दूसरी ओर शत्रुघ्न सिन्हा की बात करें तो पटना साहिब क्षेत्र के एक युवा मतदाता के रूप में मैंने भी, पटना के अन्य लोगों की तरह, पिछले 10 वर्षों के दौरान सिन्हा को आम जनता से दूर होते देखा है. यहां तक कि 2014 में भी, उपलब्ध नहीं रहने और काम नहीं करने के कारण, सिन्हा की उम्मीदवारी का पार्टी के भीतर काफी विरोध हुआ था. हालांकि वह मोदी लहर पर सवार होकर संसद पहुंच गए थे.
काम बनाम खामोश
पटना साहिब क्षेत्र में रविशंकर प्रसाद की पहचान एक व्यावहारिक नेता के रूप में है जो पटना में ही पैदा हुआ और जिसका परिवार अब भी यहीं रहता है. इसके विपरीत शत्रुघ्न सिन्हा मात्र चुनावों के समय ही क्षेत्र का दौरा करते हैं. प्रसाद की पत्नी प्रसिद्ध शिक्षाविद हैं और पटना विश्वविद्यालय में पढ़ाती हैं.
सिन्हा ने मतदाताओं पर धाक जमाने के लिए हमेशा अपने स्टार वाली हैसियत का इस्तेमाल किया है, पर वह क्षेत्र के विकास के अपने वायदों पर खरे नहीं उतर पाए हैं. एक ज़माना था जब पटना को कोलकाता और लखनऊ के समकक्ष रखा जाता था, पर नगरीय नियोजन और आवश्यक बुनियादी ढांचे की दृष्टि से यह अब बाकी मेट्रों नगरों से दशकों पीछे हो चुका है.
मेट्रो रेल परियोजना को पटना लाने और सॉफ्टवेयर प्रौद्योगिकी पार्क के ज़रिए शहर में रोजगार के अवसर पैदा करने में रविशंकर प्रसाद की अहम भूमिका रही है.
सिन्हा के जनप्रतिनिधि रहते पटना साहिब क्षेत्र की जनता को रेल टिकट कन्फर्मेशन या एम्स में भर्ती जैसी छोटी-मोटी सुविधाओं के लिए भी जूझना पड़ा है. यह सिन्हा के पटना साहिब की जनता से कटे होने की स्थिति को ही उजागर करता है.
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पटना के लोगों को उम्मीद है कि रविशंकर प्रसाद के चुने जाने से स्थितियां बदल सकेंगी. वह पहले ही शहर के युवाओं के बीच लोकप्रिय हो चुके हैं, जो उन्हें एक डिजिटल प्रेरक के तौर पर देखते हैं.
एक अंतरराष्ट्रीय संस्था के पटना कार्यालय में जेंडर स्पेशलिस्ट के रूप में कार्यरत सुगंधा मुंशी कहती हैं, ‘प्रसाद की जीत सुनिश्चित है. इस चुनाव में लोग ऐसा प्रतिनिधि चुनना चाहते हैं जो दूरदृष्टि वाला, शिक्षित और सुलझा हुआ हो. विपक्षा का उम्मीदवार तो खुद अपनी राजनीतिक विचारधारा को लेकर भ्रमित है.’
मौकापरस्ती की पराकाष्ठा
पटना के लोगों में परित्यक्त होने का ज़बरदस्त भाव देखा जा सकता है, क्योंकि शत्रुघ्न सिन्हा का ध्यान लखनऊ पर है, जहां समाजवादी पार्टी की ओर से उनकी पत्नी पूनम सिन्हा उम्मीदवार हैं.
सिन्हा का पटना में कोई निर्दिष्ट चुनाव कार्यालय नहीं है और वह ज्यादा समय लखनऊ में बिता रहे हैं. कांग्रेस के एक प्रदेश स्तर के पदाधिकारी ने स्वीकार किया कि सिन्हा उम्मीद छोड़ चुके हैं, और पार्टी को उनकी जगह कोई बेहतर उम्मीदवार उतारना चाहिए था.
सिन्हा की पत्नी पिछले 10 वर्षों से पटना की बेटी होने का दावा कर रही थी, अब वह कह रही हैं कि ‘लखनऊ से उनका रिश्ता बहुत पुराना है.’ जनता इन सब बातों को समझती है. ये और कुछ नहीं बस हद दर्जे की मौकापरस्ती है.
रविशंकर प्रसाद के लिए चुनौती इस चुनाव में जीत दर्ज करने मात्र की नहीं, बल्कि भारी अंतर से जीतने की है.
(लेखक इंडिया फाउंडेशन में अध्येता, और पटना विश्वविद्यालय में सहायक प्रोफेसर हैं. यहां व्यक्त विचार लेखक के निजी विचार हैं.)