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Saturday, 15 June, 2024
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कैसे मोदी-शाह की भाजपा ने कांग्रेस और बाकियों को इन चुनावों में पछाड़ा

मोदी सरकार कल्याणकारी योजनाओं के कार्यान्वयन में यूपीए से अधिक सक्षम रही और उसने महंगाई को काबू में रखा. कांग्रेस का ‘चोर’ मोदी वाला विरोध बुरी तरह नाकाम रहा.

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अब जबकि रुझान स्पष्ट हो चुके हैं, ये रही मेरे हिसाब से 2019 के जनादेश की 12 प्रमुख बातें:

1. भाजपा और कांग्रेस ने बुनियादी रूप से अलग-अलग रणनीतियों के साथ चुनावी संघर्ष किया. भाजपा इसे राष्ट्रपतीय शैली का राष्ट्रीय मुकाबला बनाना चाहती थी. कांग्रेस और उसके सहयोगी दलों ने इसे 543 अलग-अलग चुनावी मुकाबले का रूप देने का प्रयास किया. वे नाकाम रहे. भाजपा को इसे राष्ट्रपतीय चुनाव बनाने में ज़बर्दस्त सफलता मिली और उन्होंने सिर्फ एक उम्मीदवार, नरेंद्र मोदी को सामने रखा.

2. कांग्रेस इस जाल में फंसती चली गई. उन्होंने एक राष्ट्रीय विकल्प पेश करने तक की नहीं सोची और अपने हमले को पूरी तरह नरेंद्र मोदी पर केंद्रित करने का फैसला किया. अपने विरोधी की असल ताकत से लड़ना कठिन होता है. यदि आपके पास कोई ठोस संदेश नहीं हो तो ऐसा करना मूर्खतापूर्ण भी साबित हो सकता है. कांग्रेस ने जो डेढ़ मुद्दे निर्मित किए (चौकीदार चोर है और रफाल) वे कांग्रेस के समर्पित मतदाताओं के अलावा किसी और को उत्साहित करने में विफल रहे. राहुल की रैलियों में ‘चोर’ की गूंज को जनता के रुख में बदलाव के रूप में देखने की गलती करना, खासकर जब आप 2014 के 10-15 फीसदी नकारात्मक फासले से शुरू कर रहे हों. ऐसे ही आप रीट्वीट को वोट मान बैठे हों.

3. ‘प्यार और सहिष्णुता’ की बातें सुनने में अच्छी लगती हैं और मर्मस्पर्शी होती हैं, पर अपने वफादारों की मंडली में ही. मतदाताओं को कुछ सकारात्मक चाहिए. कांग्रेस-राहुल ने इस दृष्टि से ‘न्याय’ पेश किया. पर ये बेहद जटिल था और इसे लाने में काफी देर भी की गई. चुनाव अभियान के दौरान 10 हफ्तों तक पूरे देश में घूमते हुए, मुझे इसका इसका एक भी संभावित लाभार्थी नहीं मिला जिसने इसके बारे में सुन रखा हो. ऐसा तब होता है जब आप बेहद अनाड़ीपन के साथ किसी योजना को बनाते हैं. जब आप फ्रांसीसी-वामपंथी अर्थशास्त्रियों को भारत के निर्धनतम मतदाताओं को लुभाने की ज़िम्मेदारी सौंपते हैं. आंकड़ों के अनुसार लगभग आधे मतदाताओं ने ‘न्याय’ के बारे में ज़रूर सुना था, पर ये वाला आधा हिस्सा ऊपरी तबके का था. इस तरह, ‘न्याय’ जिनके लिए था, उन्हें इनकी जानकारी नहीं थी. जिन्हें इसका भार वहन करना था, उनमें से अधिकांश को इसकी जानकारी थी. आप खुद इसका मतलब निकाल सकते हैं.

4. अमित शाह और नरेंद्र मोदी (जानबूझ कर शाह को पहले रखा है) ने गठजोड़ बनाने का कहीं अधिक बढ़िया काम किया. हां, ये भी स्वीकार करना होगा कि मुकाबले में आगे रहने वाला अपेक्षाकृत अधिक दलों को आकर्षित करता है. पर उन्होंने उदारमन होने का भी परिचय दिया. इसका सबसे स्पष्ट उदाहरण है. बिहार में नीतीश कुमार के लिए जगह छोड़ा जाना. आप इसकी तुलना में कांग्रेस के अड़ियल रवैये पर गौर कर सकते हैं. उत्तर प्रदेश, दिल्ली और हरियाणा में. संक्षेप में कहें तो भाजपा ने भविष्य को केंद्र में रखकर गठजोड़ बनाए, पर कांग्रेस अपने गौरवशाली अतीत के मोह में जकड़ा रहा.

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5. केरल और पंजाब के अपवादों को छोड़ दें तो जहां भी संभव हुआ भाजपा को रोकने का काम क्षेत्रीय दलों ने ही किया. इसमें तमिलनाडु भी शामिल है. केरल में भाजपा ने अभी पर्याप्त प्रयास नहीं किया है, हालांकि वामदलों की बुरी गत बनने से वहां उसके लिए संभावनाएं बन रही हैं. पंजाब में, एक कटु सत्य देखने को मिल रहा है जिसे कि कांग्रेस नापसंद करती है: एक राज्यस्तरीय नेता जो कि अपने बल पर जीत सकता है, यहां तक कि लहर को भी थाम सकता है. इसने भाजपा की रणनीति को आसान कर दिया. उन राज्यों को सीधा लक्ष्य बनाओ. जहां कांग्रेस मुख्य प्रतिद्वंद्वी है. बाकी जगहों पर क्षेत्रीय ताकतों से हाथ मिलाओ. आने वाले दिनों में आंध्र प्रदेश में वायएसआरसीपी और तेलंगाना में केसीआर पर नज़र रखें. ओडिशा में पहले ही नवीन पटनायक से आधा सौदा हो चुका है.

6. आप उचित वजहों से मीडिया को दोष दे सकते हैं. भाजपा ने अपना खुद का मीडिया खड़ा करने या खरीदने और जो निष्पक्ष बचे रह गए हैं या रहना चाहते हैं, उन्हें दबाने के लिए राजनीतिक ताकत का अच्छे से इस्तेमाल किया है. लेकिन, ये स्वीकार करने के बावजूद, कांग्रेस ने मीडिया को कौन सा कथानक दिया? राहुल के बड़े मीडिया इंटरव्यू भी चुनावों के अंतिम चरणों में सामने आए. करीब से नज़र रख रहे हर किसी को ये साफ दिख रहा था कि कांग्रेस ट्विटर पर असर और वफादारों की वाहवाही को लेकर गलतफहमी पाल रही थी.

7. मोदी के आलोचक कभी उन्हें इस बात का श्रेय नहीं देंगे, लेकिन उनकी सरकार प्रमुख कल्याणकारी योजनाओं के कार्यान्वयन में अविश्वसनीय रूप से सक्षम रही. मैंने हाल में दो लेख लिखे थे: एक अर्थव्यवस्था/आधारभूत ढांचे के उन पांच क्षेत्रों पर केंद्रित था जहां कि भाजपा का प्रदर्शन यूपीए-2 के मुकाबले बहुत अधिक अच्छा रहा है, और दूसरा इसके प्रतिद्वंद्वियों से आगे रहने वाले चार कारणों पर. इनमें से दो चुनावों के संदर्भ में ‘किलर एप्स’ कहे जा सकते हैं: अगड़ी जातियों का अखिल भारतीय वोटबैंक जो निचली जातियों/अल्पसंख्यकों के तालमेल का मुकाबला करता है और अत्यंत कम मुद्रास्फीति जिसने सीमित अवधि के लिए बेरोज़गारी और आर्थिक मुश्किलों की पीड़ा को कम करने का काम किया.

8. पिछले पांच वर्षों में, कांग्रेस पार्टी के लिए छत्तीसगढ़, मध्यप्रदेश और राजस्थान में जीत उतनी बड़ी उपलब्धि नहीं थी, जितनी कि 2017 में मोदी को उनके ही राज्य गुजरात में बेहद कड़ी टक्कर देना. उस मुकाबले से दो बातें साफ हुई थीं. पहली बात ये कि ग्रामीण जनता और किसानों की मुश्किलों से भाजपा के मतदाता प्रभावित हो रहे थे.

दूसरी बात, चूंकि मोदी के पास तात्कालिक समाधान के नाम पर कुछ नहीं था, इसलिए वह राष्ट्रवाद, हिंदुत्व और भ्रष्टाचार के खात्मे के तीन बिंदुओं वाले चुनावी अभियान का रुख करेंगे, और इनमें से पहले बिंदु को केंद्रीय मुद्दा बनाएंगे. यहीं पर उन्हें चुनौती देने वाले चूक गए. मैं इस पर एक पूरा लेख लिख सकता हूं, आप में से कुछेक तो शायद इस पर पूरी थीसिस लिख डालेंगे. आप एक अपरिपक्व भारतीय राष्ट्रवाद का मुकाबला यूरोपीय वामपंथ के उलझाऊ धारणाओं के सहारे नहीं कर सकते. मैं इस बात पर कहीं भी खाना खिलाने की शर्त लगा सकता हूं, खान मार्केट तक में (माफ करें मोदी जी, यदि मैंने कॉपीराइट का उल्लंघन किया हो), कि जिन बुद्धिमानों ने देशद्रोह कानून को रद्द करने, अफस्पा और आधार के प्रावधानों को हल्का करने के वादों को घोषणा-पत्र में शामिल किया वे किसी दूसरे ग्रह पर नहीं तो कम-से-कम दूसरे देश में ज़रूर रहते हैं. इंदिरा और राजीव गांधी ये सब देखकर चकरा गए होते. क्या इन कानूनों को उदार बनाना सही विचार है: संपादकीय रूप से, हां. पर फिर तो आप जाकर संपादकीय वालों से अपने वोट जुटाएं.


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9. विगत एक दशक के दौरान चुनाव अभियान के दौरा हमारी यात्राओं में सामने आने वाली बातों में एक है युवाओं का वंशवादी विशेषाधिकारों और आभिजात्यवाद से बढ़ती विरक्ति. गुजरात से त्रिपुरा और जम्मू से तिरुअनंतपुरम तक, एक विचार समान रूप से दिखता है. अच्छा इंसान हैं, पर राहुल के पास अभी तक कोई अनुभव नहीं है. जब 10 वर्षों तक उनकी पार्टी सत्ता में थी तो उन्होंने कोई मंत्रालय संभाल कर अनुभव क्यों नहीं हासिल किया? अप्रतिबद्ध मतदाता अधिक बेलाग होते हैं. अपने जीवनयापन के लिए और अपनी जीवनशैली पर खर्च करने के लिए वह क्या करते हैं? मैं भी एक प्रशिक्षित गोताखोर या पायलट बनना चाहूंगा या मार्शल आर्ट में ब्लैक बेल्ट हासिल करना पसंद करूंगा. पर इसके लिए पैसे कहां से लाऊंगा? वो कैसे इंतजाम करते हैं?

जैसा कि हम एक दशक से कह रहे हैं, और मैं अपने ‘दीवार पर लिखी इबारत’ सिरीज़ में दर्ज करता रहा हूं, भारत में एक उत्तर-वैचारिक, मैं-आपके-या-आपके-मात-पिता-का-एहसानमंद-नहीं वाली पीढ़ी का उदय हो रहा है. उनमें से कुछेक का ही जेएनयू से वास्ता है. वे ज़मीन से जुड़े, अपने दम पर आगे बढ़े और अधिकारपूर्वक सत्ता का आनंद ले रहे मोदी की तुलना, महज अपने आभिजात्य विशेषाधिकार को जी रहे राहुल से किया करते हैं.

10. प्रियंका गांधी क्या कर रही थीं? उनसे मेहमान कलाकार की तरह काम लिया गया, ना कि रणनीतिक हथियार की तरह. उत्त प्रदेश में पुनरोदय का कांग्रेस का मोह आत्मघाती है. प्रियंका शायद राजस्थान, मध्यप्रदेश, कर्नाटक और महाराष्ट्र में ज़्यादा कारगर साबित होतीं जहां उनकी पार्टी का सीधा संघर्ष भाजपा से था. कांग्रेस के प्रचारकों में वह सबसे विश्वसनीय थीं, और उन्हें पूर्वी उत्तर प्रदेश में बेकार होने दिया गया.

11. मोदी के अपनी उपलब्धियों का बखान करने में कोई बुराई नहीं है. राहुल उनका मुकाबला कर सकते हैं. पर आप मुझे बताएं कि राहुल ने कब यूपीए-2 की अपनी शानदार उपलब्धियों का जिक्र किया. टी.एन. नाइनन अपने 500 शब्दों के एक सामान्य संक्षिप्त लेख में इन्हें गिना चुके हैं. 2009 और 2014 के बीच, 10 जनपथ ने संविधानेत्तर सत्ता केंद्र एनएसी के ज़रिए पांच वर्षों तक अपनी ही सरकार को कमज़ोर करने का काम किया, सिर्फ इसलिए कि दरबारियों को मनमोहन सिंह का दूसरे कार्यकाल के लिए बड़ी जीत हासिल करना रास नहीं आ रहा था. तब मैंने इसे कांग्रेस पार्टी का ऑटो-इम्युन रोग बताया था, एक निरंतर दुर्बल होते जाने की स्थिति, जब शरीर की प्रतिरक्षण प्रणाली अपने ही खिलाफ हो जाती है. उसमें कोई बदलाव नहीं हुआ है.

12. आखिर में, वामपंथियों की सोचें. वे राष्ट्रीय स्तर पर दो अंकों के आंकड़े को नहीं छू पाएंगे, उनका पश्चिम बंगाल और त्रिपुरा के अपने गढ़ों में खाता भी नहीं खुला और उन्हें मिलने वाली 5-6 सीटों में से अधिकतर तमिलनाडु से आई हैं, जहां वे डीएमके और कांग्रेस के साथ है, जिसका कि वे राष्ट्रीय स्तर पर विरोध करते हैं.

हम सारांश में ये कह सकते हैं: आम धारणा यही है कि विजेता के जीत से सीखने की अपेक्षा, हारने वाला अपनी पराजय से अधिक सबक लेता है. इसे कांग्रेस और भाजपा के संदर्भ में देखें तो, उन्होंने इस धारणा को उलट दिया है.

(इस खबर को अंग्रेजी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)

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