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Friday, 22 November, 2024
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दिल्ली हाईकोर्ट का तिहाड़ और गृह मंत्रालय से सवाल, आखिर कब दोगे कैदियों को वोट का अधिकार

दिल्ली हाईकोर्ट ने कैदियों के मताधिकार पर केंद्र सरकार (गृह एवं कानून मंत्रालय), निर्वाचन आयोग और तिहाड़ जेल के डायरेक्टर जनरल से जवाब मांगा है.

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नई दिल्ली: 25 अक्टूबर 1951. यही वो तारीख थी, जब मात्र चार साल के नन्हें देश में पहली बार मताधिकार का प्रयोग किया गया था. तब से अब तक 68 साल बीत गए हैं. काफी कुछ बदल गया है. 16 लोकसभा और हज़ारों विधानसभा चुनाव हो गए. 18 साल की आयु से ऊपर लोगों को अपने मताधिकार के प्रयोग की इजाजत है. इस समय देश भर में आम चुनाव की तैयारियां जोरो-शोरों से चल रही हैं. चुनाव आयोग ने भी अप्रैल-मई में होने वाले चुनाव के लिए कमर कस ली है. पहली बार वोट करने जा रहे युवा भी अपने मताधिकार के प्रयोग करने के लिए उत्साहित दिख रहे हैं. इसी बीच हमारे देश के जेलों में बंद कैदियों को वोटिंग का अधिकार दिलाने के लिए संघर्ष जारी है.

गलगोटिया युनिवर्सिटी में पढ़ने वाले तीन लॉ स्टूडेंट प्रवीण चौधरी, प्रेरणा सिंह और अतुल कुमार दूबे ने पिछले दिनों एक याचिका दायर की थी, जिसके बाद दिल्ली हाईकोर्ट ने कैदियों के मताधिकार पर केंद्र सरकार (गृह एवं कानून मंत्रालय), निर्वाचन आयोग और तिहाड़ जेल के डायरेक्टर जनरल से जवाब मांगा है. मुख्य न्यायमूर्ति राजेंद्र मेनन व न्यायमूर्ति वीके राव की पीठ ने तीन हफ्ते के भीतर जवाब देने को कहा है. मामले की अगली सुनवाई 9 मई को होगी.

कैदियों को वोट देने से वंचित करना, मूल संविधान के खिलाफ

छात्रों द्वारा दायर याचिका में संविधान के अनुच्छेद 62 (5) को चुनौती दी गई है, जिसमें जेलों में बंद कैदियों के अलावा एक जगह से दूसरी जगह ले जाए जा रहे सजा प्राप्त दोषियों को उनके वोटिंग अधिकार से वंचित रखने का प्रावधान है.

दिप्रिंट से बातचीत में याचिकाकर्ता प्रवीण चौधरी बताते हैं, ‘कैदियों को मत देने के अधिकार से वंचित करना संविधान के मूल सिद्धांत के खिलाफ है. हमारे देश का संविधान आर्टिकल 19 के तहत अभिव्यक्ति की आजादी देता है. लेकिन जेल यानी सुधार गृह में बंद कैदियों को वोट देने से वंचित करना, उनके मूल अधिकार का हनन है. और ऐसा करके हम उनकी अभिव्यक्ति की आजादी छीन ले रहे हैं.’

आपको कब लगा कि इस तरह की याचिका दायर करनी चाहिए ?

वे कहते हैं, ‘दरअसल हम लोग अपने बीए. एलएलबी के कोर्स में एक दिन इलेक्शन लॉ के बारे में पढ़ रहे थे. वहीं जब हमने कैदियों को वोट देने से वंचित करने वाली धारा 62 (5) के बारे में पढ़ा, तभी हमारे मन में ये सवाल आया कि ऐसा क्यों. फिर हमने सुप्रीम कोर्ट में प्रैक्टिस कर रहे वकील कमलेश मिश्रा से बात किया और बीते फरवरी को दिल्ली हाईकोर्ट में याचिका दायर कर दी.’

प्रवीण कहते हैं कि एनसीआरबी के डाटा के अनुसार देशभर में कुल 1401 जेल हैं. और चुनाव आयोग को उन जेलों में अपनी सुविधानुसार ईवीएम या बैलेट पेपर से चुनाव कराना चाहिए.

बता दें, एनसीआरबी की 2014 के आंकडे़ं के अनुसार 31 दिसंबर, 2015 तक देश के 1401 जेलों में कुल 4,19,623 कैदी हैं

प्रवीण आगे कहते हैं कि इसके बाद एनसीआरबी ने देशभर के कैदियों की संख्या से संबंधित कोई आंकड़ा जारी नहीं किया. इस जानकारी को प्राप्त करने के लिए उन्होंने आरटीआई भी डाली है, लेकिन एक महीना बीत जाने के बाद भी कोई जवाब नहीं आया है.

वहीं वकील कमलेश मिश्रा बताते हैं कि ‘हम संविधान द्वारा दिए गए समानता का अधिकार का अनुसरण कर रहे हैं. कैदियों को यह अधिकार बहुत पहले ही मिल जाना चाहिए था, लेकिन हमारी कोशिशें जारी हैं.’

उठ रहे हैं विरोध के स्वर भी

एक तरफ जहां कैदियों को वोट देने के अधिकार पर संघर्ष चल रहा है, वहीं कुछ लोग ऐसे भी हैं, जिनको इस अधिकार से ऐतराज है.

सुप्रीम कोर्ट में प्रैक्टिस कर रहे वकील रोहित कालरा कहते हैं, ‘अगर हम कैदियों को वोट देने का अधिकार दे देंगे तब नेता लोग उनके वोटों के जुगाड़ में लग जाएंगे और उनके लिए तरह-तरह की योजनाएं बनाने लगेंगे, जिससे हमारे समाज का ही नुकसान होगा. इसके अलावा जेलों के अंदर कैदियों के बीच दलगत गुटबाजी होने की भी संभावनाएं बनने लगेंगी.’

वहीं पीएचडी स्कॉलर मोहम्मद फजले किब्ररुयां सवाल उठाते हुए कहते हैं कि हमारे देश में वोट देने का अधिकार आखिर 18 साल से ऊपर आयु के लोगों को क्यों दिया गया है? आखिर हम किसी 5 साल के बच्चे को क्यों सांसद या विधायक चुनने का मौका नहीं देते हैं. क्योंकि वो अभी परिपक्व नहीं है. उसी तरह जेल में बंद कैदी हमारे समाज के लिए घातक होते हैं, इसलिए उनके मत का भरोसा नहीं किया जा सकता है. ये पूर्ण रूप से जजमेंट का विषय है.

अन्य देशों में है ये कानून

कैदियों को वोटिंग का अधिकार देने का प्रावधान बाकी देशों के लिए कोई नई बात नहीं है. दक्षिण अफ्रीका, कनाडा और न्यूजीलैंड जैसे देशों में ये पहले से लागू है. वहीं पाकिस्तान में हुए हालिया आम चुनाव में भी इसकी कोशिश की गई थी.

तिनका-तिनका तिहाड़ किताब की लेखिका और वरिष्ठ पत्रकार वर्तिका नंदा दिप्रिंट से बातचीत में कहती हैं, ‘मैं कैदियों को वोटिंग राइट देने के पूर्ण समर्थन में हूं. मेरा मानना है कि जेलों से बाहर व्यक्तियों को जब वोटिंग का अधिकार है, तो जेल के अंदर रहने वाले लोगों को क्यों नहीं है. जब हम जेल के अंदर रहने वाले सजाप्राप्त लोगों को अपना विधायक और सांसद चुन लेते हैं तो फिर उन्हें वोट देने के अधिकार से वंचित नहीं करना चाहिए.’

वे आगे कहती हैं, ‘जो जेलों में जाते हैं, वो अपराधी हीं हो ऐसा जरूरी नहीं है. उसमें बहुत सारे ऐसे लोग भी होते हैं जिन्हें अपने किए पर अफसोस होता है. ऐसे में उनका वोटिंग अधिकार छीनना किस आधार पर तार्किक है.’

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