नई दिल्ली: देश में सबसे प्रतिष्ठित पेशों में से एक, मेडिकल शिक्षा आज भी आरक्षण के बावजूद निचली जातियों, जनजातियों और अन्य पिछड़े वर्गों की पहुंच से मीलों दूर है.
सरकार द्वारा आर्थिक रूप से गरीब सवर्णों के लिए लाए गए 10 फीसदी आरक्षण से इसका दायरा 60 प्रतिशत होने जा रहा है. लेकिन अगर बात मेडिकल शिक्षा की करें तो आरक्षित वर्ग की सीटें अभी भी भरने में नाकामयाब है.
अखिल भारतीय उच्चतर शिक्षा सर्वेक्षण (एआईएसएचई) के 43 मेडिकल कोर्स में दाखिल छात्रों के निकाले गए आंकड़ों के अनुसार मेडिकल शिक्षा में आरक्षित वर्गों के छात्रों का हाल:
अनुसूचित जातियां (15 फीसदीआरक्षण)
पिछले सात साल की औसत में अनुसूचित जनजातियां 43 मेडिकल कोर्सों में से 39 कोर्सों में अपने कोटे की 15 प्रतिशत सीटें नहीं भर पाई. यहां तक कि एमबीबीएस कोर्स में भी वे कुल छात्रों का 8.9 प्रतिशत ही रही, जो उनके आरक्षित कोटे के आधे से थोड़ा ही अधिक है.
एआईएसएचई की नवीनतम 2017-18 की रिपोर्ट के अनुसार एमबीबीएस कोर्स में मात्र 9.03 प्रतिशत छात्र ही अनुसूचित जाति के थे. यहां तक कि दन्त चिकित्सा की स्नातक डिग्री में भी अनुसूचित जातियां कुल छात्रों का 7.59 प्रतिशत ही थीं.
लेकिन मुख्य डॉक्टरी के कोर्स की बजाय अनुसूचित जातियों के छात्रों ने नर्सिंग और मिडवाइफ (दाई) बनने के कोर्सों में अधिक रुचि दिखाई है. साधारण नर्सिंग और मिडवाइफ एवं सहायक नर्सिंग और मिडवाइफ के कोर्स में अनुसूचित जनजातियां औसतन कुल छात्रों का क्रमशः 21.3 प्रतिशत और 21.7 प्रतिशत रही हैं जो उनके आरक्षण के 15 प्रतिशत कोटे से भी ज़्यादा है.
अनुसूचित जनजातियां (आरक्षण – 7.5 फीसदी)
43 में से तकरीबन 39 मेडिकल कोर्सों में अनुसूचित जनजातियां कुल सीटों के 7.5 फीसदी से कम ही रहीं. एमबीबीएस कोर्स में उनकी पिछले सात सालों की औसत में वे कुल छात्रों का 3 प्रतिशत ही रह पाए.
नवीनतम एआईएसएचई की रिपोर्ट के अनुसार 2017-18 में एमबीबीएस में मात्र 3.81 फीसदी छात्र ही अनुसूचित जनजाति से थे जो उनके कोटे के आधे से थोड़ा ही ज़्यादा था.
अनुसूचित जातियों की भांति ही अनुसूचित जनजातियां भी नर्सिंग और मिडवाइफ के कोर्स में खूब रुचि दिखा रही हैं. जहां जनरल नर्सिंग और मिडवाइफ के कोर्स में उनका दाखिला औसतन 9.27 फीसदी था, वहीं सहायक नर्स और मिडवाइफ के कोर्स में उनका दाखिला औसतन 10.41 फीसदी था, जो उनके 7.5 फीसदी कोटे से भी ज़्यादा था.
इसके अलावा अनुसूचित जनजातियों के छात्रों ने नेचुरोपैथी में आयुर्वेदा की स्नातक डिग्री (15 फीसदी दाखिला) और पशुचिकित्सा की स्नातक (10.41 फीसदी दाखिला) डिग्री कोर्स में सबसे ज़्यादा रुचि दिखाई.
अन्य पिछड़े वर्ग (27 फीसदी आरक्षण)
अनुसूचित जातियों और जनजातियों की तुलना में अन्य पिछड़े वर्ग कुछ बेहतर दिखाई पड़ते हैं. 43 में से केवल 32 कोर्सों में वे अपने कोटे की सीटें न भर पाए.
एमबीबीएस में भी उनके दाखिले की औसत 23.3 प्रतिशत रही जो उनके 27 फीसदी कोटे से कम है.
मौजूदा नवीनतम एआईएसएचई की रिपोर्ट के अनुसार साल 2018 में एमबीबीएस कोर्स में अन्य पिछड़े वर्गों का दाखिला 25.75 फीसदी था. (जो अब भी उनके कोटे से कम है)
लेकिन अनुसूचित जातियों और जनजातियों के विपरीत अन्य पिछड़े वर्गों ने जनरल नर्सिंग और मिडवाइफ में ज़्यादा रूचि नहीं दिखाई, उनका दाखिला(24 फीसदी) इसमें उनके कोटे से कम ही था.
लेकिन औषधियों से सम्बंधित सभी स्तर के कोर्सों में उन्होंने अपने कोटे की सीमा लांघ कर गहरी रुचि दिखाई. फार्मा के डिप्लोमा में 33.67 फीसदी, स्नातक डिग्री में 32.53 फीसदी, स्नातकोत्तर में 28.95 फीसदी , डाक्टरल डिग्री में 33.68 फीसदी छात्र ओबीसी केटेगरी से थे.
आरक्षित छात्रों के लिए दाखिले में ऐसी विविधता क्यों?
नई दिल्ली के राम मनोहर लोहिया अस्पताल के डीन और मेडिकल शिक्षा के विशेषज्ञ डॉ. राजीव सूद के अनुसार एससी और एसटी वर्ग के लोग एमबीबीएस और डेंटल कोर्स में दाखिला नहीं लेने का कारण कोर्स की समय अवधि और कोर्स पर आने वाला खर्च है.
डॉ.सूद के अनुसार, ‘ये कोर्स बहुत लंबे, समय लेने वाले और अधिक निवेश की मांग करते हैं. कॉलेज में पढ़ाई के समय भी और कोर्स पूरा करने के बाद भी. एक बार कॉलेज से पास होने के बाद उन्हें क्लिनिक और अस्पताल खोलने में निवेश करना पड़ता है. और हर कोई इसके लिए तैयार नहीं हो पाता.’
उन्होंने आगे कहा, ‘इसकी अपेक्षा नर्सिंग कोर्स एक कम अवधि का कोर्स है जिसमें कम निवेश करके जल्दी लाभ मिल सकता है. इसमें प्रवेश लेने वाले छात्र बहुत जल्दी कमाना शुरू कर देते हैं ’
डॉ. सूद यह भी बताते हैं, ‘एमबीबीएस और दंत चिकित्सा कोर्स में दाखिला लेने वाले बहुत सारे आरक्षित वर्ग के छात्र पहले ही साल प्रेशर नहीं झेल पाने के कारण कोर्स छोड़ देते हैं.’
भारत सरकार में मेडिकल एजुकेशन के अतिरिक्त महानिदेशक, बी. श्रीनिवास के अनुसार स्कूल में मिलने वाली बुनियादी शिक्षा एक बड़ा कारण है जिसकी वजह से छात्रों को आगे दिक्कतें झेलनी पड़ती हैं
दिप्रिंट से बातचीत में उन्होंने कहा, ‘आरक्षित श्रेणियों से आने वाले कई छात्र ऐसे स्कूलों से आते हैं जहां हिंदी माध्यम में पढ़ाई होती है जबकि एमबीबीएस का पूरा कोर्स अंग्रेजी में पढ़ाया जाता है’.
डॉक्टर श्रीनिवास के अनुसार आरक्षण वाली सारी सीटें एडमिशन के समय भर जाती हैं, लेकिन उनमें से कुछ छात्र एक या दो साल के बाद ही कोर्स छोड़ कर चले जाते हैं.
उनके अनुसार, ‘ऐसा दो कारणों से हो सकता है. पहली दिक्कत भाषा की होती है. मेडिकल कोर्स की भाषा अंग्रेजी होने से इन्हें काफी दिक्कते आती हैं. दूसरी समस्या उनकी नींव कमजोर होती है. इसको लेकर हमने नवीनतम कोर्स में अब दो महीने का फाउंडेशन कार्यक्रम रखा है जिसमें छात्रों को उनकी अंग्रेजी सुधारने के साथ-साथ कोर्स के साथ परिचित भी करा दिया जाता है.
उन्होंने यह भी समझाया कि आखिर क्यों आरक्षित श्रेणियां एमबीबीएस की बजाय नर्सिंग के कोर्सों में रूचि दिखाती हैं.
‘एमबीबीएस की तुलना में इन कोर्सों में प्रवेश प्राप्त पाना अपेक्षाकृत आसान होता है. सिर्फ एंट्रेंस टेस्ट ही नहीं इनका सिलेबस भी इतना मुश्किल नहीं होता तो छात्र अपनी डिग्री आसानी से पूरा कर लेते हैं.’
इन आंकड़ों के बावजूद, अनुसूचित जातियां और जनजातियां सामाजिक सीढ़ियों की ऊंचाइयां छू रहें.
डॉक्टर श्रीनिवास की मानें, ‘नर्सिंग, मिडवाइफ कोर्स में अनुसूचित जातियों और जनजातियों ने गहरी रुचि दिखाई है. इन कोर्सो से रोजगार की संभावनाए , खासतौर से देश के दुर्गम और दूर दराज़ क्षेत्रों में ज्यादा है. जिन इलाकों में डॉक्टर नहीं पहुंच पाते वहां पर इस वर्ग से आए छात्र इन परिस्थितियों में खुद को असानी से ढाल लेते हैं. हालांकि, वे डॉक्टर के तौर पर भले प्रैक्टिस नहीं कर सकते लेकिन इन इलाकों में उन्हें काफी सम्मान मिलता है.’
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Aarkshan wale doctor we ilaj nhi karvana chahiye
Kyuki unhe kuch gyan hi nhi hai
Aarkshan se bharti hue hai
Desh ki barbadi ke karan aarkshan.