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Friday, 22 November, 2024
होममत-विमतजिसकी हेडलाइन उसकी भैंस: मोदी कैसे बने रहते हैं सुर्खियों के सरताज

जिसकी हेडलाइन उसकी भैंस: मोदी कैसे बने रहते हैं सुर्खियों के सरताज

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अगर सुर्खियों में बने रहना ही सबसे बड़ी राजनीति है, तो भाजपा ने इसमें अपनी महारत साबित कर दी है और उसे मात देना मुश्किल लग रहा है.

जरा पिछले हफ्ते के अखबारों के पहले पन्ने के शीर्षकों और टीवी चैनलों के प्राइम टाइम पर मची चीख-पुकार पर गौर कीजिए. इनमें चाचा-भतीजा मेहुल चोकसी तथा नीरव मोदी, और पंजाब नेशनल बैंक से पैसे चुराने के उनके कारनामे ही छाये थे. उनके साथ-साथ रोटोमैक पेन बनाने वाले विक्रम कोठारी से लेकर 1,000 करोड़ रु. के आसपास के घोटाले करने वाले कुछ और छोटे-मोटे घोटालेबाजों की खबरें भी आईं. ऐसा लगा कि सरकारी बैंकों पर डाके डालने का एक दौर ही चल पड़ा है.

‘न खाऊंगा, न खाने दूंगा’ की बुलंद घोषणा करके सत्ता में आई सरकार के लिए यह कोई अच्छी बात नहीं थी. कांग्रेस से लेकर तमाम आलोचक प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के इस दावे का मखौल उड़ाने लगे कि वे तो ‘‘जनता के पैसे के चौकीदार’’ हैं. टीकाकार कहने लगे कि भ्रष्टाचार पर लगाम लगाने को लेकर भाजपा के ऊंचे-ऊंचे दावों की पोल खुल गई है, खासकर इसलिए कि दावोस में खींची गई एक ग्रुप फोटो में नीरव मोदी प्रधानमंत्री के बिलकुल करीब खड़े नजर आए. टैक्स की चोरी करके या कर्ज लेकर देश से भागने वाले नीरव मोदी के साथ विजय माल्या और ललित मोदी के किस्से भी याद किए जाने लगे. भाजपा के दबंग से दबंग प्रवक्ता भी टीवी चैनलों पर हकलाते दिखे. सीबीआइ ने जो एफआइआर दायर की, उन सबने उनके इन दावों को ध्वस्त कर दिया कि ये घोटाले 2011 में यूपीए सरकार के दौर में ही किए गए थे. अब वे सुर्खियां बदरंग नजर आने लगीं, तो उन्हें दफन कर दिया गया. नई सुर्खियां सामने आने लगीं.

अब मैं यह नहीं कह रहा कि श्रीदेवी की अचानक मौत के साथ कोई रहस्य जुड़ा है. वह मौत एक त्रासदी के सिवा कुछ नहीं थी. लेकिन जो बड़ा बदलाव आया, वह ‘मैन-मेड’ या कहें ‘भाजपा-मेड’ था. इसलिए जब कि यह स्तंभ छपने जा रहा है, उन बदली हुई सुर्खियों को याद कीजिए- क्या कार्ति चिदंबरम ने इंद्राणी व पीटर मुखर्जी से सात लाख डॉलर लिये? क्या कार्ति के पिता ने यह ‘डील’ करवाई? कार्ति को जेल में अपने घर का खाना नहीं लेने दिया जा रहा है, लेकिन जज ने उन्हें सोने का हार पहने रहने की छूट दे दी है, आदि-आदि.

पूरा विमर्श बदल गया है. उन्हें पिछले कई सप्ताहों में कभी भी गिरफ्तार किया जा सकता था. जरा गौर कीजिए, उन्हें गिरफ्तार तब नहीं किया गया जब वे देश छोड़ रहे थे बल्कि तब किया गया जब हवाई अड्डे पर इमिग्रेशन के लिए पहुंचे. क्योंकि अगर आप कोई संदेश देना चाहते हैं तो उसके लिए समय का चुनाव ही असली चीज है.

यह हथौड़े की चोट जैसी थी. लेकिन जरा दूसरी, ज्यादा बड़ी कलाकारी पर ध्यान दीजिए. लोकपाल की नियुक्ति को चार वर्षों तक ठंडे बस्ते में रखे रहने के बाद अचानक उसकी याद की जाती है. जैसी कि उम्मीद थी, कांग्रेस ने आपत्ति की और तब सुर्खियों की दूसरी खेप सामने आने लगी. और इसके बाद सबसे ताजातरीन सुर्खियां! इस सप्ताह केंद्रीय मंत्रिमंडल की बैठक में नीरव मोदी जैसे भगोड़ें के लिए नया कानून बनाने का फैसला किया गया. इस कानून के तहत उस व्यक्ति को भगोड़ा घोषित कर दिया जाएगा, जो प्रवत्र्तन एजेंसियों की नोटिस का छह हफ्ते के भीतर जवाब नहीं देता. अब आप यह सोचेंगे कि माल्या या नीरव-मेहुल जैसों को भगोड़ा घोषित कर दिया गया तो इससे क्या फर्क पड़ेगा. इसके अलावा, यह सवाल तो जायज है ही कि क्या वे वाकई भगोड़े नहीं हैं? और कोई मौका होता तो मैं इसे ‘लॉलीपॉप राजनीति’ (हर समस्या के समाधान के लिए कानून की लाठी भांजने की राजनीति) कह कर खारिज कर देता. लेकिन यह मौका ऐसा नहीं है, क्योंकि यह मकसद को बड़ी कलाकारी से पूरा करता है.

कुछ ऐसी अफवाहें भी उठीं कि सरकार ऐसे नियम बनाने जा रही है कि इमिग्रेशन अधिकारी ही उन लोगों को देश से बाहर नहीं जाने देंगे, जिन्होंने बैंक कर्जों का भुगतान जानबूझकर रोक रखा है. अब, न्यायपूर्ण कानून और मौलिक अधिकारों के पहलू से विचार करें तो यह सवाल उठेगा कि यह फैसला कौन करेगा कि कोई नागरिक दुराग्रही ‘डिफॉल्टर’ है या यह व्यापार में घाटे का सच्चा मामला है? इसके अलावा, क्या यह भारतीय पुलिस का पुराना तौरतरीका नहीं है जिसमें उस घर के आगे सिपाहियों को तैनात कर दिया जाता था, जहां तुरंत-तुरंत चोरी हुई हो, भले ही वे चोरियां रोकने में विफल रहे हों?

अब जरा आज की, और एक सप्ताह पहले की राजनीति की तुलना कीजिए, जब भाजपा मुश्किल में थी. आज हरेक टीवी चैनल पर भाजपा फिर आक्रामक मुद्रा में है और कांग्रेस चिदंबरम का बचाव करती दिख रही है. कहीं लोकपाल, भगोड़ा विरोधी कानून, और डिफॉल्टरों पर इमिग्रेशन की लगाम लगाने के प्रस्तावित कदमों पर संपादकीय लिखे जा रहे हैं, तो कहीं इन पर परिचर्चाएं आयोजित की जा रही हैं. एक नये नियमनकर्ता (रेगुलेटर) की नियुक्ति की घोषणा की गई है, जो सरकारी बैंकों पर नजर रखने वाले चार्टर्ड एकाउंटेंटों पर नजर रखेगा. इन बैंकों को आदेश दिया गया है कि वे 50 करोड़ रु. से ऊपर के उनके कर्ज का जानबूझकर भुगतान न करने वालों के बारे में सीबीआइ को खबर करें.

याद रहे कि यह सब इन तमाम घेरेबंदियों को लागू करने से पहले तब शुरू हुआ था जब भारी थैलों वाले ज्वेलर 20 हजार करोड़ रु. लेकर चंपत हो गए थे, जब उनके से एक ज्वेलर दावोस की उस फोटो में दिखा था और दूसरे का जिक्र प्रधानमंत्री ने, मजाक में ही सही, ‘‘मेहुल भाई’’ के नाम से किया था. वह सब बुरी खबरे थीं, भूला दी जाने लायक, और भुला दी गईं. जिस सरकार पर भारी लूट को न रोक पाने, कथित चोरों से दोस्ती और मिलीभगत करने, अपनी आंखों के सामने सरकारी बैंकों को दिवालिया करने के लिए कोसा जा रहा था, उसका एक सप्ताह के भीतर ही महिमागान किया जाने लगा कि वह भ्रष्टाचार से कितनी सख्ती और संकल्प के साथ लड़ रही है.

यही तो सुर्खियों पर नकेल कस कर राजनीति करने की कला है.

इस सरकार के अब तक चार वर्षों में जो बड़े संकट उभरे उनकी सूची बनाइए तो आप पाएंगे कि एक ही तरकीब बार-बार अपनाई जाती रही है. उरी में जब झटका लगा तो उसे जल्दी ही बेहद नाटकीय ‘सर्जिकल स्ट्राइक’ के जरिए फीका किया गया. उस पर सवाल उठाना सेना पर शक करना होगा, इसलिए विपक्ष लगभग खामोश रहा बल्कि उसकी तारीफ की. जब नोटबंदी से परेशानियां असहनीय स्तर पर पहुंचने लगीं, तो देश के विभिन्न भागों में करोड़ों की रकम में नकदी बरामद किए जाने की खबरें और तस्वीरें आने लगीं. लेकिन जल्द ही यह साफ हो गया कि उनमें से अधिकतर तस्वीरें नकली थीं. जो भी हो, कुछ समय के लिए तो लोगों का मूड बदल ही गया.

रोहित वेमुला की आत्महत्या के बाद तुरंत निशाने पर आ गए जेएनयू, और कन्हैया कुमार तथा उमर खालिद के कथित ‘‘भारत तेरे टुकड़े…’ वाले भाषण (हालांकि किसी ने अभी तक वह वीडियो नहीं देखा है जिसमें ये दोनों यह नारा लगाते दिखे हों) को लेकर उनके खिलाफ दायर देशद्रोह का मुकदमा. डोकलाम विवाद और भी ज्यादा अहम मसला था और इसके लिए सीधा-सा तरीका अपनाया गया- टीवी चैनलों तथा अखबारों को महज ‘‘समझाया’’ गया कि राष्ट्रहित में वे इसे ज्यादा न उछालें. हमारे किसी मसखरे कमांडों ने डोकलाम की चर्चा तक नहीं की, हालांकि हर शाम उन्हें सुनते हुए ऐसा लगता है कि वे तो बस अपने बूते ही कश्मीर में सीमा पार सर्जिकल स्ट्राइक करने को बेताब हैं.

सभी सरकारें जो संदेश देना चाहती हैं उसकी जिम्मेदारी लेती हैं, लेकिन मोदी-शाह की भाजपा ने इसे एक नफीस कला बना दिया है. सभी नई सुर्खियां वोटों की खातिर ब्रांड मोदी की तीन मूल तत्वों की पुष्टि करती हैं- मोदी भ्रष्टाचार के खिलाफ लड़ रहे ऐसे योद्धा हैं जो भ्रष्टाचार नहीं कर सकता; वे हिंदुत्ववादी राष्ट्रवाद के अडिग संरक्षक हैं; उनके कंधे इतने चौड़े हैं और छाती इतनी चौड़ी है कि कोई भी संकट उनके चेहरे पर शिकन नहीं आने देते. ऐसा क्यों है? क्योंकि उन्हें पता है कि उन्होंने कोई गलत काम नहीं किया और वे अजेय हैं.

यही वजह है कि वे किसी झटके पर कोई प्रतिक्रिया नहीं करते. इसके बरअक्स मनमोहन सिंह और उनकी सरकार को देखिए. वे तो इसी अफवाह पर मुंह छिपा लेते कि किसी ने उनकी नजरों के सामने किसी सब्जीवाले की टोकरी से टमाटर चुरा लिये. इसलिए मोदी की सरकार किसी संकट का कैसे सामना करती है, इस पर गर्व कीजिए और उसके राजनीतिक कौशल पर तालियां बजाइए.

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