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कोरोना संकट के इस समय में मोदी सरकार अर्थव्यवस्था और जनता, दोनों की जरूरतें पूरी करने में नाकामयाब हुई है

राष्ट्रीय स्तर की इस भयावह मानवीय त्रासदी के प्रति मोदी सरकार ने जो शर्मनाक रवैया अख्तियार किया, उसे ‘असंवेदनशील’ भर कहना स्थिति की वास्तविकता से मुंह फेरना होगा.

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने अपने चेहरे को कवर कर राष्ट्र के लिए 14 अप्रैल के संबोधन किया । फोटो: एएनआई

यह खरी-खरी कहने का वक्त है. और, सीधी-सच्ची बात ये है कि वक्त हमारे लिए ठहर गया है. आज का दिन भी गुजरे कल की तरह कोरोना संक्रमित मरीजों की तादाद के एक नई ऊंचाई पर पहुंचने की खबर लेकर पहुंचा है कल ही की तरह आज भी खबरों का एक रेला सड़कों पर पैदल चल रहे और ट्रकों में ठसाठस लदकर जा रहे दुखियारे मजदूरों की दुर्दशा बयान कर रहा है गुजरे कल की ही तरह आज के दिन भी हमारा सामना एक ऐसे अविवेकी वित्तमंत्री से है जो पानी सिर के ऊपर से गुजरने की नौबत आने के बाद भी संकट में फंसी अर्थव्यवस्था के कठिन सवालों को दरकिनार कर अपनी कुर्सी पर कायम है. अप्रत्याशित स्वास्थ्य-संकट और आर्थिक संकट के दो माह पूरे होने जा रहे हैं तो अब अब वक्त ये परखने का है कि मोदी सरकार ने इस आपदा से निबटने के जो कदम उठाये वो कितने कारगर रहे.

सरकार ने शुरुआती तौर पर जो कदम उठाये उन्हें सिरे से नकारने की मेरी कोई मंशा नहीं. मैंने अपने इस कॉलम में प्रधानमंत्री की लॉकडाऊन की घोषणा का समर्थन किया था और ये भी लिखा था कि आपदा को लेकर जैसी तैयारी होनी चाहिए थी, लॉकडाऊन को लेकर जो वक्त चुना जाना चाहिए था और जो-जो बातें सार्वजनिक की जानी चाहिए थीं, उसमें सरकार के सिरे से बहुत कुछ आधा-अधूरापन रहा है.

फैसला लेना कठिन था लेकिन प्रधानमंत्री ने बड़ी मजबूती दिखाते हुए फैसला लिया. अगर अनिर्णय की मनोदशा में पड़े रहते या फिर फैसला लेने में कुछ और देर होती तो हमारी हालत आज की बनिस्बत कहीं ज्यादा खराब होती. पीछे मुड़कर देखने पर अब लगता है कि हमने फैसला लिया तो जरुर लेकिन उसमें पहले ही बहुत देरी हो चुकी थी लेकिन मात्र इस आधार पर सरकार को दोषी करार देना ठीक ना होगा. बीमारी को लेकर उस समय विश्व-स्तर पर जो जानकारी मौजूद थी और बीमारी को लेकर जैसी जागरुकता थी उसे देखते हुए हम ये नहीं कह सकते कि सरकार ने जानते-बूझते निर्णायक फैसला करने में देरी की. एक तरह से देखें तो हमने कई देशों की तुलना में कहीं ज्यादा तेजी से कदम उठाया.

अभी जो अफरा-तफरी का आलम दिख रहा है, उस सबके लिए अकेले सरकार को दोषी ठहराना भी ठीक नहीं. महामारी एकदम से अचानक आ धमके तो फिर बेहतर से बेहतर जगह पर भी अफरा-तफरी का मचना तय है. भारत जैसे देश की स्थिति तो खैर महामारी के अचानक आ धमकने की हालत में और भी ज्यादा खराब होगी क्योंकि यहां सरकारी स्वास्थ्य सेवाएं कुछेक बुनियादी मामलों में खस्ताहाल हैं और महामारी सरीखी आपदा से निपटने के हमारे इंतजाम भी बहुत लचर हालत में हैं.


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सरकार के दोष गिनाते हुए हमें इस बात पर जरुर नजर रखनी होगी कि भारत सरीखे देश की जमीनी सच्चाइयों को देखते हुए हम क्या उम्मीद पाल सकते थे और क्या कुछ बीमारी की रोकथाम तथा अर्थव्यवस्था को उबारने के मोर्चे पर हासिल कर सकते थे.

साथ ही, हमें ये भी मानकर चलना होगा कि कुछ भूल-गलतियां भी होंगी. अगर आपदा ऐसी विकट हो तो नेकनीयती से भरा हुआ बेहतर से बेहतर नेता भी फैसले लेने में कहीं-कहीं भूल कर सकता है. ऐसी गलतियों की आलोचना तो होनी चाहिए लेकिन ऐसी सूरत में नेता को गलत फैसले लेने का दोषी करार नहीं दिया जा सकता.

अफसोस कहिए कि इस उदार नजरिये से भी परखें तो निकलकर यही आता है कि नरेन्द्र मोदी की सरकार ने ऐन जरुरत की इस घड़ी में देश को नाकाम किया. स्वास्थ्य संकट पर लगाम कसने के मामले में सरकार इधर-इधर हाथ-पांव मारते नजर आयी, आर्थिक संकट को काबू करने के मोर्चे पर नकारा साबित हुई और देश जो मानवीय त्रासदी झेल रहा है उसको लेकर सरकार अत्यंत असंवेदनशील दिखी.

फेल होती स्वास्थ्य व्यवस्था

शुरुआत स्वास्थ्य-संकट के मोर्चे पर उठाये गये कदमों की परीक्षा से ही करें. महामारी की रोकथाम के लिहाज से प्रधानमंत्री ने जो शुरुआती फैसले लिये, हम उसके लिए उन्हें दोषी नहीं ठहरा सकते. हम ये नहीं कह सकते कि प्रधानमंत्री महामारी के तेज प्रसार को लेकर पर्याप्त सजग नहीं थे ( ऐसा विश्व के दूसरे मुल्कों के नेताओं के साथ भी हुआ) क्योंकि उस वक्त तक कोरोना के प्रसार को लेकर परस्पर विरोधी अनुमान लगाये जा रहे थे फिर भी, प्रधानमंत्री को कुछ सवालों का सामना करना ही होगा कि : आखिर, वैकल्पिक तौर पर जब सुझाया जा रहा था कि शुरुआती चरण से ही ज्यादा से ज्यादा टेस्टिंग कर ली जाये तो प्रधानमंत्री ने ऐसे सुझाव पर ध्यान क्यों नहीं दिया ? प्रधानमंत्री ने महामारी रोकने के केरल के मॉडल से कुछ सबक लेने और उसे देशस्तर पर अमल में लाने की कोशिश क्यों नहीं की ?

आखिर, उन्होंने देशहित पर राजनीतिक द्वेष को क्यों तवज्जो दी ? जब प्रधानमंत्री के समर्थक बीमारी को सरेआम सांप्रदायिक रंग देने की कोशिश कर रहे थे तो उन्होंने ऐसे समर्थकों के खिलाफ कड़े कदम क्यों नहीं उठाये ? जब एक बार ये जाहिर हो गया कि लॉकडाऊन बीमारी की बढ़ती हुई ऋंखला को तोड़ पाने में और मरीजों की बढ़ती हुई तादाद के ग्राफ को एक समशील बिन्दु पर ठहरा पाने में नाकाफी है तो भी उन्होंने लॉकडाऊन को एकमात्र समाधान बताकर क्योंकर पेश किया ? समय रहते गलती सुधार लेने की जो बात युक्तिसंगत लग रही थी उसे क्यों नहीं माना, क्या प्रधानमंत्री को अपने अहं और छवि की चिन्ता ज्यादा थी, बीमारी के प्रसार की कम ? और, इस सिलसिले का आखिरी सवाल ये कि आखिर सरकार का कोई आला ओहदेदार ( कई देशों में ऐसे मामलों में सरकार के प्रधान सवालों का जवाब देते हैं, हमारे यहां तो कोई मंत्री भी जवाब देने के लिए नहीं आता) महामारी पर सवालों के जवाब देने के लिए क्यों नहीं आता ? भावी रणनीति क्या है ? क्या सरकार कुछ छिपाना चाहती है ?

इन सवालों के जवाब आसान नहीं हैं और देश के सामने सरकार को लेकर यही धारणा बनती है कि ये सरकार अपने उपायों के घेरे में खुद ही फंस चुकी है लेकिन ये नहीं जानती कि इस बात को लोगों के सामने कैसे स्वीकार करे या फिर घेरे से निकलने के लिए कैसे मदद मांगे.

आर्थिक प्राथमिकताओं के लिए गलत निर्णय

जहां तक आर्थिक मोर्चे का सवाल है, हम अपनी परख में इस बात को स्वीकार करके चलें कि सरकार कुछ वित्तीय बाधाओं का सामना कर रही है, हालांकि इसकी जिम्मेवार भी सरकार ही है क्योंकि उसने कारपोरेट जगत की कर्जमाफी करने के लिए गलत समय चुना और राजस्व प्राप्ति को लेकर बातें बढ़ा-चढ़ाकर पेश की. फिर भी, हमें सरकार से ये जरुर पूछना चाहिए कि सरकार ने मांग बढ़ाने ( हर महत्वपूर्ण अर्थशास्त्री के जोर देने के बावजूद) की दिशा में क्यों जोर नहीं दिया ?

आखिर, बैंकों को इतनी नकदी देने पर जोर क्यों है जबकि मार्च में जो नकदी दी गई थी, बैंकों उसका कोई खास इस्तेमाल नहीं कर पाये हैं ? उद्योगपति, व्यापारी, किसान और मजदूर जो कुछ मांग रहे थे, आखिर सरकार ने उसपर ध्यान क्यों नहीं दिया ? सरकार नें संकट से निबटने के लिए अतिरिक्त राजस्व जुटाने के प्रयास क्यों नहीं किये जबकि इस बाबत उसे जरुरी सुझाव मिले थे ?

आखिर संकट के इस समय का इस्तेमाल एक मौके के रुप में करते हुए श्रम कानूनों, कृषि-क्षेत्र, पर्यावरण तथा निवेश जैसे क्षेत्रों में नीतिगत परिवर्तन करने में क्यों किया गया जबकि ऐसे कदमों का कोरोना-संकट की रोकथाम से कुछ भी लेना-देना नहीं है ? और, एक सवाल ये भी कि लोगों को बताया क्यों नहीं जा रहा कि देश किस आर्थिक दशा में पहुंच चुका है ? आखिर, ‘पैकेज’ को बड़े बचकाने ढंग से ऐसे पेश करने की क्या जरुरत आन पड़ी थी मानो ‘बीस लाख करोड़’ का जादुई आंकड़ा किसी तरह पूरा हो जाय ?


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मानवीय क्राइसिस

ये सवाल हमें एक उदास जवाब की तरफ ले जाते हैं : दुनिया की तीसरी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था जब भयानक मंदी की गिरफ्त में है तो आर्थिक मोर्चे पर कदम उठाने का जिम्मा अधकचरी समझ वाले अर्थशास्त्रियों और अज्ञानी तथा अहंकारी राजनेताओं के भरोसे छोड़ दिया गया है. राजनेता अर्थव्यवस्था को बचाने की जगह अपनी कुर्सी और अपने धनवान दोस्तों को बचाने में लगे हैं.

और, आखिर में जरा ये देखें कि सरकार ने उस मानवीय त्रासदी से देश को उबारने के मोर्चे पर क्या किया जो हमें सड़क पर चिलचिलाती धूप में भूखे-प्यासे, छोटे-छोटे बच्चों और वृद्ध मां-बाप के साथ घर लौटते और इसी क्रम में सड़कों पर दुर्घटना का शिकार होकर मारे जा रहे प्रवासी मजदूरों की दुर्दशा के रुप में नजर आ रही है. यहां भी किसी निष्कर्ष पर पहुंचने से पहले हम मानकर चलें कि देश में गैर-बराबरी की जो बड़ी खाई लोगों के बीच मौजूद है, उसे देखते हुए, कुछ ना कुछ संकट झेलना तो एक तरह से अनिवार्य है. फिर भी, पूछने को ये सवाल तो बनता ही है कि : क्या सरकार को कभी ये ख्याल आया भी था कि प्रवासी मजदूरों के पलायन का ऐसा संकट पैदा हो सकता है और क्या लॉकडाऊन की घोषणा के वक्त ऐसे संकट से निपटने के लिए सरकार ने कोई तैयारी की थी ? आखिर, सरकार समस्या के विकराल आकार को देखकर इतने अचंभे में क्यों है ( मंत्री ने अपने प्रेस-कांफ्रेस में प्रवासी मजदूरों की संख्या 8 करोड़ बतायी थी )?

आखिर, लॉकडाऊन के पहले 50 दिनों तक ऐसे इंतजाम क्यों ना किये गये कि मजदूरों को भोजन नसीब होता और उनके हाथ में कुछ नकदी हासिल होती ? आखिर सरकार ने क्या उम्मीद पाल रखी थी, नौकरी गंवाकर, भूख-प्यास से बेहाल, बेघर-बेठिकाना होकर ये मजदूर और क्या करते ? घर लौटने के अतिरिक्त उनके पास और क्या रास्ता बचा था. आखिर, दुनिया के किसी और देश से हमें ऐसी खबरें सुनने को क्यों नहीं मिल रहीं कि अफ्रीका के देश तो हमारे देश से भी गरीब हैं, तो वहां ऐसी समस्या क्यों नहीं है ? और, फिर एकबारगी लॉकडाऊन के पहले हफ्ते में ही सरकार ने ये देख लिया था कि प्रवासी मजदूर किस दुर्दशा में हैं तो उसने कानून-व्यवस्था के सिरे से कुछ समझावन जारी करने के अतिरिक्त इस संकट से उबारे के लिए और क्या किया ?

आखिर, श्रमिक ट्रेन चलाने का फैसला लेने में इतनी देर क्यों हुई और फिर ट्रेन चलाने का फैसला एक ऐसे वक्त पर क्यों किया गया जब जोखिम और भी ज्यादा हो चुका था ? जब घर लौटने के लिए हलकान हो रहे मजदूरों के सामने जान बचाने के लाले पड़े हों तो ऐसी विपदा में उनसे भाड़ा वसूलने का ख्याल दिमाग में क्योंकर कौंधा ? सड़क पर पैदल चलते मजदूरों को मानवीय सहायता देने के बाबत गृहमंत्रालय को साधारण सी एडवायजरी जारी करने में छह हफ्ते का समय कैसे लग गया ?


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सरकार ने राष्ट्रीय स्तर की इस भयावह मानवीय त्रासदी के प्रति जो शर्मनाक रवैया अख्तियार किया, उसे ‘असंवेदनशील’ भर कहना स्थिति की वास्तविकता से मुंह फेरना होगा. इस सरकार को निर्दयी कहना भर भी नाकाफी है. देश चौतरफा रसातल में जा रहा है और इस बीच सत्ता के शीर्ष पर बैठे हुक्मरान सियासी षड़यंत्र, आपसी दोषारोपण और अपनी छवि चमकाने के प्रपंची खेल में लगे हैं.

आने वाले वक्त में इतिहास की किताबों में दर्ज होगा कि भारत साल 2020 की पहली छमाही में अभूतपूर्व स्वास्थ्य-संकट, आर्थिक-संकट और मानवीय त्रासदी झेल रहा था और इस संकट से उबारने के लिए जिस सरकार ने कदम उठाये वो बड़ी निर्दयी और निहायत ही निकम्मी थी.

(इस लेख को अंग्रेजी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)

(योगेंद्र यादव राजनीतिक दल, स्वराज इंडिया के अध्यक्ष हैं. यह लेख उनका निजी विचार है)

3 टिप्पणी

  1. Yogendra ji itani bakwass late kidar se ho Yar…..desh Mai kejriwal…Congress ..mamata….communist party ki b government hai…apni bakwass ki ulti thodi so in par b barsa Diya karo….to public tmri b bakwass sunegi…..nahi to ab tum kuch hi samay ke analysit Bache ho….kunki itani bhari bakwass padne ke bad public tmmko padna chod degi or tumko koi b publisher nahi milega…..

  2. मोदीजी घबराहट में कदम तो नहीं उठाए?

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