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मोदी सरकार का आलोचक होने के बाद भी मैं कोविड-19 लॉकडाउन का समर्थन करता हूं, विपक्ष को भी करना चाहिए

इस सरकार के रुझान को देखते हुए विपक्ष को सतर्क रहना होगा कि कहीं सरकार राष्ट्रीय स्तर की इस स्वास्थ्य-इमरजेंसी का इस्तेमाल लोकतांत्रिक अधिकारों के हनन और संविधानेतर शक्तियों को अमल में लाने में ना कर ले.

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की संसद सत्र के दौरान की फाइल फोटो | प्रवीन जैन/दिप्रिंट

‘जीवन के निमित्त राज्य अस्तित्व में आता है और अच्छे जीवन के निमित्त राज्य लगातार कायम रहता है.’ अरस्तू की कृति ‘पॉलिटिक्स’ के इस सुप्रसिद्ध उद्धरण का पहला हिस्सा बताता है कि तीन हफ्ते के राष्ट्रीय लॉकडाउन की प्रधानमंत्री की अप्रत्याशित घोषणा का हमें क्यों समर्थन करना चाहिए. राज्य के अस्तित्व में होने की असल वजह दरअसल यही तो है कि जरुरत पड़ने पर जीवन को बचाने के लिए ऐसे फैसले लिये जा सकें. लेकिन उद्धरण का दूसरा हिस्सा ये भी कहता है कि हमें अपना समर्थन देते वक्त उसके बारे में खूब सोच-विचार कर लेना चाहिए.

मैं इस शासन का प्रशंसक नहीं. मैंने इस शासन की लगातार आलोचना की है और इसे ‘चुनावी अधिनायकवाद’ की संज्ञा दी है और कहा है कि ये शासन हमारे गणतंत्र का स्थापत्य ईंट-दर-ईंट चटखा देने पर आमादा है. इस शासन ने जिस सनकी ढंग से सांप्रदायिक विद्वेष का इस्तेमाल किया है और मुसलमानों के खिलाफ नफरत की आग को हवा दी है वो राष्ट्रघात से कम नहीं. मुझे साफ जान पड़ता है कि इस 21वीं सदी में भारत जैसे बहुजातीय समाज को एकजुट समेटकर आगे ले चलने की बात तो दूर रही ये सरकार एक बड़ी और जटिल अर्थव्यवस्था का साज-संभाल तक कर पाने में नाकाबिल है. सच को बरतने में जैसी किफायतशारी से काम नरेन्द्र मोदी लेते हैं उतनी किफायतशारी किसी भी प्रधानमंत्री ने नहीं दिखायी. ऐसा कोई कारण नहीं दिखता कि मैं इनमें से अपनी किसी भी राय को बदल लूं.

फिर भी, वक्त के इस मुकाम पर हमें अपने विरोध-भाव को अंकुश में रखना चाहिए और प्रधानमंत्री के लॉकडाउन के फैसले का समर्थन करना चाहिए. और, समर्थन का मतलब ये नहीं कि सिर्फ जबानी तौर पर हामी भर दी. हमें इस लॉकडाउन के सफल क्रियान्वयन के लिए भी प्रयास करने चाहिए. अभी का समय विरोध-भाव की राजनीति का नहीं है. देश को सरकार और विपक्ष दोनों ही की जरुरत है ताकि संकट का सामना मिलकर किया जा सके.

कौन सा रास्ता सही होगा?

लेकिन समर्थन के आह्वान का मतलब ये ना समझा जाये कि लॉकडाउन ही एकमात्र संभव अथवा विवेकसंगत समाधान है. कोविड-19 के जोखिम के आकलन को लेकर एक से ज्यादा मत प्रचलित हैं. और, इस बात को लेकर भी बहस है कि कोविड-19 से पैदा स्वास्थ्य-संकट को कैसे खत्म किया जाये. कुछ विशेषज्ञों का मानना है कि खतरे को बढ़ा-चढ़ाकर पेश किया जा रहा है क्योंकि इस बीमारी में मृत्यु-दर उतनी अधिक नहीं होने वाली जितनी कि आशंका जतायी रही है. अब बात चाहे जो हो लेकिन ये बात तय है कि वायरस देर-सबेर पूरी आबादी पर असर डालेगा. और, सोच के इस कोण से देखें तो नजर आयेगा कि वायरस के प्रसार को कम करने के जो फायदे नजर आ रहे हैं उसकी तुलना में लॉकडाउन की आर्थिक और मानवीय कीमत कहीं ज्यादा चुकानी पड़ सकती है. आबादी के जिस हिस्से को लेकर आशंका है कि उसे संक्रमण लग चुका है उनके बीच पूरी तत्परता से जांच-परीक्षा की जाये और रैंडम रीति से भी लोगों की जांच-परीक्षा हो तो ये पूरे देश में तालाबंदी लागू करने से कहीं ज्यादा बेहतर समाधान हो सकता है.


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लेकिन समझ की जो लकीर ज्यादा गहरी और प्रचलित है, सरकार अभी उसी रास्ते पर चलती दिखायी दे रही है. ये समझ कहती है कि इटली और स्पेन में कोरोना संक्रमित लोगों की तादाद जिस हद तक पहुंच चुकी है, हमलोग उस हद तक जाने का जोखिम नहीं उठा सकते. हमारी सार्वजनिक स्वास्थ्य व्यवस्था बड़ी खस्ताहाल है और ऐसे में कोरोना-संक्रमित लोगों की संख्या को बढ़ने देने का खतरा उठाना किसी महाप्रलय को न्यौता देने जैसा हो सकता है जबकि लॉकडाउन के जरिये ऐसी जिन्दगियों को बाआसानी संक्रमित होने से बचाया जा सकता है. मतलब, बचाव ही इस रोग का एकमात्र उपचार है. हो सकता है, अभी जो लॉकडाउन किया गया है वो लोगों में संक्रमण के प्रसार को रोक पाने में सफल ना हो लेकिन लॉकडाउन से संक्रमण की बढ़वार की प्रक्रिया पर अंकुश जरुर लगेगा. इसका फायदा ये होगा कि हम अपने अस्पतालों में बढ़ती भीड़ की स्थिति में मचने वाली अफरा-तफरी और इससे पैदा अराजकता को रोक पाने में कामयाब होंगे. अगर हमने कोरोनावायरस के संक्रमण के जोखिम को ज्यादा लंबे समय तक खींचा तो फिर हमें इससे निपटने की तैयारी के लिए ज्यादा समय मिल जायेगा. मतलब, लॉकडाउन का फैसला अफसोसतलब लेकिन जीवन को बचाने के लिए जरुरी है. दरअसल प्रधानमंत्री ने अपने भाषण में यही कुछ कहा था.

अब ये कहना मुश्किल है कि इनमें से कौन-सा तरीका अपनाना ठीक है. जिन राजनेताओं को ऐसा फैसला लेना होता है उनके सामने बड़े पसोपेश की स्थिति होती है क्योंकि एक तो पहले की कोई नजीर मौजूद नहीं होती और ना ही कोई ऐसा बंधा-बंधाया फार्मूला होता है जो बताया जा सके कि क्या करना है और क्या नहीं करना है. ट्रम्प और जॉनसन सरीखे बौड़म नेताओं की कौन कहे, संतुलित सोच और दिमाग वाला अच्छा से अच्छा राजनेता भी ऐसे फैसले के कारण इतिहास के आईने में खलनायक साबित हो सकता है. तो फिर रास्ता यही है कि हम राजनेताओं के फैसले का उस घड़ी तक समर्थन करें जबतक हमारे आगे ये साफ ना हो जाये कि फैसला देश को अशुभ और बर्बादी की तरफ ले जाने वाला है. मिसाल के लिए, हम नहीं जानते कि लॉकडाउन के फैसले में वो क्या चीज है जो अशुभ साबित नहीं होने जा रही लेकिन हम ये जानते हैं कि प्रधानमंत्री मोदी सही फैसला लेना चाहेंगे या फिर यों कहें कि सही फैसला लेता हुआ दिख पड़ना चाहेंगे. लॉकडाउन का फैसला नोटबंदी की तरह नहीं. नोटबंदी का फैसला तो कुछ ऐसा था मानो समस्या की तलाश में समाधान का कदम उठाया गया हो. ये फैसला सीएए की तरह भी नहीं जिसकी नीयत देश के लोगों में फूट डालकर राजनीतिक फायदा उठाने की हो. विपक्ष की जैसी प्रतिक्रिया नोटबंदी और सीएए को लेकर रही वैसी प्रतिक्रिया इस बार भी रहेगी- ऐसी उम्मीद नहीं की जानी चाहिए.

एक बात और कि संकट का जो वक्त आन पड़ा है उसमें एक स्पष्ट और मजबूत फैसले की जरुरत होती है. दरअसल, ऐसा संकट भी उन कारणों में से एक है जो हमारे लिए किसी राज्य-व्यवस्था का होना जरुरी बनाता है. बुरा निर्णय लेना अनिर्णय में पड़े रहने से बेहतर है. और, आधे-अधूरे मन से फैसले पर अमल करना तो अनिर्णय में पड़े रहने और बुरा निर्णय करने, इन दोनों ही से खराब है. सो, एक बार अगर फैसला ले लिया गया है तो एकमात्र रास्ता यही है कि फैसले का पूरा समर्थन किया जाये. लॉकडाउन घोषित करने के लिए एनडीएमए एक्ट का इस्तेमाल किया गया और इसमें कानून-व्यवस्था को लेकर राज्यों को प्राप्त शक्तियों की हेठी हुई सो फैसला कानूनी तौर पर संदिग्ध जान पड़ सकता है लेकिन ये भी कहना होगा कि संवैधानिक दायरे में रहते हुए महामारी सरीखी ऐसी स्थिति से निपटने का यही सबसे बेहतर उपाय जान पड़ता है.

चौकस रहें, सवाल पूछें और गड़बड़ियों का पर्दाफाश करें

इस फैसले की कामयाबी विपक्ष पर निर्भर करती है. सरकार इस फैसले के अमल के क्रम में जो कुछ कदम उठाती है उन्हें आंख मूंदकर मानते जाना विपक्ष के लिए ना तो वांछित है ना ही जरुरी. ब्रिटिश शासन प्रणाली में राजा को प्राप्त अधिकार के बारे में वॉल्टर बेजहॉट ने कहा है कि उसे ‘परामर्श हासिल करने, बढ़ावा पाने और आगाह किये जाने का अधिकार प्राप्त है’. ठीक इसी तर्ज पर हम अपने संदर्भ में देखें तो विपक्ष के पास तीन अधिकार हैं: प्रश्न पूछना, आगाह करना और गड़बड़ियों को सामने लाना.

आज देश को जरुरत आन पड़ी है कि विपक्ष अपनी इन शक्तियों का प्रयोग करे. अगर छुट्टा छोड़ दिया गया तो मोदी सरकार बगैर कोई सुरक्षा-कवच प्रदान किये लॉकडाउन के अपने फैसले पर आगे बढ़ती जायेगी. ये देश के लिए अशुभ होगा और फैसले की नाकामी की वजह बनेगा. रचनात्मक विरोध की शुरुआत फौरन से पेश्तर हो जानी चाहिए. हमें ये बात तो पहले से ही पता है कि समाज के गरीब और अन्य कमजोर तबकों को लॉकडाउन की बड़ी मानवीय कीमत चुकानी पड़ सकती है. केंद्र सरकार ने अभी तक इस मोर्चे पर जिम्मेवारी निभाने से कन्नी काटी है. प्रधानमंत्री ने अपने पहले भाषण में टास्क फोर्स बनाने की बात कही थी लेकिन टास्क फोर्स का बनना अभी तक शेष है. बड़ी उम्मीद से इंतजार किया जा रहा है कि किसी आर्थिक पैकेज की घोषणा होगी लेकिन वो भी अभी तक सामने नहीं आया है. जिन लाखों लोगों की रोजी छिन गई है और आगे छिनने वाली है उनको फौरी तौर पर राहत पहुंचाने के बाबत भी प्रधानमंत्री ने कुछ नहीं कहा है. यदि विपक्ष शांत बैठा तो फिर सरकार इन जरुरी बातों से अपना मुंह मोड़ लेगी जैसा उसने नोटबंदी के वक्त किया था.


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सरकार पर इस बात के लिए भी जोर देने की जरुरत है कि वो संक्रमित लोगों के स्वास्थ्य की देखभाल की जिम्मेवारी ज्यादा सक्रियता से निभाये. महामारी की स्थिति में सरकार किसी नागरिक से ये नहीं कह सकती कि संक्रमण से बचना तुम्हारी जिम्मेवारी है और ना ही ये ही कह सकती है कि निजी अस्पतालों में होने वाले महंगे उपचार की शरण में जाओ. अब चूंकि महामारी की स्थिति में कमान केंद्र सरकार ने संभाल ली है और ऐसा करके ठीक काम किया है तो वो अपना जिम्मा राज्य सरकारों पर नहीं डाल सकती क्योंकि राज्य सरकारों के पास संसाधनों की कमी है. स्थिति ज्यादा विकट होती है तो केंद्र सरकार को निजी अस्पतालों को अपने नियंत्रण में चलाने सरीखा कदम उठाने के लिए तैयार रहना चाहिए. इस सिलसिले की आखिरी बात ये कि इस सरकार के रुझान को देखते हुए विपक्ष को सतर्क रहना होगा कि कहीं सरकार राष्ट्रीय स्तर की इस स्वास्थ्य-इमरजेंसी का इस्तेमाल लोकतांत्रिक अधिकारों के हनन और संविधानेतर शक्तियों को अमल में लाने में ना कर ले. विपक्ष को सवाल पूछना चाहिए, विभिन्न स्तरों पर मौजूद अधिकारियों को आगाह करना चाहिए और लॉकडाउन के कामयाब क्रियान्वयन के लिए उसमें मौजूद खामियों को सबके सामने लाना चाहिए.

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(योगेंद्र यादव राजनीतिक दल, स्वराज इंडिया के अध्यक्ष हैं. यह लेख उनका निजी विचार है)

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