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20 लाख करोड़ से अर्थव्यवस्था में जान फूंकी जा सकती है रोजगार और जलवायु परिवर्तन से निपट सकते हैं- पर राजनीतिक इच्छाशक्ति होनी चाहिए

इस समय के लिए मोदी सरकार वास्तव में 20 लाख करोड़ रुपये जुटाने या बचाने जा रही है और लॉकडाउन से लगे झटके के बाद अर्थव्यवस्था को फिर से खड़ा करने के लिए इसका इस्तेमाल करेगी.

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी मंगलवार को देश को संबोधित करते हुए | फोटो: एएनआई

बीस लाख करोड़ रुपये भारत जैसे देश के लिए बहुत कहलायेंगे. बीस लाख करोड़ रुपये का मतलब हुआ देश की जीडीपी का 10 प्रतिशत यानि प्रतिव्यक्ति 15,000 रुपये. सरकार से जो उम्मीद बांधी गई थी, ये रकम उससे बहुत अधिक कहलायेगी. बहुत से अर्थशास्त्रियों और सामाजिक कार्यकर्ताओं ने जो रकम सरकार से देशहित में मांगी थी, ये रकम उससे बहुत ज्यादा है. आप सोचेंगे कि जब रकम उम्मीद से ज्यादा है तो फिर प्रधानमंत्री मोदी के आलोचकों के पास शिकायत के लिए बचा ही क्या ? बेशक, आपकी बात ठीक है बशर्ते प्रधानमंत्री ने राष्ट्र के नाम अपने संबोधन में जिस आर्थिक पैकेज की घोषणा की उसके मायने वही निकले जो कि दुनिया के तमाम मुल्कों में ऐसे पैकेजों की घोषणा के हैं यानि रोजमर्रा के जो खर्च हैं, उसके अतिरिक्त रकम दी गई है और इस अतिरिक्त रकम को सरकार कुछ विशेष उद्देश्यों के मद में खर्च करेगी.

लेकिन अफसोस कीजिए कि ऊपर के वाक्य में जो ‘बशर्ते’ शब्द आया है, वो किसी किसी भारी पहाड़ के समान है. उसे लांघना ऐसा भी आसान नहीं कि पार उतरकर हम बीस लाख करोड़ रुपये के खर्चे से बनने जा रहे सब्जबाग की झांकी ले सकें. अपनी गांठ से रुपये निकालने के नाम पर सरकार ने आंकड़ों के साथ जो बाजीगरी की है, बजट की रकम को बढ़ा-चढ़ा कर बताने के जो निराले रास्ते निकाले है. उसे देखते हुए बीस लाख करोड़ रुपये की रकम पर यकीन करना भोलापन ही कहलाएगा. वित्तमंत्री के रुप में अरुण जेटली हिसाब-किताब जोड़ने-दिखाने के मामले में वैसी ही प्रतिभा दिखाया करते थे जैसे कोई कवि राई को पहाड़ साबित करने में दिखाता है और जहां तक वित्तमंत्री निर्मला सीतारमण का सवाल है, वो सच बोलने-दिखाने के मामले में परम परहेज बरतने के लिए याद की जायेंगी.

लेकिन, चलिए पल भर को मासूमियत और भोलेपन के भाव से भरकम हम ये यकीन पालें कि सरकार ने बजट में जो रकम खर्च करने की बात कही है. उसके ऊपर से वो बीस लाख करोड़ रुपये और देने जा रही है. बजट में सरकार ने राजस्व प्राप्ति के जो अवास्तविक लक्ष्य बताये-समझाये गये हैं चलिए, पल भर को हम वो भी भूल जायें. इस बात को भी दरकिनार कर दें कि सरकार के राजस्व और विनिवेश से हासिल रकम में तेज कमी आयी है. यहां बस इतना भर मानकर चलें कि लॉकडाऊन से जो सदमा पहुंचा है उससे अर्थव्यवस्था को उबारने में सरकार बीस लाख करोड़ रुपये खर्च करेगी. इस मुकाम पर पहुंच कर खुद से बस एक सवाल पूछें कि सरकार इतनी बड़ी रकम के सहारे आखिर क्या कुछ कर सकती है?

राहत पैकेज का विभाजन

इसे जानने का एक सरल तरीका है. अगर देश की आबादी के ऊपरले 35 करोड़ लोगों को छोड़ दें तो फिर बाकी 100 करोड़ लोगों में हर एक को बीस लाख करोड़ रुपये से 20,000 रुपये दिये जा सकते हैं. इसका मतलब हुआ कि पांच जन के एक परिवार को 1 लाख रुपये का चेक दिया जा सकता है. एक लाख रुपये की ये रकम ऐसे 50 प्रतिशत परिवारों की सालाना आमदनी से भी ज्यादा है. बीस लाख करोड़ रुपये खर्च करने का ज्यादा अच्छा तरीका है, रकम को ऐसे खर्च करना कि उससे आर्थिक गतिविधियों को बढ़ावा मिले, दरिद्र परिवारों के लिए मददगार हो और सामाजिक उद्देश्यों की पूर्ति हो सके.

तालिका में यही दिखाया गया है. इसमें हमारी जरुरतों को तीन हिस्सों में बांटा गया है. पहले हिस्से में वे जरुरतें हैं जिनकी पूर्ति हाथ के हाथ जरुरी है जिसमें बीमारी की रोकथाम भी शामिल है. दूसरा हिस्सा विकराल होती जा रही बेरोजगारी पर कुछ इस तरह लगाम कसने का है कि देश को जलवायु-परिवर्तन के संकटों से उबारने में भी मदद मिले. तीसरा हिस्सा, अर्थव्यवस्था के खस्ताहाल हिस्सों और राज्य सरकारों को सहायता राशि देने से संबंधित है.

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चित्रण : सोहम सेन। दिप्रिंट

तालिका के पहले हिस्से में जो जरुरतें दिखायी गई हैं, वे बिल्कुल स्पष्ट हैं और उनकी पूर्ति में लगी रकम की गिनती आसान है. अगर सरकार मजदूरों को एकतरफी उनके घर पहुंचाने का फैसला करती (30 दिन के लिए, 300 श्रमिक ट्रेन प्रतिदिन) तो भारतीय रेलवे पर 900 करोड़ रुपये की लागत आती. इसी तरह, उच्च गुणवत्ता की मुफ्त टेस्टिंग, चिकित्सीय देखभाल, क्वॉरेन्टाइन, कोरोना संक्रमित मरीजों के मुफ्त अस्पताली उपचार तथा संकट से निपटारे के निमित्त सरकारी अस्पतालों की क्षमता के विस्तार-विकास पर सरकार को लगभग 1.5 लाख करोड़ रुपये खर्च करने की जरुरत होगी.

इस हिस्से के आखिरी मद यानि लोगों को खाद्य-सुरक्षा मुहैया कराने पर खर्च कुछ ज्यादा आयेगा लेकिन ये खर्च कागज पर यानि हिसाब-किताब के लिहाज से ही ज्यादा है क्योंकि दरअसल सरकार चावल और गेहूं का ज्यादातर हिस्सा पहले ही जुटा चुकी है. ‘भोजन का अधिकार’ के तहत लोगों को खाद्य सुरक्षा मुहैया कराने के हमायती कार्यकर्ताओं ने मांग की थी कि केंद्र सरकार 6 महीने के लिए प्रति व्यक्ति प्रति माह 5 किलो अतिरिक्त खाद्यान्न ( वित्तमंत्री ने इसे 3 माह तक देने की घोषणा की ), 1.5 किलो दाल ( वित्तमंत्री ने पूरे परिवार के लिए सिर्फ 1 किलो दाल देने की घोषणा की) और 800 मिली खाद्य-तेल मुहैया कराये. हम इसमें 500 ग्राम चीनी तथा प्रति व्यक्ति प्रति माह साबुन की एक बट्टी और जोड़ सकते हैं.

खाद्य सुरक्षा का ये फायदा सिर्फ उन्हीं लोगों को नहीं दिया जाना चाहिए जो राशनकार्डधारी हैं बल्कि ये फायदा उन 20 करोड़ लोगों को भी दिया जाना चाहिए, जिनके नाम राशन-कार्डधारियों की सूची में पहले ही जुड़ जाने चाहिए थे. देशव्यापी इस संकट के मुकाम पर लोगों को भुखमरी से बचाने के लिए खाद्य-सुरक्षा के मद में 2.2 लाख करोड़ रुपये का बजट तय करना कोई बहुत बड़ा मोल चुकाना नहीं कहलाएगा.


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ग्रामीण और शहरी भारत के लिए नौकरियों का विस्तार

इस योजना का दूसरा हिस्सा लोगों को रोजगार मुहैया करने के साथ-साथ इस अवसर का इस्तेमाल देश को ऐसे किसी भावी संकट से उबारने के लिए तैयार करने से संबंधित है. हम इस सिलसिले में शहरी तथा ग्रामीण भारत के लिए दो अलग-अलग मिशन चलाने के बाबत सोच सकते हैं. कई विद्वान तथा कार्यकर्ता  मांग कर चुके हैं कि मनरेगा का विस्तार करते हुए उसमें साल के 100 दिन गारंटीशुदा रोजगार देने की जगह प्रतिव्यक्ति 100 दिन का(या अच्छा हो कि प्रति परिवार साल में 200 दिन) गारंटीशुदा रोजगार दिया जाय, साथ ही, कार्यस्थल पर ही नये कार्ड बनाने की अनुमति दी जाय.

इस श्रमशक्ति का उपयोग एक बड़े मिशन में किया जाय जिसका उद्देश्य देश को जलवायु-परिवर्तन के दुष्प्रभावों के रोधन के लिए ताकतवर बनाने में हो. इसके लिए 10 लाख छोटे-छोटे जलागार या जलछाजन, सिंचाई के निमित्त तैयार किये गये तालाब, पानी पहुंचाने के लिए तैयार किये गये मार्गों का उन्नयन, वन, चारागाह, जलप्रांतर, तटीय प्रदेश के संरक्षण तथा कृषि-वानिकी जैसे उपाय करने होंगे. इस मिशन पर 75,000 करोड़ रुपया खर्च करके 10 करोड़ ग्रामीण परिवारों को दरिद्रता की हालत में जाने से बचाया जा सकता है, साथ ही पर्यावरण के संरक्षण-संवर्द्धन के फायदे तो होने ही हैं.

अजीम प्रेमजी यूनिवर्सिटी, बंगलुरु के अर्थशास्त्रियों ने शहरी भारत के लिए भी ऐसा ही मिशन चलाने की बात कही है. इसके पीछे मूल विचार ये है कि शहरी क्षेत्र के बेरोजगार नौजवानों को 100 दिन का रोजगार (प्रतिदिन 400 रुपये पारिश्रमिक की दर से) दिया जाय और उनके श्रम का उपयोग जलागारों की सुरक्षा-संरक्षा, जलछाजन(वाटर हार्वेस्टिंग), जल-निकासी, शहरों में मौजूद साझलात जमीन (कॉमन स्पेस) के अर्जन, हरित भूमि के विकास, स्वास्थ्य सर्वेक्षण, बुजुर्गों की देखभाल, ठोस कचरे के प्रबंधन तथा साफ-सफाई के कामों में किया जाय जो पर्यावरणीय महत्व के हैं. ऐसे कामों से शहरों और कस्बों में प्रदूषण के संकट से उबरने में मदद मिलेगी, साथ ही बेरोजगार नौजवानों को जरुरत की घड़ी में कुछ रोजगार मिल जायेगा.

तालिका का तीसरा हिस्सा ग्रामीण अर्थव्यवस्था को ऊपर उठाने पर जोर देने से संबंधित है. इसका मकसद है अपने-अपने घरों को वापसी घर रहे आप्रवासी मजदूरों की एक बड़ी तादाद को गांवों में सार्थक और लाभदायक कामों में खपाना. इसके अन्तर्गत किसानों को उनकी ऊपज का लाभकर मूल्य दिलाने के काम में श्रमिकों को लगाना, किसानों के कर्जे का बोझ कम करना, प्रकृति से जुड़े विनिर्माण के कार्यों को बढ़ावा देना तथा गांवों में छोटे स्तर के विनिर्माण के कार्यों को विस्तार देना शामिल है. इस दिशा में शुरुआती कदम उठाने पर 1.3 लाख करोड़ रुपये का खर्चा आयेगा और इस खर्चे से अर्थव्यवस्था में मांग बढ़ायी जा सकेगी जिसकी अभी बहुत ज्यादा जरुरत है.


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सूक्ष्म , लघु और मध्यम उद्यम की मदद करना और मांग को बढ़ाना

तालिका के तीसरे हिस्से में उद्यमों को संकट से उबारे के लिए सहायता राशि देने की बात भी शामिल की गई है. इस मामले में भी शुरुआत वहां से की जानी चाहिए जहां रकम देने की जरुरत सबसे ज्यादा है यानि छोटे-मोटे दुकानदार, रेहड़ी-पटरीवाले तथा फेरी लगाकर माल बेचने सरीखे स्वरोजगार में लगे लोगों पर जोर दिया जाना चाहिए. हमारे देश में ऐसे उद्यमियों की एक विशाल तादाद है. इस दिशा में एक शुरुआत के लिए 2.5 लाख करोड़ रुपये का खर्च आएगा और इससे अर्थव्यवस्था को बहुत ही फायदा पहुंचाएगा.

अर्थशास्त्रियों का सुझाव है कि स्वरोजगार में लगे ऐसे छोटे उद्यमियों का कहीं पंजीयन नहीं होता इसलिए इनकी सहायता करने का सबसे अच्छा तरीका है कि शिशु मुद्रा लोन में दिये जाने वाले कर्ज की सीमा बढ़ा दी जाय तथा जनधन खाते के साथ ओवरड्राफ्ट की सुविधा दी जाय.

छोटे तथा मंझोले उद्योगों को भी दिये जाने वाले ऋण की सीमा बढ़ायी जानी चाहिए और सरकार ऐसे उद्योगों को दिये जाने वाले कर्जे की गारंटी ले. फैक्ट्रियों तथा उद्योगों को तमाम श्रम-कानूनों की लगाम से छुट्टा छोड़ देने की जगह अच्छा होगा कि सरकार सूक्ष्म, लघु एवं मंझोले दर्जे के उद्योगों (एमएसएमई सेक्टर) को साल भर के लिए इंस्पेक्टर राज से मुक्त कर दे.

उद्योगों को दिये जाने वाले राहत पैकेज में वेतनभोगियों की उस जमात का भी ध्यान रखा जाना चाहिए जिसे अर्थव्यवस्था के संगठित क्षेत्र के कामगारों की तरह नौकरी की सुरक्षा तथा इससे जुड़े अन्य फायदे नहीं मिलते. छंटनी की सूरत में ऐसे वेतनभोगियों को कुछ रकम बेरोजगारी भत्ता के रुप में भी दी जाय. आर्थिक सुस्ती या आर्थिक मंदी की स्थिति में भी लघु एवं मध्यम दर्जे के उद्योग अपने कामगारों को नौकरी पर बहाल रखें, इसके लिए उन्हें सब्सिडी की पेशकश की जानी चाहिए. राहत पैकेज में सिर्फ यही प्रावधान ना हो कि कुछ समय तक कर्जे की वसूली पर रोक होगी बल्कि यह भी जोड़ा जाय कि एक खास अवधि तक कर्ज की रकम पर सूद ना लिया जायेगा.

भारत जैसे देश के लिए बीस लाख करोड़ रुपये बहुत बड़ी रकम है बशर्ते एक सुसंगत योजना हो कि रकम लॉकडाऊन की चपेट में आये सबसे कमजोर लोगों और अर्थव्यवस्था के सबसे खस्ताहाल हिस्से पर खर्च की जा सके, बशर्ते हम बीस लाख करोड़ रुपये के इस पैकेज के बारे में कुछ पारदर्शिता बरते, बशर्ते कि रकम सचमुच दी जाये और बशर्ते कि हमारे पास राजनीतिक इच्छाशक्ति हो !

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(योगेंद्र यादव राजनीतिक दल, स्वराज इंडिया के अध्यक्ष हैं. यह लेख उनका निजी विचार है)

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