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हाथापाई, गोली-चाकू से हमला और मौत—मध्य प्रदेश के निहत्थे वनकर्मियों के लिए तो यह आए दिन की बात है

मध्य प्रदेश वन विभाग का कहना है कि वन रक्षकों को हथियार मिलने से वे शिकारियों से अपनी रक्षा करने में सक्षम हो सकेंगे. लेकिन हथियार रखना और उसे इस्तेमाल करने का अधिकार मिलना कोई आसान काम नहीं है.

इंदर गुज्जर उस जगह की ओर बढ़ते हुए जहां उनके ऊपर चाकू से हमला किया गया । सतेंद्र सिंह । दिप्रिंट

गुना/भोपाल: पर्वत गुर्जर 17 दिनों तक अस्पताल में रहने के बाद मध्य प्रदेश के भमोरा गांव स्थित अपने घर लौट आया है और फिलहाल बेड से उठने की स्थिति में नहीं है. एक कोलोस्टॉमी बैग उसके बगल में लटका हुआ है और तपती गर्मी के बावजूद उसका शरीर एक पतले कंबल से ढका है.

उसके चलने-फिरने लायक होने में अभी कुछ हफ्ते लगेंगे और भोपाल के जंगलों की रखवाली करने की अपनी नौकरी पर लौटने में अभी महीनों लग जाएंगे.

पर्वत एक ‘चौकीदार’ है, जो पद इस क्षेत्र में जंगलों में गश्त करने वाले कर्मचारियों के सबसे निचले क्रम में आता है. 30 अप्रैल की रात को कुछ ‘चमकती रोशनी’ दिखने पर पर्वत अपने साथी चौकीदार इंदर गुज्जर के साथ जांच करने पहुंचा.

उसने बताया, ‘मेरी ड्यूटी खत्म हो चुकी थी. मैं पानी पीने के लिए बाहर निकला और तभी मुझे कुछ रोशनी नजर आई.’

पर्वत ने बताया कि दूर कहीं नजर आती रोशनी को छोड़कर पूरा जंगल अंधेरे में डूबा था. जहां से रोशनी आ रही थी, वहां कुछ संदिग्ध शिकारी थे. पर्वत ने कहा, ‘हम मौके पर पहुंचे, उन्होंने हमें देखा और हम भिड़ पड़े. आखिरकार उन्होंने फायरिंग कर दी.’

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शिकारियों ने पर्वत की कमर में गोली मार दी और इंदर के कूल्हे पर चाकू मारने के बाद खून से सना चाकू छोड़कर मौके से फरार हो गए.

चौकीदार इंदर गुज्जर । सतेंद्र सिंह । दिप्रिंट

25 वर्षीय पर्वत की शिकारियों के साथ यह पहली मुठभेड़ थी, लेकिन चौकीदार के तौर पर अपने 11 साल के कार्यकाल के दौरान इंदर कई बार उनसे भिड़ चुका है. इंदर ने कहा, ‘कभी-कभी, हम उन्हें पकड़ लेते हैं, और कई बार नहीं पकड़ पाते हैं.’

इस तरह के टकराव आम बात हैं, लेकिन, नतीजे अक्सर शिकारियों के पक्ष में ही रहते हैं. इंदर और पर्वत जैसे दैनिक वेतनभोगी चौकीदार ही नहीं, बल्कि वन अधिकारी भी गिरफ्तारी का जोखिम उठाए बिना जवाबी कार्रवाई या बचाव के लिए बंदूकों का इस्तेमाल नहीं कर सकते.

इस साल मई में मध्य प्रदेश के वन विभाग ने राज्य सरकार से वनकर्मियों को हथियार और आत्मरक्षा में उन्हें इस्तेमाल करने की कानूनी सुरक्षा देने की अपील की थी—अभी केवल असम और महाराष्ट्र में वन रेंजरों को ये अधिकार मिले हैं. यह मांग गुना जिले में कथित तौर पर शिकारियों द्वारा तीन पुलिसकर्मियों की हत्या के बाद की गई थी.

स्थानीय समुदायों के साथ वन विभाग के अस्थिर रिश्ते भी वन विभाग को हथियार दिए जाने में झिझक की वजह हैं. विशेषज्ञों का कहना है कि वन रक्षकों के खुद को सशक्त महसूस करने की जरूरत और उनकी कार्य स्थितियों में सुधार के मद्देनजर उन्हें आत्मरक्षा के लिए हथियार मुहैया कराने का तर्क भी उचित ही है.

मध्य प्रदेश के अतिरिक्त प्रधान वन संरक्षक (संरक्षण) अजीत के श्रीवास्तव ने बताया कि राज्य के वन विभाग ने सभी 50 जिलों में वन कर्मियों को 3,443 बंदूकें (रिवॉल्वर सहित) वितरित की हैं. साथ ही कहा, ‘लेकिन उन्हें लाठी के उपयोग के लिए प्रोत्साहित किया जाता है.’

लाठी बनाम बंदूकें

ऐसा मुमकिन नहीं लगता कि आग्नेयास्त्र वन विभाग के प्रतीक बने डंडों जगह ले लेंगे, जो कि भारत के अधिकांश जंगलों की रक्षा करने वालों के लिए अपनी सुरक्षा का एकमात्र उपाय हैं.

इंटरनेशनल फेडरेशन ऑफ रेंजर्स के मुताबिक, 2017 में भारत को वन रेंजरों के लिए सबसे खतरनाक देश माना गया, जहां हताहत वनरक्षकों का अनुपात दुनियाभर में सबसे ज्यादा था.

राज्य के अधिकारियों का कहना है कि 1961 से अब तक मध्य प्रदेश में 52 वनकर्मियों की ड्यूटी के दौरान मौत हो चुकी है.

अधिकारियों ने बताया कि इसमें से कम से कम 28 वनकर्मी अवैध खनिकों और वाणिज्यिक लकड़ी कारोबारियों के हाथों मारे गए. दो की हत्या कथित तौर पर शिकारियों ने और छह वन्यजीवों के हमले में मारे गए. इन आंकड़ों में चौकीदार शामिल नहीं हैं क्योंकि इन्हें औपचारिक तौर पर वनकर्मी नहीं माना जाता है.

मध्य प्रदेश अपने कुछ वन रक्षकों को सशस्त्र रहने की अनुमति देता है, लेकिन उन्हें दंड प्रक्रिया संहिता (सीआरपीसी) की धारा 197 की उप-धारा दो के तहत संरक्षण हासिल नहीं हैं. अमूमन कानूनी तौर पर वनकर्मियों को इस प्रावधान से बाहर रखा जाता है, जो पुलिस और सशस्त्र बलों को ‘आधिकारिक ड्यूटी के निर्वहन के दौरान हथियारों के इस्तेमाल पर’ किसी तरह की आपराधिक कार्यवाही से बचाता है.

मौजूदा परिस्थितियों में, यदि कोई वनरक्षक या अधिकारी किसी को मारने के लिए गोली चलाता है, तो उसे भारतीय दंड संहिता के तहत आरोपी बनाया जा सकता है और गिरफ्तार किया जा सकता है. हालांकि, राज्य विभाग के अधिकारियों ने दावा किया कि अब तक ऐसे अपराध के लिए आरोपित सभी वनकर्मियों को रिहा कर दिया जाता रहता है.

लेकिन वन अधिकारी खुद बंदूक के इस्तेमाल के लिए दंडित होने के प्रति काफी सजग रहते हैं. दो साल पहले अवैध शिकारियों के हमले में बचे गुना जिले के एक रेंज अधिकारी ने कहा, ‘मुझे पिस्तौल ले जाने की अनुमति है, लेकिन मैं इसे साथ नहीं रखता. मैं आत्मरक्षा में गोली चला भी दूं तो क्या होगा, उल्टे मुझ पर ही मुकदमा चलाया जाएगा? इसका कोई फायदा नहीं है.’

वन रक्षक ज्यादा से ज्यादा यह कर सकते हैं कि चेतावनी के तौर पर हवा में फायरिंग के बाद जरूरत पड़ने पर कमर के नीचे गोली मार सकते हैं.

राज्य के टाइगर स्ट्राइक फोर्स का नेतृत्व करने वाले भारतीय वन सेवा के अधिकारी रितेश सिरोठिया का मानना है कि यदि मध्य प्रदेश असम और महाराष्ट्र के समान प्रावधानों का पालन करता है, तो वन रक्षकों को हथियार देना हर तरह से ‘बेहतर’ फैसला होगा.

असम के पोबीतोरा वन्यजीव अभयारण्य में फॉरेस्ट गार्ड्स । एएनआई फाइल फोटो

उन्होंने कहा, ‘पुलिस जंगल क्यों आ रही है? ऐसा इसलिए है क्योंकि वनकर्मियों के पास खुद के बचाव के लिए बंदूकों के इस्तेमाल का अधिकार ही नहीं है. लेकिन हम जंगलों को बेहतर जानते हैं, हम इसके लोगों को बेहतर जानते हैं. अगर हमें बंदूक चलाने के बाद तत्काल गिरफ्तारी से छूट दी जाती है, तो हम किसी कार्रवाई से डरे बिना अपना काम करने में सक्षम होंगे.’

मध्य प्रदेश में एक साल में 500 से 700 अवैध शिकार के मामले दर्ज होते हैं, जिनमें से अधिकांश वन्यजीवों के मांस की तस्करी या काले जादू के लिए होते हैं. केवल कुछ ही वाणिज्यिक कारोबार से संबंधित होते हैं. मध्य प्रदेश में आखिरी अंतरराष्ट्रीय बाघ शिकार रैकेट का भंडाफोड़ 2015 में हुआ था, हालांकि रेड-क्राउन्ड रूफ टर्टल जैसी अन्य लुप्तप्राय प्रजातियों की राज्य से बाहर तस्करी जारी है.

अंतरराष्ट्रीय अवैध शिकार गिरोहों के भंडाफोड़ के लिए 2016 में अंतरराष्ट्रीय क्लार्क आर. बाविन वाइल्डलाइफ इंफोर्समेंट अवार्ड हासिल करने वाले सिरोथिया चाहते हैं कि वन्यजीव इकाई को अंतरराष्ट्रीय अवैध शिकार और कारोबार की बेहतर ढंग से निगरानी के लिए कॉल को इंटरसेप्ट करने के अधिकार दिए जाएं.

यह मांग काफी ज्यादा बड़ी है, खासकर यह देखते हुए कि इसमें कानून प्रवर्तन एजेंसियों जैसी शक्तियों की मांग की गई है. उन्होंने कहा, ‘केंद्र सरकार को आईटी अधिनियम में संशोधन की आवश्यकता होगी ताकि हमें ये शक्तियां मिल सकें.’


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हथियार दें या नहीं दें?

कुछ विशेषज्ञों का तर्क है कि वन कर्मचारियों को सशस्त्र करना आगे चलकर वनों के पास रहने वाले निवास समुदायों और विभाग के बीच ‘शक्ति संतुलन को बिगाड़ सकता है.’

23 राज्यों में वनकर्मियों को प्रशिक्षित और आवश्यक उपकरणों से लैस करने वाले वन्यजीव संरक्षण ट्रस्ट के सीईओ अनीश अंधेरिया ने कहा, ‘कई जगहों पर स्थानीय समुदायों और वन विभाग के बीच टकराव चलता रहता है. वनकर्मियों को निश्चित तौर पर बेहतर उपकरणों की जरूरत होती है और बंदूकें न केवल संगठित अपराध को बार-बार अंजाम देने वाले अपराधियों के खिलाफ उपयोगी हो सकती हैं, बल्कि आत्मरक्षा के लिहाज से भी मददगार हो सकती है.’

उन्होंने कहा, ‘लेकिन कभी-कभार अपराध करने वालों या ग्रामीणों के मद्देनजर यह कोई समाधान नहीं है जो घोर गरीबी के कारण वन संसाधनों पर निर्भर हैं. बंदूकें शायद विभाग और स्थानीय समुदायों के बीच और अधिक विभाजन का कारण बनेंगी, जो पहले से ही कहीं ज्यादा हाशिये पर हैं.’

कनेक्टिकट यूनिवर्सिटी में राजनीति विज्ञान के एसोसिएट प्रोफेसर प्रकाश काशवान ने अपनी किताब डेमोक्रेसी इन द वुड्स में तर्क दिया है कि वन विभाग के पास आदिवासियों और वनों पर निर्भर समुदायों के ‘अनुपात में ज्यादा शक्तियां’ हैं.

वन विभाग 1927 के औपनिवेशकालीन भारतीय वानिकी अधिनियम के तहत कार्य करता है, जो ऐसा कानून है जिसे शायद ‘ब्रिटिश ताकतों को उन गुलाम भारतीयों पर ज्यादा अधिकार देने के लिए तैयार किया गया था, जिन्होंने औपनिवेशिक बलों द्वारा जंगलों के दोहन का विरोध किया होगा.’

काशवान ने ईमेल पर दिप्रिंट को बताया कि यद्यपि वन रक्षकों को ‘मजबूत समर्थन की जरूरत है’, लेकिन बंदूकें समाधान नहीं हैं.

उन्होंने कहा, ‘स्थानीय वन अधिकारियों के कल्याण को ध्यान रखते हुए उनकी कार्य स्थितियों में व्यापक सुधार की शुरुआत होनी चाहिए. एक अकेला वन अधिकारी, बंदूक से लैस होते हुए भी, कैसे पेशेवर शिकारियों का सामना कर पाएगा, जिनके पास हमेशा बेहतर बंदूकें होंगी?’

असम और महाराष्ट्र के कुछ हिस्सों में यदि कोई वनरक्षक किसी व्यक्ति को गोली मार देता है, तो यह पता लगाने के लिए एक मजिस्ट्रेट जांच होती है कि कहीं ‘अनावश्यक बल’ तो इस्तेमाल नहीं किया गया था, और जांच के निष्कर्षों के आधार पर गिरफ्तारी की जाती है.

हालांकि, असम में काजीरंगा—जहां बड़े पैमाने पर गैंडों का शिकार होता है—के आसपास रहने वाली आदिवासी आबादी का आरोप है कि कई मामलों में उचित प्रक्रिया का पालन नहीं किया गया और ऐसी कोई जांच नहीं की गई.

बीबीसी की एक रिपोर्ट के मुताबिक, 20 वर्षों में शिकारियों ने एक वन रक्षक की हत्या की है, जबकि इसी अवधि में वन रक्षकों की कार्रवाई में 106 लोग मारे गए.

कर्मचारी बढ़ाने की जरूरत

मध्य प्रदेश 77,493 वर्ग किलोमीटर के साथ देश में सबसे बड़े वन क्षेत्र वाला राज्य है, इसके बाद अरुणाचल प्रदेश, छत्तीसगढ़, ओडिशा और महाराष्ट्र का नंबर है.

गश्त को वन प्रशासन की रीढ़ कहा जा सकता है, लेकिन इसमें अक्सर कठिन परिस्थितियों में काम करना शामिल होता है. मध्य प्रदेश में वन रक्षक और चौकीदार अक्सर अकेले काम करते हैं, और उन्हें औसतन 700 से 2,000 हेक्टेयर इलाके की गश्त करनी होती है.

गर्मी चरम पर होने के दौरान उनके लिए इससे बचना किसी जोखिम से कम नहीं होता. बाकी समय में भी उनके तेंदुए या बाघ जैसे हमलावर जानवरों के शिकार बनने का खतरा रहता है.

वनों के अतिरिक्त प्रमुख संरक्षक (संरक्षण) श्रीवास्तव ने कहा, ‘गश्त एक बड़ा मुश्किल काम है. अगर किसी वनरक्षक को 12 वर्ग किलोमीटर जंगल और आसपास की कृषि भूमि पर नजर रखनी होगी तो वह कैसे करेगा? वह भी बिना बंदूक के.’

वन अधिकारी और विशेषज्ञ दोनों इस बात पर सहमत हैं कि वनकर्मियों पर कुछ धन खर्च किए जाने और उनकी कार्य स्थितियों में सुधार करने की जरूरत है. वन्यजीव संरक्षण ट्रस्ट (डब्ल्यूसीटी) के एक सर्वेक्षण में पाया गया कि वन रक्षकों को बुनियादी चिकित्सा देखभाल के लिए औसतन 30 किलोमीटर से अधिक की यात्रा करनी पड़ती है, जबकि 29 प्रतिशत फील्ड पर रहने के दौरान मलेरिया से संक्रमित हो जाते हैं.

सिरोठिया ने कहा, ‘पुलिस में आपके पास विभिन्न तरह अपराधों के लिए अलग-अलग विभाग हैं—ईडी, सीबीआई, एनआईए. लेकिन वन कर्मचारी वृक्षारोपण करने, अवैध कटाई और खनन पर नकेल कसने से लेकर आग पर काबू पाने और अवैध शिकार संबंधी गतिविधियों को रोकने तक सब कुछ देखते हैं. जबकि इन सभी में से प्रत्येक क्षेत्र पर विशेष जानकारी और ज्ञान की जरूरत होती है.’

मध्य प्रदेश वन कर्मचारी संघ के महासचिव अमोध तिवारी ने दिप्रिंट को बताया कि हथियारों के साथ आत्मरक्षा में उनके इस्तेमाल पर कानूनी संरक्षण के अलावा, विभाग को फील्ड में और अधिक कर्मचारियों, बेहतर उपकरण और बेहतर चिकित्सा सुविधाओं की आवश्यकता है.

उन्होंने कहा, ‘हमें मोटरसाइकिलें चाहिए ताकि हमारे गार्ड गश्त के दौरान लंबी दूरी की यात्रा कर सकें. हमें हर जिले में बेहतर पशु चिकित्सकों की जरूरत है, जो सिर्फ मवेशियों का नहीं, बल्कि वन्यजीवों का इलाज करना भी जानते हों. वन विभाग को नीचे से ऊपर तक मजबूत करने की जरूरत है.’

काशवान के मुताबिक, वन विभाग ‘एक उल्टे पिरामिड की स्थिति का नतीजा भुगत रहा है.’

उन्होंने कहा, ‘उच्च रैंक वाले अधिकारी काफी संख्या में हैं और वन विभाग के बजट के एक बड़ा हिस्सा उन पर ही खर्च होता है. निचले स्तर के अधिकारियों के लिए एक सक्षम वातावरण बनाने में पर्याप्त निवेश किए बिना स्थिति में बदलाव नहीं आ सकता.’

भले ही अन्य राज्यों की तुलना में स्थिति बेहतर हो, लेकिन मध्य प्रदेश के वन विभाग को प्रमुख पदों पर रिक्तियों की समस्या झेलनी पड़ रही है. राज्य विभाग के आंकड़ों के मुताबिक, राज्य में वन बीट गार्ड के 14,024 पदों में से 1,913 रिक्त हैं. वनरक्षकों और वन रेंजरों (जिनकी ड्यूटी वन रक्षकों के समान ही होती है) के लिए आरक्षित 5,388 पदों में से 2,148 खाली पड़े हैं.

इस बीच, बड़ी संख्या में इस कमी को पूरा करने के लिए इंदर और पर्वत जैसे चौकीदार—दैनिक वेतन भोगी कर्मचारी—काम पर रखे जाते हैं, और वन रक्षकों की सहायता के लिए उन्हें प्रतिदिन लगभग 338 रुपये का भुगतान किया जाता है.


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कमजोर पड़ता आत्मविश्वास

2013 में वन्यजीव संरक्षणवादी और उस समय राष्ट्रीय वन्यजीव बोर्ड की सदस्य रही प्रेरणा सिंह बिंद्रा ने पर्यावरण, वन और जलवायु परिवर्तन मंत्रालय के समक्ष एक एजेंडा पेश किया था, जिसमें कहा गया था कि सरकार ‘उपयुक्त प्रबंधन और वर्दीधारी वन कर्मचारियों के कल्याण के लिए एक अच्छी तरह परिभाषित नीति बनाए’

इस एजेंडे में अन्य मुद्दों के साथ काम के घंटों को युक्तिसंगत बनाना, जोखिम भत्ता देना और कर्मचारियों को जीवन बीमा की सुविधा देना आदि शामिल था.

उन्होंने दिप्रिंट को बताया, ‘एजेंडे को आगे बढ़ाने के लिए एक समिति गठित की गई थी, और इसकी दो बैठकें भी हुईं, लेकिन उसके बाद इससे कुछ भी ठोस नतीजा नहीं निकला.’

बेरासिया रेंज के वन रक्षक देवेंद्र सोनिया ने कहा कि शहर के करीब ही एक इलाके में होने के बावजूद उन्हें दिन के अधिकांश समय पानी और बिजली नहीं मिलती है. उनके रिपोर्टिंग रेंज अधिकारी एन.के. चौहान ने बताया कि विभाग को दो साल में एक बार टॉर्च और चेस्ट गार्ड जैसे उपकरण मिलते हैं.

देवेंद्र ने कहा, ‘पुलिस थाने के उलट वनरक्षक अकेले ही रहते हैं. मेरे मुख्यालय में मुझे दिन में पांच घंटे बिजली मिलती है. पानी की भी कोई व्यवस्थित आपूर्ति नहीं है. दूरदराज के इलाकों में तो और भी बुरा हाल है.

ऐसे हालात में काम करने से मनोबल गिरता है. 2019 में मध्य प्रदेश में वन कर्मचारियों के मनोबल के स्तर पर एक अन्य डब्ल्यूसीटी सर्वेक्षण में पाया गया कि उन्हें ‘उपलब्धि की भावना’ का अहसास होने की सख्त जरूरत है, और इसमें सिफारिश की गई कि उनके काम को और ज्यादा पहचान, उच्च वेतन और बेहतर उपकरण मुहैया कराए जाएं.

श्रीवास्तव ने कहा कि गुना में मारे गए पुलिसकर्मियों को सरकार ने ‘शहीद’ घोषित किया था और उनके परिवारों में प्रत्येक को एक करोड़ रुपये का मुआवजा भी दिया था. लेकिन वन कर्मचारियों, जिनकी मौत शायद ही कभी राष्ट्रीय सुर्खियों में आती हो, के लिए मुआवजा 10 लाख रुपये तक ही सीमित है.


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नाजुक रिश्तों को सुधारने की जरूरत

वन क्षेत्र में रहने वाले समुदायों और अधिकारियों के बीच एक असहज रिश्ता बना रहता है जिसमें वन भूमि के लिए टकराव एक बड़ी वजह है.

मध्य प्रदेश वन अधिकार अधिनियम के तहत सबसे अधिक दावे (करीब 6,09,501) पाने वाले राज्यों में एक है—यह एक ऐसा कानून है जो वन संसाधनों पर आदिवासियों और वनों पर आश्रित अन्य पारंपरिक समुदायों के अधिकारों को मान्यता देता है. हालांकि, 2016 तक की स्थिति के मुताबिक इनमें से 61 फीसदी दावे खारिज किए जा चुके हैं.

इस बीच, गुना जिले में वन परिक्षेत्र अधिकारियों ने गश्त के दौरान के अपने कुछ अनुभव सुनाए हैं.

अपना नाम न बताने की शर्त पर एक अधिकारी ने कहा, ‘हमें पता चला था कि कुछ ग्रामीण एरॉन फॉरेस्ट में वृक्षारोपण को नुकसान पहुंचा रहे हैं, और हम इसकी जांच करने वहां पहुंचे. उन्होंने दावा किया कि जमीन उनकी है और हम पर उत्पीड़न का आरोप लगाया. उन्होंने पत्थर फेंके, हमें लाठियों से पीटा, हमारी कार को काफी क्षति पहुंचाई. अगर हम हवा में भी फायरिंग की कोशिश करते, तो स्थिति और भी बिगड़ जाती.’

अधिकारियों का कहना है कि वन क्षेत्र में रहने वाला समुदाय वन शासन का एक महत्वपूर्ण हिस्सा हैं, साथ ही वे कहते हैं कि परस्पर संबंधों को मजबूत करने और सुधारने की जरूरत है.

विभाग के पास मुखबिरों का एक नेटवर्क है, जिन्हें वन अपराधों के बारे में अधिकारियों को सचेत करने के लिए प्रोत्साहन राशि का भुगतान किया जाता है. ये मुखबिर जंगल में रहने वाले समुदायों का ही हिस्सा हैं, और किसी भी तरह के संघर्ष से बचने के लिए इनकी पहचान गोपनीय रखी जाती है. गार्ड की सहायता के लिए काम पर रखे गए चौकीदार भी अक्सर इन्हीं समुदायों से आते हैं.

सिरोठिया का कहना है, ‘जमीनी स्तर पर खुफिया जानकारी मजबूत करने के लिए विभाग को उन लोगों के साथ बेहतर संबंध रखने होंगे जिनसे उनका अक्सर गश्त के दौरान सामना होता रहता है. वन्यजीव संरक्षण स्थानीय समुदायों के सहयोग के बिना संभव नहीं हो सकता. हमें वन उपज इकट्ठा करने वालों की, मवेशी चराने वालों की मदद की जरूरत है.’

बिंद्रा ने कहा कई समुदाय काफी सहयोगी भी हैं, क्योंकि दूरदराज के इलाकों में वन विभाग ही एकमात्र प्राधिकरण है जो जमीनी स्तर पर नजर आता है.

पर्वत और इंदर बेरासिया जंगल के किनारे वाले इलाके में रहते हैं, और उनका कहना है कि कहा पड़ोसियों को उनसे कोई नाराजगी नहीं है.

यह पूछे जाने पर कि क्या इतनी कठिन परिस्थितियों को देखने के बाद भी चौकीदार बनकर लौटेंगे, पर्वत ने एकदम मुस्कुराते हुए कहा, ‘एक मौका तो दीजिए. मैं उन्हें पकड़ने के लिए फिर वहां जाऊंगा.’

(इस खबर को अंग्रेजी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें.)


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