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क्या ऐसी गर्मी कभी नहीं पड़ी? भारत पहले भी भीषण हीटवेव का सामना कर चुका है

आइए नज़र डालते हैं आजादी के बाद से भारत में पड़ी भयंकर गर्मी के कहर और उसके प्रभाव को कम करने के लिए देश द्वारा अपनाए गए उपायों पर.

प्रतीकात्मक तस्वीर | एएनआई

नई दिल्ली: 1998 में देश के कुछ हिस्सों को भीषण गर्मी ने अपनी चपेट में ले लिया था, जिसमें 3,000 से ज्यादा लोगों की जान चली गई. आंध्र प्रदेश में श्मशान घाटों में जगह नहीं थी और परिवारों को टोकन लेकर अपने प्रियजनों के शवों का अंतिम संस्कार करने के लिए अपनी बारी का इंतजार करना पड़ रहा था.

हालांकि यह एक ऐसी तस्वीर है जिसे आमतौर पर हीटवेव से जोड़कर नहीं देखा जाता है लेकिन उस साल की घटनाएं ये बताने के लिए काफी हैं कि ‘गर्मी’ भी कितनी विनाशकारी हो सकती है. आईएमडी के अनुसार, अधिकतम तापमान 40 डिग्री सेल्सियस तक पहुंचने या इससे अधिक होने पर हीटवेव घोषित की जाती है. पहाड़ी क्षेत्रों के लिए यह सीमा 30 डिग्री सेल्सियस है.

भारत असामान्य रूप से, समय से पहले और लंबे समय तक चलने वाली गर्मी की लहर से उबर रहा है. हीटवेव मार्च में शुरू हुई और अप्रैल तक चली. दोनों महीनों में रिकॉर्ड तापमान देखा गया. लेकिन भारतीय मौसम विभाग (आईएमडी) के मुताबिक, राहत अल्पकालिक होगी क्योंकि इस सप्ताह एक बार फिर से भीषण गर्मी के लौट कर आने की उम्मीद है.

क्या इतनी तेज गर्मी का पड़ना जलवायु परिवर्तन का संकेत है! आने वाले सालों में भारत में लगातार और भीषण गर्मी पड़ने की संभावना है. कुछ अनुमानों के अनुसार, यह प्रक्रिया पहले ही शुरू हो चुकी है.

राष्ट्रीय आपदा प्रबंधन प्राधिकरण (एनडीएमए) के साथ सलाहकार के रूप में काम करने वाले हीट वेव्स के विशेषज्ञ अनूप कुमार श्रीवास्तव ने कहा, ‘हमने सिर्फ अभी कुछ समय से हीटवेव के प्रभावों को अधिक समग्र रूप से देखना शुरू किया है. सेहत, पशुधन, कृषि और बुनियादी ढांचे पर इसके पड़ने वाले प्रभावों का आकलन कर हम इस पर विचार कर रहे हैं. वरना इससे पहले तो हम सिर्फ तापमान और मृत्यु दर पर निर्भर थे.’

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इंडियन इंस्टीट्यूट ऑफ टेक्नोलॉजी, गांधीनगर के वैज्ञानिक विमल मिश्रा ने दिप्रिंट को बताया, ‘भीषण गर्मी से पड़ने वाले अन्य प्रभावों को सीधे तौर पर मापा नहीं जाता है. लेकिन इसके कुछ प्रभावों में बिजली और पानी की बढ़ी हुई मांग, कृषि उत्पाद और श्रम दक्षता शामिल है. मृत्यु दर के अलावा किसी और अन्य प्रभावों को सूचक रूप में नहीं पाया जा सकता है.’

राष्ट्रीय आपदा प्रबंधन प्राधिकरण (एनडीएमए) अभी भी भंयकर गर्मी को एक प्राकृतिक आपदा नहीं मानता है. तेज गर्मी के प्रकोप से कैसे बचा जाए- इसे लेकर सिर्फ साल 2015 में दिशानिर्देश जारी किए गए थे.

आइए नज़र डालते हैं आजादी के बाद से भारत में पड़ी भयंकर गर्मी के कहर पर और साथ ही इस पर बात पर भी कि हाल के वर्षों में गर्मी से बचने के लिए भारत सरकार द्वारा किए गए प्रयासों और नज़रिए में किस तरह के बदलाव आए.


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मई 1956

10 मई 1956 को राजस्थान के अलवर में भारतीय मौसम विभाग (आईएमडी) के एक मौसम केंद्र ने 50.6 डिग्री सेल्सियस तापमान दर्ज किया था. यह उस समय तक देश में सबसे अधिक दर्ज किया गया तापमान था.

आईएमडी के आंकड़ों से पता चलता है कि मई 1956 में औसत अधिकतम तापमान 35.4 डिग्री सेल्सियस के आसपास रहा, जो सामान्य औसत 35.17 डिग्री सेल्सियस से थोड़ा अधिक था.

इस दौरान पड़ी भयंकर गर्मी के प्रभावों के बारे में बहुत कम जानकारी है और अधिकांश सार्वजनिक रूप से उपलब्ध दस्तावेज केवल तापमान रिकॉर्ड और तारीख प्रस्तुत करते हैं.

साल 1956 का तापमान 60 सालों तक भारत में सबसे अधिक दर्ज किया गया तापमान बना रहा. जब 2016 में राजस्थान के जोधपुर जिले में आईएमडी के फलोदी स्टेशन का तापमान 51 डिग्री सेल्सियस दर्ज किया गया, तो यह रिकॉर्ड टूट गया.

जून, जुलाई 1966

1966 में भी भारत के कुछ हिस्सों ने भीषण गर्मी का सामना किया था. उस समय आईएमडी ने कहा कि प्रचंड गर्मी का ये कहर कई प्राकृतिक जलवायु घटनाओं के एक साथ होने की वजह से हुआ है.

उस समय की आईएमडी की एक रिपोर्ट के अनुसार, बिहार और उसके आसपास के इलाकों में तापमान सामान्य से 11 डिग्री सेल्सियस अधिक बढ़ गया. उसके बाद उसी साल 7 जून से 12 जून के बीच पश्चिम बंगाल और ओडिशा के तापमान में भी काफी वृद्धि दर्ज की गई थी.

मानसून के मौसम में एक ‘ब्रेक’ उसी साल 3 जुलाई और 13 जुलाई के बीच एक और गर्मी की लहर लेकर आया जिससे आंध्र प्रदेश, बिहार, महाराष्ट्र और गुजरात प्रभावित हुए.

अप्रैल, मई 1973

जैसे ही तापमान बढ़कर 37.4 डिग्री सेल्सियस तक पहुंचा, अखबारों की सुर्खियों में अप्रैल 2022 के औसत अधिकतम तापमान की तुलना अप्रैल 1973 से की जाने लगी.

एक अध्ययन के अनुसार, उस साल अप्रैल और मई के दौरान भयंकर गर्मी पड़ी थी लेकिन इसके बावजूद पिछले वर्षों की तुलना में गर्मी से संबंधित मौतों की संख्या में कोई वृद्धि नहीं हुई थी.

भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थान, गांधीनगर के डॉ विमल मिश्रा के एक अन्य पेपर के अनुसार, 1973 में आंध्र प्रदेश, ओडिशा, तमिलनाडु और मध्य प्रदेश के कुछ हिस्सों में गर्मी काफी ज्यादा थी. वह इस पेपर के सह-लेखक थे.

पेपर में लिखा गया था, ‘ग्लोबल वार्मिंग को इसके बाद पड़ने वाली भयंकर गर्मी के लिए जिम्मेदार ठहराया जा सकता है– मसलन 2010 की हीटवेव. लेकिन 1970 के दशक में हुई घटनाओं को सीधे इंसान की वजह से होने वाली जलवायु वार्मिंग से नहीं जोड़ा जा सकता है.’

मई 1998

साल 1998 एक अल नीनो वर्ष था. यानी एक ऐसी जलवायु घटना जो वैश्विक तापमान को बढ़ाने और गंभीर सूखे का कारण बन सकती है. उस साल भारत में औसत अधिकतम तापमान 36 डिग्री सेल्सियस तक बढ़ गया था- मई 1921 में दर्ज किए गए तापमान के बराबर और तब से कम से कम तीन बार तापमान उस सीमा से अधिक पहुंच चुका है.

दर्ज की गई मौतों के मामले में 1998 की गर्मी की भारत में सबसे विनाशकारी रही है. एनडीएमए के अनुसार, इसने ओडिशा में 3,058 लोगों की जान ले ली थी.

इंडिया टुडे पत्रिका की एक स्टोरी ने बताया कि कैसे आंध्र प्रदेश में श्मशान में मृतक का अंतिम संस्कार करने के लिए संघर्ष करना पड़ा था, हीटस्ट्रोक की वजह से मरने वालों के शवों का वहां ढेर लगा हुआ था.

लेख में लिखा था, ‘पहले से ही कई लोगों के दिमाग में 1998 की भीषण गर्मी एक तरह का बेंचमार्क बन गई है ,जो भविष्य की गर्मियों की तीव्रता को मापेगी.’

मई 2002

हाल के दशकों में भारतीयों को याद रखने वाली सबसे भयंकर गर्मी का सामना 2002 में करना पड़ा था, जिसकी वजह से अकेले आंध्र प्रदेश में 1,000 लोगों की जान चली गई थी. अंतरराष्ट्रीय मीडिया ने इसे एक विनाशकारी प्राकृतिक आपदा के तौर पर व्यापक रूप से कवर किया था.

2002 की हीटवेव के दौरान मरने वालों में ज्यादातर गरीब और बुजुर्ग थे, जो 50 डिग्री सेल्सियस का सामना नहीं कर सके.

उस समय की एक रिपोर्ट बताती है, ‘कुछ क्षेत्रों में तापमान इतना ज्यादा था कि टिन की छत वाले कई घर ओवन में तब्दील हो गए तो वहीं पानी के जलाशय भी सूख गए. गर्मी से जानवरों का भी बुरा हाल था, वे मर रहे थे.’


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मई 2010

मई 2010 में गुजरात के कुछ हिस्सों में गर्मी की प्रचंड लहर चली, जिससे अहमदाबाद में तापमान 46.8 डिग्री सेल्सियस तक बढ़ गया. एनडीएमए के एक अनुमान के मुताबिक, गर्मी की लहर के कारण 1,274 मौतें हुईं थीं लेकिन अन्य विश्लेषणों से पता चलता है कि यह आंकड़ा थोड़ा ज्यादा यानी 1,344 तक था.

एक अन्य अध्ययन में पाया गया कि तेज गर्मी ने नवजात शिशुओं को भी प्रभावित किया. तापमान में हर एक डिग्री सेल्सियस की वृद्धि (42 डिग्री सेल्सियस से ऊपर) के कारण अहमदाबाद के एक अस्पताल में गर्मी से संबंधित भर्ती में 43 प्रतिशत की वृद्धि हुई. इसके निष्कर्षों ने इस दावे का भी समर्थन किया कि जलवायु नियंत्रण के बिना अत्यधिक गर्मी के संपर्क में आने से नवजात शिशुओं में बीमारियां बढ़ रही हैं.

अहमदाबाद दक्षिण एशिया में पहला बन राज्य बन गया, जिसने शहर को हीटवेव के अनुकूल और कम करने में मदद करने के लिए ‘हीट एक्शन प्लान’ लागू किया. इसकी वजह से राज्य में तब से हजारों मौतों को होने से रोका जा चुका है.

मई 2015

2015 में भयंकर गर्मी का बखान करने वाली एक तस्वीर दुनिया भर में वायरल हो गई थी. यह नई दिल्ली की सड़क पर बने एक ज़ेबरा क्रॉसिंग की विकृत तस्वीर थी, जिसमें गर्मी की वजह से डामर के पिघलने से जेबरा क्रॉसिंग का निशान पूरी तरह खराब होता हुआ दिखाई पड़ रहा था.

इस दौरान सबसे बुरी तरह प्रभावित राज्य आंध्र प्रदेश था. उस साल दर्ज की गई 2,330 गर्मी से संबंधित मौतों में से 1,700 से अधिक मौतें इसी राज्य में हुईं थीं.

हताहतों की बढ़ती संख्या से हैरान एनडीएमए ने तब 2015 में गर्मी की लहरों को रोकने और प्रबंधित करने के तरीके पर कुछ दिशानिर्देश जारी किए थे. एजेंसी ने राज्यों को अहमदाबाद में लागू किए गए ‘हीट एक्शन प्लान’ को तैयार करने के लिए भी प्रोत्साहित किया था.

मई 2016

2016 में भारत ने अब तक के सबसे उच्च तापमान के साथ एक और भयानक गर्मी की लहर देखी थी. इस दौरान राजस्थान के फलोदी में तापमान 51 डिग्री सेल्सियस तक पहुंच गया था.

एक रिपोर्ट में तो यहां तक दावा किया गया कि पारा इतना बढ़ गया कि गुजरात की सड़कों पर चलते हुए लोगों के जूते पिघले हुए डामर से चिपकने लगे थे. वह बिना अटके चल नहीं पा रहे थे.

मई, जून 2019

भारत ने 2019 में तीन दशकों में अपनी सबसे लंबी हीटवेव देखी. उस साल इसका प्रकोप 32 दिनों तक जारी रहा था. बिहार, पश्चिम बंगाल, राजस्थान, विदर्भ और आंध्र प्रदेश सहित अन्य राज्य प्रभावित इससे खासा प्रभावित हुए थे.

उस साल की गर्मी का जिक्र करते हुए नासा की अर्थ ऑब्जर्वेटरी के एक नोट में कहा गया, ‘2019 में प्री-मानसून सीज़न के दौरान हुई कम बारिश के साथ-साथ देर से आए मानसून ने गर्मी को और अधिक असहनीय बना दिया.’

यहां ये जानना जरूरी है कि साल 2019 में ही विश्व स्वास्थ्य संगठन (डब्ल्यूएचओ) ने भारत में हेल्थ रेसिलियंस एंड कैपेसिटी बिल्डिंग प्रोग्राम की शुरुआत की थी. इसका उद्देश्य जलवायु परिवर्तन से संबंधित आपदा जोखिम में कमी के साथ स्वास्थ्य सेवाओं और प्रणालियों को एकीकृत करना है.

(इस खबर को अंग्रेज़ी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)


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