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‘पार्टी सोसायटी’ से ‘बाहुबली’ सोसायटी तक – बंगाल बदला, फिर भी वामपंथ से TMC शासन तक एक जैसा ही रहा

वाम मोर्चा शासन के दौरान, पार्टी का नियंत्रण अधिक और पैसे की राजनीति कम थी. अब स्थिति उलट गई है और टीएमसी के बाहुबली गांवों में कारोबार व शहरों में सिंडिकेट चला रहे हैं.

पश्चिम बंगाल के बीरभूम जिले में सत्तारूढ़ तृणमूल कांग्रेस (टीएमसी) का एक पार्टी कार्यालय | मनीषा मंडल | दिप्रिंट

कोलकाता/बीरभूम: 2019 में, पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री और तृणमूल कांग्रेस (टीएमसी) सुप्रीमो ममता बनर्जी ने अपनी पार्टी के कार्यकर्ताओं के लिए एक आदेश जारी किया: सरकारी योजनाओं से लिया गया ‘कट मनी’ (कमीशन के लिए प्रयोग किया जाने वाला शब्द) वापस करें, या जेल जाएं.

ममता ने मृतकों के दाह संस्कार के लिए धन प्रदान करने वाली योजना के तहत ली जाने वाली ‘कट मनी’ का जिक्र करते हुए कहा, “यहां तक कि मृतकों को भी नहीं बख्शा जाता है. मैं अपनी पार्टी में चोरों को नहीं रखना चाहती.”

जल्द ही, कल्याणकारी योजनाओं को लागू करने के लिए लिए गए पैसे वापस करने के लिए टीएमसी नेताओं, खासकर जिलों में निचले स्तर के नेताओं पर हमला किया गया और उनका घेराव किया गया. उनमें से कई अपने गांव छोड़कर भाग गए.

लोकसभा चुनाव के नतीजे आने के कुछ दिनों बाद, ममता द्वारा दिया गया यह बयान रणनीतिक था. यह एक मास्टरस्ट्रोक था, जिसकी योजना कथित तौर पर राजनीतिक रणनीतिकार प्रशांत किशोर ने बनाई थी ताकि बंगाल में गहरी जड़ें जमा चुकी जबरन वसूली की संस्कृति से ममता खुद को दूर कर सकें और जनता के बीच पनप रहे असंतोष को शांत किया जा सके. योजना सफल हो गई, क्योंकि ‘कट मनी’ का नैरेटिव धीरे-धीरे खत्म हो गया.

पांच साल बाद लोकसभा चुनाव कुछ ही हफ्ते दूर हैं, टीएमसी फिर से मुश्किल में है. बांग्लादेश सीमा के पास लोगों की जानकारी से दूर और अलग-थलग सी जगह संदेशखाली में जमीन हड़पने और यौन उत्पीड़न किए जाने के गंभीर आरोपों ने ममता को परेशान कर दिया है.

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बंगाल के लोगों के लिए, संदेशखाली एक ऐसे राजनीतिक और आर्थिक व्यवस्था का प्रतीक है जो कि टीएमसी के 13 सालों के शासनकाल के दौरान बेहतर तरीके स्थापित हुआ है और जो ग्रामीण व शहरी क्षेत्रों में समान रूप से दिखता है.

जैसा कि कोलकाता स्थित एक व्यवसायी कहते हैं, ‘तोलाबाज़ी’ (पार्टी के नेतृत्व वाला भ्रष्टाचार) की व्यवस्था पीढ़ियों से चली आ रही है – जिसे वे आर्थिक संस्कृति के हिस्से के रूप में स्वीकार करते आए हैं, चाहे कोई भी पार्टी सत्ता में हो. “हमारे लिए, यह ‘जेमॉन ठाकुर, ओमनी फुल’ जैसा है (मोटे तौर पर हर किसी की अपनी मांग के अनुसार फिट बैठता है.)”

लोकप्रिय रूप से पश्चिम बंगाल को “पार्टी आधारित समाज” के रूप में माना जाता है, जहां सरकारी योजनाओं और नौकरी देने से लेकर दुर्गा पूजा और विवाह के आयोजन तक सब कुछ पार्टी कार्यकर्ताओं के माध्यम से किया जाता है.

बीरभूम में ‘सिस्टम’

2022 में, जब तृणमूल के बीरभूम के कद्दावर नेता अणुब्रत मंडल को करोड़ों रुपये के पशु तस्करी रैकेट के सिलसिले में गिरफ्तार किया गया था, तो सिउरी में ग्रामीणों ने जो पहला परिवर्तन देखा था वह था “टोल टैक्स कार्यालय” को बंद किया जाना.

सिउरी के एक पत्रकार का कहना है, “लगभग रातों-रात, टोल टैक्स कार्यालय गायब हो गए. हर ड्राइवर से उम्मीद की जाती थी कि वह हर बार टोल बूथ पार करने पर 20 रुपये का भुगतान करेगा… कोई नहीं जानता था कि टोल टैक्स सरकार द्वारा चला जा रहा था या नहीं, लेकिन यह हर किसी ने स्वीकार कर लिया गया था कि हर किसी को भुगतान करना होगा – कोई भी इस पर सवाल नहीं उठा सकता था.”

“टोल टैक्स” टीएमसी जिला अध्यक्ष और कहें तो बीरभूम में पार्टी द्वारा चलाए जा रहे “सिस्टम” का एक उदाहरण था.

भाजपा के राज्य महासचिव जगन्नाथ चट्टोपाध्याय कहते हैं, ”बीरभूम में मंडल की मंजूरी के बिना कुछ भी नहीं हो सकता था…वह बीरभूम के शेख शाहजहां की तरह थे. पार्टी, पुलिस, रियल एस्टेट, चुनाव, सरकारी योजनाएं, कॉन्ट्रैक्ट्स – सब कुछ उन्हीं के द्वारा नियंत्रित किया जाता था.”

2018 में, बीरभूम में 90 प्रतिशत से अधिक पंचायत चुनाव टीएमसी ने निर्विरोध जीते थे. 2023 में, भाजपा और वाम-कांग्रेस गठबंधन ने क्रमशः छह और दो सीटें जीतीं. चट्टोपाध्याय कहते हैं, “यह बीरभूम में एक बड़ी बात थी. जब तक अणुब्रत मंडल वहां थे, इसकी कल्पना भी नहीं की जा सकती थी.”

बीरभूम के लोग चट्टोपाध्याय के दावों की पुष्टि करते हैं, उनका कहना है कि मंडल की गिरफ्तारी के बाद भी यह “सिस्टम” बचा हुआ है.

मयूरेश्वर उपमंडल के मुस्लिम बहुल गांव के एक स्थानीय दुकानदार का कहना है, ”हम राशन योजना से लेकर आवास योजना और शौचालय बनाने तक हर चीज के लिए टीएमसी कार्यकर्ताओं को अतिरिक्त पैसे देते हैं. मेरे परिवार ने आवास योजना के लिए पैसे पाने के लिए 20,000 रुपये का भुगतान किया. अगर हम भुगतान नहीं करते तो हमारी अगली किश्तें रोक दी जातीं.’ लेकिन भुगतान करने के बाद योजनाओं की डिलीवरी की गारंटी है – यह सच है.’

उनके दोस्त कहते हैं कि उन्होंने उज्ज्वला योजना के तहत एलपीजी कनेक्शन पाने के लिए 600 रुपये का भुगतान किया क्योंकि उन्हें कथित तौर पर बताया गया था कि यह कनेक्शन की लागत है.

वह कहते हैं, “मुझे बाद में पता चला कि यह मुफ़्त है. उन्होंने एलपीजी कनेक्शन पाने के लिए हमारे गांव के लगभग सभी लोगों से पैसे वसूले. हम असहाय महसूस करते हैं, क्योंकि सब कुछ टीएमसी के माध्यम से होता है – अगर हम विरोध करते हैं, तो रोजमर्रा की जिंदगी जीना मुश्किल हो जाएगा.”

सत्तारूढ़ टीएमसी की उपस्थिति विशेष रूप से पश्चिम बंगाल के भीतरी इलाकों में हर जगह है | मनीषा मंडल | दिप्रिंट

स्थानीय निवासियों का कहना है कि उज्वला और प्रधानमंत्री आवास योजना से लेकर स्वच्छ भारत मिशन-ग्रामीण और महात्मा गांधी राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी योजना (एमजीएनआरईजीएस) तक, गांवों में हर योजना के कार्यान्वयन के लिए “कट मनी” की मांग की जाती है.

दिप्रिंट को ऐसे कई लोग मिले, जिन्होंने कहा कि हालांकि मनरेगा मजदूरी उनके खातों में ट्रांसफर की जाती है, लेकिन टीएमसी नेता उन्हें एटीएम से पैसे निकालकर उन्हें उनका ‘कट’ देने की हिदायत देते हैं.

बीरभूम के लोगों की शिकायतें – पंचायतों के माध्यम से स्थानीय संसाधनों पर नियंत्रण, सरकारी योजनाओं का लाभ उठाने के लिए “कट मनी” देने की मजबूरी, चुनावों में धांधली के आरोप और एक शक्तिशाली स्थानीय बाहुबली का होना – बंगाल में टीएमसी शासन के एक सामान्य पैटर्न की ओर इशारा करता है.

लेकिन तृणमूल द्वारा चलाए जा रहे इस “सिस्टम” को समझने के लिए, इसके बारीकी को समझना होगा, जो राज्य में वाम मोर्चा के 34 साल के शासन में सामने आया था.

वामपंथी सत्ता में कैसे आए?

1965 में, जब सिंगापुर एक स्वतंत्र राष्ट्र बन गया, तो इसके संस्थापक प्रधानमंत्री ली कुआन यू ने कथित तौर पर कहा कि वह चाहते हैं कि सिंगापुर कलकत्ता जैसा हो.

1911 तक कलकत्ता न केवल ब्रिटिश भारत की राजनीतिक राजधानी थी. बल्कि कई दशकों बाद तक, यह वित्तीय राजधानी भी थी. उदाहरण के लिए, 20वीं सदी के मध्य तक अधिकांश भागों में व्यापार की मात्रा बॉम्बे की तुलना में बहुत अधिक थी. बैंक ऑफ बंगाल अधिकांश भाग में बैंक ऑफ बॉम्बे से बहुत बड़ा था और 20वीं सदी की शुरुआत तक लगभग 45-50 प्रतिशत भारतीय कंपनियां बंगाल में स्थापित थीं.

फिर भी, इस सर्वाधिक औद्योगिकीकृत राज्यों में से एक की अर्थव्यवस्था वामपंथियों के सत्ता में आने से बहुत पहले ही भीतर से चरमरा रही थी. कोलकाता में भारतीय सांख्यिकी संस्थान के अर्थशास्त्री इंद्रनील दासगुप्ता कहते हैं, “परंपरागत समझ यह है कि बंगाल अच्छा प्रदर्शन कर रहा था और फिर कम्युनिस्ट सत्ता में आए और उन्होंने अर्थव्यवस्था को नष्ट कर दिया. लेकिन अगर चीजें इतनी अच्छी थीं, तो कम्युनिस्ट पहली बार 60 के दशक में सत्ता में क्यों आए?”

हावड़ा में जगह-जगह बिखरे कई बंद या बमुश्किल काम करने वाली औद्योगिक इकाइयों में से एक । मनीषा मंडल | दिप्रिंट

अधिकांश टिप्पणीकारों के अनुसार, 1947 में विभाजन के बाद राज्य से “व्यापक रूप से उद्योगों का सफाया” हो गया और उसके बाद के वर्षों में कांग्रेस सरकार द्वारा कथित तौर पर सौतेला व्यवहार किया गया. दासगुप्ता कहते हैं, “ब्रिटिश शासन के दौरान, कलकत्ता एक व्यापारिक केंद्र के रूप में विकसित हुआ, जिसका हिंटरलैंड बर्मा और सिंगापुर तक फैला हुआ था. विभाजन के साथ, रातों-रात ये व्यापार मार्ग बंद हो गए. यह ऐसा था मानो आपने खुद से नेटवर्क को नष्ट कर दिया हो. व्यापारिक मार्ग तबाह हो गया.”

उनका तर्क है कि पंजाब के विपरीत, पश्चिम बंगाल को दशकों तक बांग्लादेश से शरणार्थियों के निरंतर प्रवाह से जूझने के लिए मजबूर होना पड़ा, जो अर्थव्यवस्था को तबाह करता रहा.

देश में कहीं भी कारखानों तक खनिजों के परिवहन पर सब्सिडी देने की मालभाड़ा समानीकरण नीति ने भी 1952 में बंगाल की अर्थव्यवस्था को और पंगु बना दिया. जबकि उस वक्त बंगाल के जूट, इस्पात, कोयला व चाय उद्योग न केवल राज्य स्तर पर सर्वोपरि थे बल्कि राष्ट्रीय स्तर पर भी अग्रणी थे.

दासगुप्ता कहते हैं, “स्पष्ट रूप से ऐसा इसलिए किया गया ताकि देश भर में अधिक संतुलित भौगोलिक विकास किया जा सके, लेकिन वास्तव में इसका उद्देश्य महाराष्ट्र जैसे पश्चिमी राज्यों की तुलना में बंगाल को मिलने वाले प्रतिस्पर्धात्मक लाभ को छीन लेना था.”

दशकों पुराने औद्योगीकरण ने श्रमिक संघों की एक मजबूत संस्कृति बनाई थी. बांग्लादेश से बार-बार आने वाले शरणार्थियों के साथ मिलकर, उन्होंने वामपंथी दलों के लिए एक तैयार जन आधार तैयार किया.

जैसा कि शिक्षाविद सुभो बसु और ऑरित्रो मजूमदार ने ‘पश्चिम बंगाल में वामपंथ का उदय और पतन’ शीर्षक निबंध में तर्क दिया है, वामपंथ ने शहरी और ग्रामीण दोनों क्षेत्रों में एक जनाधार बनाया, जिसमें भूमि सुधारों के लिए संघर्ष कर रहे छोटे-छोटे कृषक मजदूर, शहरी क्षेत्रों में अवैध कालोनियों की मान्यता की मांग करने वाले शरणार्थी, बेहतर तनख्वाह की मांग करने वाले सफेदपोश वर्किंग क्लास, और साथ ही औद्योगिक श्रमिक वर्ग भी शामिल थे.

कोलकाता के जादवपुर विश्वविद्यालय में वाम समर्थित छात्र संगठनों द्वारा लगाए गए पोस्टरों में कम्युनिस्ट नेताओं माओत्से तुंग, व्लादिमीर लेनिन और चे ग्वेरा । मनीषा मंडल | दिप्रिंट

इस बीच, वाम-झुकाव वाले, पार्टी से जुड़े बुद्धिजीवियों के नेतृत्व में एक शक्तिशाली सांस्कृतिक आंदोलन – जिसका नेतृत्व इंडियन पीपुल्स थिएटर एसोसिएशन ने किया – ने “कविता, रंगमंच के माध्यम से कम्युनिस्टों को पश्चिम बंगाल के सामाजिक रूप से शक्तिशाली और सांस्कृतिक रूप से आधिपत्य वाले मध्यम वर्ग के दिल-ओ-दिमाग पर गाने और फिल्मों के जरिए कब्जा करने में मदद की”.

राज्य में कई लोगों का मानना है कि यह वर्ग संघर्ष का रूमानीकरण था जो पीढ़ियों तक कम्युनिस्टों को बौद्धिक और सांस्कृतिक रूप से जिंदा रखा.


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वामपंथी वर्ष

पश्चिम बंगाल में वामपंथी दल पहली बार संयुक्त मोर्चा के साथ गठबंधन करके 1967 में और फिर 1969-70 में सत्ता में आए. इसके बाद सीपीआई (एम) के नेतृत्व वाली लेफ्ट फ्रंट ने 1977 में सरकार बनाई जो 34 वर्षों तक सत्ता में रही.

सत्ता में आने के एक साल के भीतर, वाम मोर्चे ने 1978 में भारत में सबसे सफल भूमि सुधारों में से एक – ऑपरेशन बर्गा (इसका नाम ‘बरगादारों’ या बटाईदारों से लिया गया) – लागू किया, जिसके कारण पंजीकृत बटाईदारों की संख्या 1977 से 1990 के बीच 23 से बढ़कर 65 प्रतिशत हो गई और कृषि उत्पादन में 36 प्रतिशत की वृद्धि हो गई.

इसके अलावा, जैसा कि स्वतंत्र शोधकर्ता पार्थ सारथी बनर्जी ने ‘पश्चिम बंगाल में पार्टी, सत्ता और राजनीतिक हिंसा’ में तर्क दिया है, इसने भूमिहीन और गरीबों के बीच वाम मोर्चे के आधार को और मजबूत किया जो मुख्य रूप से अनुसूचित जाति, अनुसूचित जनजाति और अल्पसंख्यक वर्ग से थे और यह कुल मिलाकर राज्य की कुल जनसंख्या का 67 प्रतिशत से अधिक था.

2014 में भाजपा में शामिल होने से पहले कई दशकों तक सीपीआई (एम) के साथ रहे व्यवसायी शिशिर बाजोरिया कहते हैं, “शुरुआती वर्षों में उनका शासन एक बड़ी सफलता थी. उन्होंने जो भूमि पुनर्वितरण लागू किया, उससे लाखों भूमिहीन श्रमिकों को लाभ हुआ. इसने ऊंची जातियों की रीढ़ तोड़ दी और वास्तव में आर्थिक वितरण के मामले में एक बड़े पैमाने पर समतापूर्ण समाज का निर्माण किया.”

लेकिन, भूमि सुधारों ने सीपीआई (एम) को भी असाधारण रूप से शक्तिशाली बना दिया. भाजपा नेता स्वपन दासगुप्ता कहते हैं, ”अब आप बटाईदार होने या न होने का प्रमाण पत्र पार्टी कार्यकर्ताओं से प्राप्त कर सकते थे. तो, इस तरह, वे उस ज़मीन के मालिक बन गए – जो गांव की आत्मा थी.”

इंद्रनील दासगुप्ता कहते हैं, “जाति या धर्म के विपरीत वर्ग को सामाजिक पहचान का एकमात्र वैध संकेतक मानने के वामपंथियों के आग्रह ने, इसके भूमि सुधारों के साथ मिलकर, जिसने जमीदार अभिजात वर्ग और अमीर किसानों की आर्थिक और सामाजिक मजबूती को तोड़ दिया, बंगाली समाज में एक सामाजिक शून्यता पैदा कर दी.”

“गांव में कोई जाति पंचायतें या ऐसे अमीर लोग नहीं थे जो स्थानीय विवादों को सुलझा सकें. 1977 तक कांग्रेस शासन के तहत, यह भूमिका जमींदारों द्वारा निभाई गई थी, लेकिन जमींदारी के पूर्ण उन्मूलन के बाद, एक सामाजिक शून्यता आ गई.”

धीरे-धीरे, वाम मोर्चे ने एक ‘सिस्टम’ बनाया जिसमें स्कूलों और कॉलेजों, सरकारी अस्पतालों में प्रवेश, प्राकृतिक आपदाओं के दौरान धन जुटाना और यहां तक कि तलाक के निपटारे और विवाहेतर संबंधों की मध्यस्थता भी पार्टी कार्यकर्ताओं द्वारा की जाती थी.

जैसा कि बनर्जी ने तर्क दिया कि वामपंथी व्यवस्था के तहत, राजनीतिक संबद्धता इतनी महत्वपूर्ण हो गई कि विरोधी राजनीतिक झुकाव वाले परिवारों के बीच वैवाहिक संबंध भी दुर्लभ हो गया.

वह लिखते हैं, “ऐसा लगता है कि पार्टी के प्रति वफादारी सबसे महत्वपूर्ण पहचान बन गई है, जो ग्रामीण बंगाल में किसी के अस्तित्व के लिए महत्वपूर्ण थी, जहां घरों को जलाया जा सकता था और लोगों को केवल इसलिए बेदखल किया जा सकता था क्योंकि उन्होंने अपनी पसंद की पार्टी को वोट देने का विकल्प चुना.”

पंचायती राज संस्थाएं, जिनके माध्यम से सरकारी योजनाएं लोगों तक पहुंचाई जाती थीं, उनका पार्टी आधारित समाज या पार्टी सोसायटी के निर्माण और स्थायित्व में बहुत बड़ी भूमिका थी. जल्द ही, पंचायत वह इकाई बन गई जिसके माध्यम से वाम मोर्चा ने समाज पर पूर्ण नियंत्रण स्थापित किया. स्वपन दासगुप्ता का तर्क है कि पंचायत निधि का उपयोग नियमित रूप से राजनीतिक समर्थन हासिल करने के लिए किया जाने लगा.

संसाधनों की कमी वाला समाज होने के कारण स्थिति यह हो गई कि संसाधनों पर नियंत्रण और राजनीतिक शक्ति को अलग नहीं किया जा सकता था. वाम मोर्चे ने पंचायतों के माध्यम से संसाधनों पर सख्त नियंत्रण स्थापित किया और इसके जरिए अपनी राजनीतिक शक्ति सुनिश्चित की, और संसाधन पर अधिकार अक्सर सीपीआई (एम) के साथ गठबंधन करने वालों को दिए जाते थे.

जादवपुर विश्वविद्यालय (जेयू) में राजनीति विज्ञान के प्रोफेसर अब्दुल मतीन कहते हैं, “वामपंथियों के कैडर और समर्थन आधार में बड़ी संख्या में एससी, एसटी और मुस्लिम आबादी शामिल थी जो इतनी गरीब थीं कि 1,000 रुपये की नकदी भी उनके लिए बहुत बड़ी थी. जो लोग इस नकद धन के वितरण को नियंत्रित कर सकते थे वे स्वाभाविक रूप से बहुत शक्तिशाली हो गए.”

परिणामस्वरूप, पंचायतों पर नियंत्रण पाने के लिए किसी भी तरह का समझौता नहीं किया जा सकता था, जिसे सुनिश्चित करने के लिए बार-बार हिंसा का इस्तेमाल किया गया. जैसा कि पार्थ बनर्जी ने माओत्से तुंग का के कथन का हवाला देते हुए कहा था कि “राजनीतिक शक्ति बंदूक की नली से निकलती है”, सचमुच बंगाल के भीतरी इलाकों में सच हो रही थी.

वैचारिक और गैर-वैचारिक ‘मार्क्सवादी’

वाम मोर्चे ने बौद्धिक और हथियारों की शक्ति का संतुलित रूप से प्रयोग करते हुए अपने शासन को मजबूत किया और कायम रखा. मतीन कहते हैं, “गरीब एससी, एसटी और मुस्लिम आबादी, जो आर्थिक रूप से बिल्कुल कमजोर थे, वामपंथियों की रिज़र्व आर्मी बन गए, जिन्हें राजनीतिक हिंसा के लिए तैनात किया जा सकता था. एक तरह से, ये ऐसे ‘मार्क्सवादी’ थे जिन्होंने मार्क्स को कभी नहीं पढ़ा था.”

दासगुप्ता का तर्क है कि जिला और गांव स्तर पर स्थानीय नेतृत्व में “मध्यम वर्ग पूंजीपति वर्ग” शामिल था जिसमें स्कूल और कॉलेज के शिक्षक, सरकारी क्लर्क आदि शामिल थे.

जेयू में राजनीति विज्ञान के सहायक प्रोफेसर सुभजीत नस्कर के अनुसार, नेतृत्व गांवों में कम्युनिस्ट ‘शाखा’ जैसे संगठनों को चलाता था, जहां लोगों को प्रभावित करने के लिए लेनिन, मार्क्स और स्टालिन के ग्रंथों का व्यापक रूप से बंगाली में अनुवाद किया जाता था.

उनका कहना है कि इसके साथ-साथ शहरों में विश्वविद्यालयों और कॉलेजों में बौद्धिक वर्ग का पूरी तरह से कब्जा हो गया, जहां वर्ग संघर्ष को मार्क्सवादी नारों के विशाल पोस्टरों और दीवार पर खुदे चित्रों के साथ महिमामंडित किया गया, जिससे इसकी जातिगत वास्तविकताओं को पूरी तरह से खत्म कर दिया गया.

नस्कर ने दिप्रिंट को बताया, “तथाकथित बौद्धिक नेता हमेशा भद्रलोक (सज्जन) थे, जो वास्तव में उन लोगों का तिरस्कार करते थे जिनका वे प्रतिनिधित्व करने का दावा करते थे. वे अक्सर उन्हें अपमानजनक रूप से ‘छोटोलोक’ (निम्न वर्ग) कहते थे.”

कोलकाता के आस पास में क्लब अपने मुख्य उद्देश्य ‘अड्डा’ (इत्मीनान से बातचीत) और इनडोर गेम खेलने से कहीं आगे निकल गए | मनीषा मंडल | दिप्रिंट

यदि पंचायतों का उपयोग गांवों में जनाधार बढ़ाने के लिए किया गया, तो शहरों में ‘पारास’ (इलाकों) में स्थानीय क्लब राजनीतिक लामबंदी और यहां तक कि खुफिया जानकारी जुटाने के केंद्र बन गए.

कोलकाता के कई निवासियों का कहना है कि परिवार बड़े होकर सरस्वती, दुर्गा और काली पूजा जैसे अराजनीतिक आयोजनों के लिए इन क्लबों को ‘चंदा’ (दान) देते हैं. अक्सर, इसे पार्टी कार्यकर्ताओं द्वारा इकट्ठा किया जाता है.

बाजोरिया कहते हैं, वार्षिक सांस्कृतिक और युवा उत्सव, चाहे वह खेल हो, वाद-विवाद हो, नाटक हों, वामपंथी राजनीति के मुहावरों को मजबूत करने के लिए नियमित रूप से आयोजित किए जाते थे.

बाजोरिया कहते हैं, “उदाहरण के लिए, वामपंथी वार्षिक खेल आयोजित करते थे, जिससे भारी राजनीतिक लाभ मिलता था क्योंकि जब बच्चे खेलते थे, तो माता-पिता उसे देखते ही देखते थे जिन्हें फिर मार्क्स और वर्ग संघर्ष की महानता पर लेक्चर दिया जाता था. यह एक बहुत ही चतुराईपूर्ण ‘गैर-राजनीतिक’ पर राजनीतिक रणनीति थी.”

क्यों खत्म हुआ वामपंथ का अस्तित्व

बाजोरिया का दावा है कि वाम मोर्चा को इस बात का एहसास नहीं था कि उसकी वर्गगत राजनीति (क्लास पॉलिटिक्स) का प्रभाव कम होता जाएगा और अंततः यह नकारात्मक प्रभाव वाला हो जाएगा. “भूमि पुनर्वितरण, जिसे इतनी ईमानदारी से और सफलतापूर्वक लागू किया गया था, उसकी वजह से धीरे-धीरे भूमि जोत इतनी छोटी होने लगी कि कृषि करना व्यावहारिक नहीं रह गया… जल्द ही, यह उस बिंदु पर पहुंच गया जहां हर कोई सिर्फ जमीन बेचना चाहता था.”

लेकिन यह सिर्फ वाम मोर्चे की अपनी नीतियां नहीं थीं, जिसके कारण उनके द्वारा बनाई गई व्यवस्था की धज्जियां उड़ने लगीं. 1990 के दशक के मध्य तक, उदारीकरण का प्रभाव पूरे देश में दिखाई देने लगा और सरकार को औद्योगिक विकास और शहरी विकास को बढ़ावा देने की आवश्यकता महसूस होने लगी.

वर्किंग क्लास के साथ इसके आर्थिक अनुबंध (इकोनॉमिक कॉन्ट्रैक्ट) का पहला उल्लंघन 1996 में कोलकाता में हुए ‘ऑपरेशन सनशाइन’ के रूप में सामने आया. इसे बसु और मजूमदार ने “रेहड़ी-पटरी वालों और अनौपचारिक काम करने वालों को बाहर निकालने के लिए एक राज्य-प्रायोजित प्रयास” बताया ताकि ‘सार्वजनिक स्थान’ से अतिक्रमण को हटाया जा सके.

अगले दशक में यह दरार धीरे-धीरे चौड़ी होकर खाई में तब्दील हो गई. वाम मोर्चे के लगातार सातवीं बार सत्ता बरकरार रखने के कुछ महीनों बाद 2006 में एक महत्वपूर्ण मोड़ आया.

औद्योगीकरण का वादा करने वाले मुख्यमंत्री बुद्धदेव भट्टाचार्य ने घोषणा की कि टाटा को सिंगूर में नैनो के निर्माण के लिए एक संयंत्र स्थापित करने के लिए लगभग 1,000 एकड़ जमीन दी जाएगी, और नंदीग्राम में एक विशेष आर्थिक क्षेत्र के लिए अधिग्रहण भी किया जाएगा.

सिंगूर और नंदीग्राम में विरोध प्रदर्शन शुरू हुए, लेकिन बेरहमी से कुचल दिए गए. इसके दूरगामी परिणाम हुए: 2011 में, वाम मोर्चा सरकार को इतनी करारी हार मिली कि बुद्धदेव खुद अपने पूर्व मुख्य सचिव के सामने 16,000 से अधिक वोटों से हार गए.

नस्कर कहते हैं, ”वामपंथी अपने पीछे एक घायल समाज छोड़ कर गए थे. बंगाल के कुछ हिस्सों में विद्रोह की भावना व्याप्त थी, औद्योगिक और शैक्षणिक पिछड़ापन था, खेती पर संकट था…ममता ने अपनी गरीब-समर्थक, निम्नवर्गीय छवि के माध्यम से अपना आधार मजबूत किया और घायल समाज को मरहम लगाने का वादा किया.

दो सरकारों के कार्यकाल में सामाजिक परिवर्तन

जबकि उन्हें वाम मोर्चा से एक “पार्टी सोसायटी” विरासत में मिली थी, ममता के पास न तो वैचारिक सामंजस्य और प्रतिबद्धता थी, न ही संगठनात्मक संरचना – लगभग कॉर्पोरेटवादी – थी, जिसके माध्यम से वामपंथियों ने लोगों में अपनी जगह बनाई थी और अपना शासन कायम रखा था.

बाजोरिया कहते हैं, “वामपंथ के तहत, जब भ्रष्टाचार या हिंसा होती थी, तब भी पार्टी द्वारा इसकी योजना बनाई जाती थी. स्थानीय समिति, जो जिला समिति के अधीन थी, उसकी जानकारी के बिना कभी कुछ नहीं करती थी. इसी तरह, जिला समिति राज्य-स्तरीय समिति की जानकारी के बिना कुछ नहीं करेगी. उनकी गुंडागर्दी में भी अनुशासन था.”

बीजेपी नेता स्वपन दासगुप्ता इससे सहमत हैं. “वामपंथी अपने विचारों से प्रेरित थे और इसने राज्य को संचालित करने के तरीके में एक हद तक संगठनात्मक संरचना ला दी – उनके पास नियंत्रण करने का एक बहुत ही कठोर सिस्टम था जिसका उल्लंघन नहीं किया जा सकता था.”

निस्संदेह, इसका एक कम्युनिस्ट कारण भी है. ‘द गैंगस्टर स्टेट: द राइज़ एंड फ़ॉल ऑफ़ सीपीआई (एम) इन वेस्ट बंगाल’ के लेखक सौरज्य भौमिक ने दिप्रिंट को बताया कि पार्टी लेनिन के “लोकतांत्रिक केंद्रीयवाद” के लिए पूरी तरह से प्रतिबद्ध थी, जिसमें केंद्रीय नियंत्रण लोकतंत्र के ऊपर होता है.

होर्डिंग्स में पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी को इस महत्वपूर्ण चुनावी वर्ष में तृणमूल कांग्रेस के शुभंकर के रूप में दिखाया गया है | मनीषा मंडल | दिप्रिंट

दूसरी ओर, ममता वन-वूमन आर्मी, स्ट्रीट फाइटर के रूप में उभरीं, जिनका समर्थन करने वाला कोई संगठनात्मक ढांचा नहीं था. माना जाता है कि उनके सत्ता में आने के बाद वामपंथी कैडर सामूहिक रूप से टीएमसी में स्थानांतरित हो गए, लेकिन जिस संगठनात्मक ढांचे के माध्यम से उन्होंने वामपंथ के तहत काम किया था, वह खत्म हो गया.

जैसा कि जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय में राजनीति विज्ञान के प्रोफेसर द्वैपायन भट्टाचार्य ने द हिंदू के एक लेख में तर्क दिया है, “सुश्री बनर्जी को पहले ही अहसास हो गया था कि हालांकि उन्हें पार्टी सोसायटी के साथ काम करना है, लेकिन वह सीपीआई (एम) की तरह सरकार नहीं चला सकतीं. अपनी पार्टी में, उन्होंने बिना किसी हायरार्की के सारी पावर अपने ही हाथों में रखी.”

उन्होंने वामपंथ की संरचनात्मक संरचना को अपने नेताओं की ऐसी व्यवस्था से प्रतिस्थापित करने की कोशिश की जो चुनावों के दौरान उन्हें बाहुबल और धनबल प्रदान करते, लेकिन इसके बदले उन्हें अपने क्षेत्र को व्यक्तिगत जागीर की तरह चलाने की मांग की.

इस प्रकार भांगड़ में अराबुल इस्लाम, बीरभूम में अणुब्रत मंडल, संदेशखाली में शेख शाहजहां का उदय हुआ, जिन पर एक मजबूत राजनीतिक संगठन का अभाव होने की वजह से अपनी राजनीतिक शक्ति बनाए रखने के लिए ममता निर्भर हैं. कमजोर सामाजिक और आर्थिक पृष्ठभूमि से संबंध रखने वाले इनमें से ज्यादातर बाहुबली राजनीतिक नियंत्रण को मजबूत करने का काम करते हैं.

टीवी अभिनेता और सीपीआई (एम) समर्थक बादशाह मोइत्रा दावा करते हैं, “यहां तक कि वामपंथियों ने भी चुनाव आदि के दौरान कुछ मामलों में छोटे अपराधियों का इस्तेमाल किया…लेकिन उन्हें कभी भी राजनीतिक शक्ति नहीं दी गई. वे निर्णायक रूप से पार्टी के अधीन रहे, टीएमसी में, ये लोग बिना किसी वैचारिक उद्देश्य और पूरी छूट के साथ जो चाहें कर रहे हैं.”

भाजपा के स्वपन दासगुप्ता कहते हैं, “सीपीआई (एम) के तहत, व्यक्तिगत भ्रष्टाचार के मामले बहुत कम थे. इसके अलावा, शिक्षित मध्यम वर्ग से आने वाले उनके नेता खुद का व्यवसाय करने को लेकर बहुत उत्सुक नहीं थे, वहीं टीएमसी की छत्रछाया में उभरे ये नेता व्यवसायिक सोच वाले, महत्वाकांक्षी और नए-नए बने अमीर हैं… वे वामपंथ में भी थे, लेकिन वे पार्टी को नियंत्रित नहीं कर रहे थे. वे पार्टी से अपनी निकटता का उपयोग केवल अपने सीमित लाभ के लिए कर रहे थे. जबकि टीएमसी में वही पार्टी हैं.

बीरभूम जिले के एक किसान ने स्वीकार किया कि वाम मोर्चा के वर्षों में वे या तो पैसा देते थे या अपनी उपज का एक हिस्सा साझा करते थे, लेकिन इसकी मात्रा कम थी. वह कहते हैं, ”मेरे पास एक एकड़ से भी कम जमीन है और तीन साल पहले उस पर एक टीएमसी कार्यकर्ता ने कब्जा कर लिया था…अब, मैं अपनी जमीन पर किरायेदार की तरह काम करता हूं.” उन्होंने आगे कहा कि उनके जैसे ”कई अन्य लोग” भी हैं.

वामपंथ के तहत, पार्टी का नियंत्रण अधिक था और पैसे की राजनीति कम थी. अब, पार्टी का नियंत्रण कम है और पैसे की ताकत ज्यादा है, जिसका प्रयोग अक्सर गांवों में स्थानीय ताकतवर लोगों और शहरों में “सिंडिकेट” द्वारा चलाए जाने वाले व्यवसायों के जरिए किया जाता है.

बाजोरिया बताते हैं, “वामपंथ के तहत, रणनीति थी ‘कोम खेले, बेशी खाबी, बेशी खाबी, कोम खेले’ (यदि आप कम खाते हैं, तो आप लंबे समय तक खा सकते हैं, यदि आप बहुत अधिक खाते हैं, तो आप लंबे समय तक नहीं खा सकते हैं)… इसीलिए वे 34 सालों तक शासन कर सके, जबकि टीएमसी के सिस्टम की पहले से ही धज्जियां उड़ रही है).”

टीएमसी के ताकतवर लोगों की महत्वपूर्ण सामाजिक भूमिकाएं भी हैं जिन्हें वे निभाते भी हैं. इंद्रनील दासगुप्ता का तर्क है, “वे वही विवादों के लिए वही समाधान प्रदान करते हैं जो वामपंथी नेता पहले करते थे, लेकिन अधिक कीमत पर.”

लेकिन जैसा कि अर्थशास्त्री सुमन नाथ ने ‘एवरीडे पॉलिटिक्स एंड करप्शन इन वेस्ट बंगाल’ में तर्क दिया है, वे तेजी से समाधान प्रदान करने की भी कोशिश करते हैं. वाम मोर्चे के विपरीत, नाथ लिखते हैं, “टीएमसी लोगों को अपेक्षाकृत तेज़ी से चीजें पहुंचा सकती है, अक्सर भ्रष्ट तरीकों का इस्तेमाल करके. फिर भी, सेवाओं की त्वरित और सुनिश्चित डिलीवरी के कारण, एक बड़ा वर्ग इस तंत्र को मंजूरी देता है.”

इसके अलावा, ये ताकतवर लोग ऐसे राज्य में जहां औद्योगिक गिरावट हो रही है, वहां अनौपचारिक अर्थव्यवस्था में मुख्य रोजगार और संरक्षण देने वाले हैं.


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‘सिंडिकेट राज’

यह “सिस्टम” – जिसे प्रोफेसर भट्टाचार्य “फ़्रैंचाइज़ी राजनीति” कहते हैं, यानी जिसके तहत, स्थानीय नेता अपनी “सेवाओं” के बदले में ममता के नाम से अपनी “फ़्रैंचाइज़ी” चलाते हैं – मुख्य रूप से “सिंडिकेट सिस्टम” और “कट मनी” के आधार पर कार्य करता है.

वाम मोर्चा शासन का एक अवशेष, सिंडिकेट स्थानीय बेरोजगार युवाओं को बिल्डरों और रियल-एस्टेट डेवलपर्स को कॉन्स्ट्रक्शन मटीरियल की आपूर्ति के माध्यम से कुछ कमाई प्रदान करने के उद्देश्य से आया था. लेकिन पिछले कुछ वर्षों में, वे चमत्कारिक रूप से संगठित जबरन वसूली करने वाले रैकेट के रूप में बदल गए हैं.

मार्च में, प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने नादिया के कृष्णानगर में एक सार्वजनिक बैठक में टीएमसी की ‘तोलाबाजी’ का मुद्दा उठाया.

उन्होंने कहा, “टीएमसी की ‘तोलाबाजी’ राजनीति सब कुछ तय करती है. उनके नेता हर चीज में कटौती चाहते हैं. बंगाल में मनरेगा में करीब 25 लाख फर्जी जॉब कार्ड बनाये गये. यहां तक कि जिनका अभी जन्म भी नहीं हुआ है उनके नाम पर भी जॉब कार्ड हैं. टीएमसी के ‘तोलाबाज़’ नेताओं ने लोगों का पैसा लूटा,”

टीएमसी के राज्यसभा सांसद जवाहर सरकार का कहना है कि यह सिंडिकेट प्रणाली और स्थानीय ‘दादागिरी’ (धमकी), जिसे लोग बंगाल से जोड़ते हैं, मार्क्सवादी शासन के तहत स्थापित हो गई. पूर्व आईएएस अधिकारी ने कहा, “मान लीजिए कि कोई घर बना रहा है, तो बेरोजगार युवा आएंगे और कहेंगे, ‘अगर आप हमसे पत्थर या सीमेंट नहीं खरीदेंगे तो हम आपके ट्रकों को अंदर नहीं आने देंगे…’ मुझे यह बात पता है क्योंकि मैं उस समय सेवा में था.”

उन्होंने आगे कहा, यह मुद्दा व्यवस्थित विऔद्योगीकरण की एक बड़ी समस्या की ओर इशारा करता है, जिसके लिए किसी एक पार्टी को जिम्मेदार नहीं ठहराया जा सकता है.

उपर्युक्त कोलकाता स्थित व्यवसायी, जिन्होंने कहा कि कट मनी की संस्कृति पीढ़ियों से मौजूद है, उनका भी मानना है कि सत्ता में कोई भी पार्टी हो, समस्या बनी रहती है. “मेरे एक दोस्त, जिसने हाल ही में हावड़ा में एक फैक्ट्री खोली है, ने पार्टी अधिकारियों की बात मानने से इनकार कर दिया. जिस दिन उन्होंने पार्टी कार्यकर्ताओं को कट मनी देने से इनकार किया, उसी दिन तड़के कच्चे माल की आपूर्ति करने वाले टेम्पो के टायर पंक्चर कर दिए गए. यह दो साल पहले हुआ था.”

भाजपा अपनी स्थिति मजबूत करने की कोशिश के लिए, बंगाल के दशकों पुराने संस्थागत भ्रष्टाचार और अपराधीकरण में हिंदू-मुस्लिम मुद्दे को लाना चाहती है. शेख शाहजहां जैसे लोग, जिन पर बड़े पैमाने पर हिंदू एससी आबादी पर भयानक अत्याचार और अपराध करने का आरोप है, इस नैरेटिव में अच्छी तरह से फिट बैठते हैं.

लेकिन, मतीन का तर्क है कि इस तरह के नैरेटिव वास्तविक वजहों को समझदार लोगों की आंखों से ओझल रखने के लिए क्रिएट किए जा रहे हैं. जेयू के प्रोफेसर कहते हैं, “जिस तुष्टीकरण कहा जा रहा है वह वास्तव में छोटे मुस्लिम अपराधियों को हथियार के रूप में इस्तेमाल करने जैसा है, जिसके लिए टीएमसी को दोषी ठहराया जाता है…लेकिन हिंदू-मुस्लिम नैरेटिव जो नहीं बताती वह है भीतर की आर्थिक और राजनीतिक सड़ांध, जो शेख शाहजहां जैसे लोगों को सक्षम बनाती है.”

मनीषा मंडल के इनपुट के साथ

(इस फीचर को अंग्रेज़ी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें.)


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