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पानी नहीं जहर पी रहे हैं बिहार के इन जिलों के लोग, रिपोर्ट में हुआ चौंकाने वाला खुलासा

जल नल योजना अभी तक डोम टोली में नहीं पहुंची है जिसके कारण यहां 3000 रूपए प्रति महीना कमाने वाले परिवार को 600 रूपए पानी में खर्च करने पड़ते हैं.

मनौना गांव में डोम टोली की तस्वीर | फोटो: राहुल कुमार | दिप्रिंट

पटना: बिहार के सुपौल जिले की 6 वर्षीय सोनी कुमारी की दोनों किडनी खराब हो चुकी हैं. वो अभी पटना मेडिकल कॉलेज एंड हॉस्पिटल (पीएमसीएच) में भर्ती है. परिवार वालों का कहना है कि डॉक्टर ने किडनी खराब होने की कोई खास वजह नहीं बताई है.

सोनी के पिता रामजी कामत दिप्रिंट को बताते हैं, ‘मेरा घर सुपौल के निर्मली प्रखंड के डगमारा पंचायत में है. लगभग एक महीने पहले बच्ची की किडनी के बारे में मुझे सदर अस्पताल सुपौल से रिपोर्ट मिली. इसके तुरंत बाद मैं पटना आ गया. यहां बच्ची का डायलिसिस हो रहा है. डॉक्टर ने किडनी खराब होने की कोई खास वजह नहीं बताई लेकिन शुद्ध पानी पीने की हिदायत जरूर दी है. अभी तक हम लोग चापाकल का पानी पीते थे अब खरीद कर पिएंगे.’

सदर अस्पताल सुपौल की रिपोर्ट हैरान करने वाली

अब एक रिपोर्ट सदर अस्पताल सुपौल की भी सामने आई है जो बताती है कि 2020 के दिसंबर महीने में किडनी पेशेंट की संख्या 5 थी. इस साल जनवरी में 12,  फरवरी में 13, मार्च में 16, जून में 19, अक्टूबर में 26, नवंबर में 30 और अभी यानी दिसंबर महीने में 33 किडनी के पेशेंट सदर अस्पताल सुपौल में एडमिट हैं. सुपौल जिले के सदर अस्पताल में किडनी पेशेंट की संख्या लगातार बढ़ ही रही है.

सदर अस्पताल सुपौल में सिविल सर्जन, डॉ इन्द्रजीत प्रसाद दिप्रिंट को बताते हैं कि, ‘सदर अस्पताल सुपौल में अच्छी व्यवस्था होने के बाद भी शहर या जिले में ना के बराबर लोगों की भर्ती होती है. जिसके पास भी थोड़ा पैसा होता है वह पटना या फिर बाहर चले जाते हैं. इसके बावजूद भी सदर अस्पताल सुपौल में किडनी पेशेंट की संख्या दिनों दिन बढ़ती जा रही है.’

पूरे सुपौल में किडनी पेशेंट की संख्या कितनी है? इस सवाल के जवाब पर डॉ इंद्रजीत कहते हैं कि, ‘पूरे सुपौल जिले के पेशेंट का कोई सरकारी या निजी आंकड़ा अभी तक नहीं है क्योंकि लोग अलग-अलग अस्पतालों में जाकर इलाज कराते हैं.’

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हाल में स्वास्थ्य सेवा से जुड़े संगठनों और सरकारी रिपोर्ट के अनुसार जिला अस्पताल में कम से कम 220 बिस्तर होने चाहिए लेकिन सुपौल जिले के डायलिसिस सेंटर में सिर्फ 10 या 11 बिस्तर लगा हुए हैं. पूरे सदर अस्पताल में अगर आप कैंसर या टीवी जैसे खतरनाक बीमारी के पेशेंट को ढूंढेंगे तो एक भी नहीं मिलेगा.


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इस सब का कनेक्शन इस रिपोर्ट से तो नहीं

सोनी कुमारी की बीमारी सदर अस्पताल सुपौल की रिपोर्ट में किए गए दावों को सच साबित कर रही है.

पटना के फुलवारीशरीफ स्थित महावीर कैंसर संस्थान, यूनाइटेड किंगडम की यूनिवर्सिटी ऑफ मैनेचेस्टर, ब्रिटिश जियोलॉजिकल सोसाइटी और आईआईटी खड़गपुर के द्वारा संयुक्त रूप से डेढ़ साल तक किए गए शोध के मुताबिक बिहार की राजधानी पटना समेत 6 जिले (सुपौल नालंदा, नवादा, सारण, सिवान और गोपालगंज) के पानी में पहली बार यूरेनियम काफी अधिक मात्रा में मिली हैं. पहले भी इस जिले के पानी में आर्सेनिक की मात्रा हद से ज्यादा थी‌.

सुपौल के पानी में WHO द्वारा स्वीकृत 30 माइक्रोग्राम प्रति लीटर की मात्रा से करीब तीन गुना यूरेनियम है. 

बिहार में भूगर्भ पानी पर किए गए रिसर्च टीम का हिस्सा रहे डॉ अरुण कुमार महावीर कैंसर संस्थान में ही वरिष्ठ वैज्ञानिक हैं. वो दिप्रिंट को बताते हैं कि ‘बिहार में सबसे अधिक यूरेनियम की मात्रा सुपौल जिला में मिली है. जहां 80 माइक्रोग्राम यूरेनियम प्रति लीटर पानी में मिला है. वहीं सिवान जिले में यूरेनियम की मात्रा 50 माइक्रोग्राम है जबकि विश्व स्वास्थ्य संगठन के अनुसार प्रति लीटर पानी में 30 माइक्रोग्राम यूरेनियम होना चाहिए.’

वो आगे कहते हैं कि ‘यूरेनियम स्वास्थ्य के लिए काफी हानिकारक होती है. यह कैंसर और किडनी की बीमारी की एक बड़ी वजह है. इसके अलावा विश्व स्वास्थ्य संगठन के अनुसार बिहार में एक कार्सिनोजेन में 10-10 माइक्रोग्राम प्रति लीटर निर्धारित है जबकि बिहार में आर्सेनिक मौजूद बहुत है. इसलिए ग्रामीण आबादी का एक बड़ा हिस्सा जहरीला पानी पीने को मजबूर है.

बिहार के ग्रामीण क्षेत्रों में कैंसर के बढ़ते मरीज़ 

बिहार राज्य प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड के अध्यक्ष और महावीर कैंसर संस्थान और अनुसंधान केंद्र, पटना के विभागाध्यक्ष डॉ. अशोक कुमार घोष भी इस रिसर्च में शामिल थे. वो दिप्रिंट को बताते हैं कि ‘जिस सैंपल में यूरेनियम की मात्रा अधिक निकली उसमें आर्सेनिक की मात्रा नहीं है. जहां आर्सेनिक की मात्रा अधिक मिली वहां यूरेनियम की मात्रा नहीं मिली है. यह बिहार के लोगों के लिए स्वास्थ्य के दृष्टिकोण से बुरी खबर है क्योंकि यूरेनियम से किडनी और लीवर की बीमारियां बढ़ जाती हैं.’

वहीं डॉ. एसके झा, सह डायरेक्टर, कैंसर रोग विशेषज्ञ, आस्था कैंसर हॉस्पिटल दिप्रिंट को बताते हैं कि ‘बिहार के ग्रामीण क्षेत्रों में हाल के दौर में कैंसर के मरीजों की संख्या तेजी से बढ़ी है. साथ ही गंगा और सोन के तटवर्ती इलाकों के लोगों में गोल ब्लाडर के कैंसर के मामले बढ़े हैं. इसकी वजह पानी में यूरेनियम की मौजूदगी भी हो सकती है.’

हालांकि अभी तक इस बात को लेकर रिसर्च बिहार में नहीं किया गया है कि पानी मैं मौजूद आर्सेनिक और यूरेनियम के वजह से कितने लोगों को किडनी और कैंसर की बीमारी हुई है.

जल नल योजना कितनी कारगर है?

भारत सरकार के जल जीवन मिशन – हर घर जल कार्यक्रम के अनुसार 21 नवंबर, 2021 तक के आंकड़े के मुताबिक बिहार में 88.63 प्रतिशत घरों में नल के पानी की आपूर्ति है यानी बिहार के 17,220,634 घरों में से 15,262,678 घरों में नल कनेक्शन हैं.

बिहार कैंसर संस्थान के डॉ अरुण कहते हैं कि ‘जल नल योजना तभी कारगर हो सकती है जब जनता जागरूक हो. जल नल योजना के तहत देखा गया है कुछ दिन के बाद साफ पानी आना बंद हो जाता है. कई जगह ‘टोटी’ तोड़ दी जाती है जिसकी वजह से पानी बहुत बर्बाद होता है. ऐसे में जल नल योजना कारगर नहीं है. इस योजना की सबसे मुख्य समस्या यह है कि इसमें पानी की गुणवत्ता की बजाय मुख्य जोर हर गांव और घर में पानी पहुंचाने पर किया गया है.’

वहीं डॉ अशोक कुमार घोष बताते हैं कि ‘हमें दूषित पानी से आयरन और आर्सेनिक दोनों को हटाना होगा. इसके लिए कुएं का पानी सबसे बेहतरीन उपाय है लेकिन अब कुएं के पानी के पास जाएगा कौन?’

पानी एक ‘व्यवसाय’

बिहार के सुपौल जिले के मरौना गांव में लगभग 700 परिवार रहते हैं. इनमें से 600 से अधिक परिवार बीपीएल के अंदर आते हैं. इनका मुख्य पेशा खेती और मजदुरी है. इसके बावजूद इस गांव में लगभग 500 परिवार पानी खरीद कर पीते है.

इसी गांव में रहने वाले रामकिंकर महतो बताते हैं कि ‘दिल्ली जाकर हम मजदूरी करते हैं. गांव में पत्नी और 3 बच्चे हैं. बच्चे थे तो कुआं का पानी पीते थे फिर चापाकल का पानी पीते थे लेकिन लगभग एक साल पहले गांव में कई लोग खरीद कर पानी पीने लगे फिर पत्नी के कहने पर हमने भी शुरू कर दिया.

मनौना गांव के डोम टोली में 40 परिवार रहते हैं जो सुअर पाल कर अपना जीवन यापन करता हैं. यहां प्रत्येक परिवार की मासिक आमदनी लगभग ₹3000 प्रति महीना है. इसमें लगभग सभी परिवार पानी खरीद कर पीता है. वजह वहां के पानी में आयरन ज्यादा है और जल नल योजना अभी तक उनके टोली में नहीं पहुंची है. 3000 रूपए प्रति महीना कमाने वाले परिवार को 600 रूपए पानी में खर्च करने पड़ते हैं.

स्वास्थ्य विभाग की प्रतिक्रिया

स्वास्थ्य विभाग के मंत्री और उनसे जुड़े किसी भी अधिकारी ने खुलकर इस रिसर्च पर कुछ नहीं बोला. हालांकि कई मीडिया और करीबी सूत्रों ने दावा किया है कि इस रिपोर्ट के बाद सरकार भी अपने स्तर पर जांच करेगी. इससे पहले भी विभाग के द्वारा आर्सेनिक प्रभावित जिलों में राज्य सरकार ने स्वच्छ जलापूर्ति के लिए वाटर ट्रीटमेंट प्लांट (डब्ल्यूटीपी) स्थापित किया है ताकि लोगों तक भूगर्भ जल शुद्ध होकर पहुंचे.

(लेखक स्वतंत्र पत्रकार हैं.)


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