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‘पहले टावर, फिर पावर’, मगरमच्छ वाली नदी पार करते मतदान अधिकारी — यूपी के सीमावर्ती गांवों के कईं संघर्ष

ग्रामीणों ने मोबाइल फोन नेटवर्क नहीं मिलने पर मतदान का बहिष्कार करने की धमकी दी है. यह वोटिंग और सुरक्षा अधिकारियों के लिए भी एक मुद्दा है, जिन्हें जानकारी भेजने के लिए वायरलेस हेडसेट की ज़रूरत रहती है.

बर्दिया गांव के निवासी मोबाइल फोन नेटवर्क नहीं मिलने पर मतदान का बहिष्कार करने की धमकी दे रहे हैं | फोटो: प्रवीण जैन/दिप्रिंट
बर्दिया गांव के निवासी मोबाइल फोन नेटवर्क नहीं मिलने पर मतदान का बहिष्कार करने की धमकी दे रहे हैं | फोटो: प्रवीण जैन/दिप्रिंट

बहराईच: कोई मोबाइल नेटवर्क नहीं, गांव तक पहुंचने के लिए मुश्किल से एक नाव और घने जंगलों वाला रास्ता — तीन तरफ से नेपाल से घिरे हुए — उत्तर प्रदेश के भरथापुर गांव में घड़ी समय से पीछे जाती हुई लगती है.

भारत-नेपाल सीमा के करीब पांच और गांवों — कर्तनिया, अंबा, बर्दिया, फकीरपुरी और बिसुनापुर के साथ-साथ भरथापुर डिजिटल इंडिया और विकास के सपनों से कटा हुआ है.

इन गांवों में 13 मई को वोटिंग होगी.

भरथापुर पहुंचने का एकमात्र रास्ता गिरवा नदी के मगरमच्छ वाले पानी में नाव की सवारी है. यात्री सबसे पहले नदी के ठीक उस पार स्थित गांव कर्तनिया पहुंचते हैं. फिर, उन्हें भरथापुर पहुंचने के लिए छह किलोमीटर तक कतर्नियाघाट के घने जंगलों से होकर गुज़रना पड़ता है, जो कौरियाला नदी के तट पर स्थित है.

नाव से गिरवा नदी पार करते ग्रामीण | फोटो: प्रवीण जैन/दिप्रिंट

गिरवा के इस पार अम्बा, बरदिया, फकीरपुरी और बिसुनापुर भी स्थित हैं, जबकि भरथापुर में मोबाइल नेटवर्क कमज़ोर है, इन चार गांवों में कम्युनिकेशन ब्लैकआउट एक स्थायी समस्या है.

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लोकसभा चुनाव नज़दीक आते ही “टावर नहीं तो पावर नहीं” और “नेटवर्क नहीं तो वोट नहीं” जैसे नारे नज़र आने लगे. पिछले कुछ महीनों में निवासियों ने एकजुट होकर मोबाइल फोन नेटवर्क नहीं मिलने पर चुनाव बहिष्कार की चेतावनी दी है.

इन चार गांवों के साथ-साथ भरथापुर और कर्तनिया, जो उत्तर प्रदेश के बहराईच जिले का हिस्सा हैं, को ग्रिड पर लाना एक चुनौती है. इस क्षेत्र का बड़ा हिस्सा कतर्नियाघाट वन्यजीव अभयारण्य के अंतर्गत आता है — साल और सागौन के जंगलों, हरे-भरे घास के मैदानों, दलदलों और आर्द्रभूमि का मिश्रण. जंगल मगरमच्छों, बाघ, गैंडे, हाथी, गंगा डॉल्फिन, दलदली हिरण और गिद्धों का घर हैं, जो इस इलाके को जोखिम भरा बनाते हैं.

ज़रूरी सामान से लदी नाव गिरवा नदी को पार करते हुए | फोटो: प्रवीण जैन/दिप्रिंट

बहराइच जिले की पुलिस अधीक्षक (एसपी) आईपीएस वृंदा शुक्ला ने दिप्रिंट को बताया, “वन विभाग भी उत्साहपूर्वक अपने इलाके की रक्षा करते हैं, इसलिए विकास कार्य भी बहुत आसान नहीं है — इस क्षेत्र में सड़कें काटना आसान नहीं है…मोबाइल टावर स्थापित करना आसान नहीं है, इसलिए ऐसी चीज़ें जो उन्हें (गांवों को) करीब लाएंगी और ग्रिड पर प्रभाव डालना इतना आसान नहीं है.”

आईपीएस वृंदा शुक्ला, पुलिस अधीक्षक, जिला बहराईच, उत्तर प्रदेश | फोटो: प्रवीण जैन/दिप्रिंट

ऐसे परिदृश्य में इन गांवों में चुनाव कराना पूरी तरह से एक अलग कहानी है, जिसमें विशेष बैकपैक वायरलेस हैंडसेट, हैंडहेल्ड संचार सेट, चुनाव के दौरान संचार की एक “रिले” प्रणाली और मतदान दल — जिसमें मतदान अधिकारी, सुरक्षा अधिकारी और मजिस्ट्रेट शामिल हैं — नावों के जरिए यात्रा करते हैं और जंगल के माध्यम से गुज़रते हैं.


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नेपाल से नेटवर्क

अंबा, बर्दिया, फकीरपुरी और बिसुनपुर के चार गांवों में मुख्य रूप से थारू अनुसूचित जनजाति के लोग रहते हैं और एक छोटी मुस्लिम आबादी भी है.

भारत-नेपाल सीमा से लगभग दो किलोमीटर की दूरी पर स्थित इन गांवों को भारत से कोई मोबाइल नेटवर्क नहीं मिलता है, लेकिन कभी-कभी नेपाल से मिलता है.

बर्दिया गांव के निवासी अनीस अहमद ने कहा, “अगर इन गांवों में कोई अचानक बीमार हो जाता है, तो एम्बुलेंस को बुलाना वाकई मुश्किल हो जाता है. इस कारण कईं लोग दम तोड़ देते हैं.”

अहमद ने आगे कहा, “हमें नेपाली नेटवर्क का उपयोग करना पड़ता है. (चूंकि) सीमा करीब है, हम वहां जाते हैं और उन्हें (नेपाल अधिकारियों को) सूचित करते हैं. हम यहां जंगली जानवरों की तरह हैं. हमारे पास किसी तरह की सुविधाएं नहीं हैं.”

डिजिटल भारत के युग में घने जंगल से घिरे क्षेत्र में मोबाइल नेटवर्क की कमी के कारण निवासी सभी शैक्षिक, स्वास्थ्य और आजीविका संसाधनों से वंचित रह जाते हैं. कोई भी सूचना या आपदा अक्सर पैदल या साइकिल से पहुंचाई जाती है.

बर्दिया गांव के निवासी अकबर अली ने गांव के एकमात्र स्कूल, जो चुनाव के दौरान मतदान केंद्र में तब्दील होता है, के सामने खड़े होकर दिप्रिंट को बताया, “हमारी हालत शरणार्थियों से भी बदतर है…या बस यह घोषित कर दें कि हम आपके देश से नहीं हैं.”

फकीरपुरी गांव की सुमन सिंह ने कहा, “मोबाइल नेटवर्क की कमी के कारण गांव सामाजिक संबंधों से भी कटा रहता है. काम पर लंबे दिन के बाद, हम सभी महिलाएं अपने बच्चों या अपने पतियों से बात करने के बारे में सोचती हैं, जो (हमसे दूर) रहते हैं, लेकिन हम ऐसा नहीं कर पातीं. नेटवर्क ढूंढने के लिए हमें रात में ठंड में बहुत दूर तक चलना पड़ता है.”

कोई ओटीपी नहीं

देश के बाकी हिस्सों में निवासियों को सभी प्रकार की सेवाओं का लाभ उठाने के लिए वन-टाइम पासवर्ड (ओटीपी) मिलता है. हालांकि, जब बर्दिया गांव के श्रवण कुमार को अपनी बेटी को सर्जरी के लिए मेडिकल कॉलेज ले जाना पड़ा, तो उन्हें रजिस्ट्रेशन के लिए ओटीपी नहीं मिला, जिससे उन्हें बुरे सपने का अनुभव हुआ.

उन्होंने कहा, “हमें (किसी को मेडिकल कॉलेज में दाखिला दिलाने के लिए) रजिस्ट्रेशन करवाना पड़ता है. रजिस्ट्रेशन ऑनलाइन है, लेकिन, (मोबाइल फोन) नेटवर्क की कमी के कारण हमें ओटीपी नहीं मिल पाता है. मुझे अपना मोबाइल फोन बहराईच भेजना था और रजिस्ट्रेशन में ही एक हफ्ता लग गया.”

बर्दिया गांव में श्रवण कुमार | फोटो: प्रवीण जैन/दिप्रिंट

पुलिस अधिकारियों के मुताबिक, अंबा गांव में 1,832 मतदाता, बर्दिया में 1,984 मतदाता, फकीरपुरी में 1,584 और बिसुनपुर में 1,324 मतदाता हैं. इन गांवों के प्रधान तीन-चार महीने पहले मोबाइल नेटवर्क की मांग को लेकर एकजुट हुए थे.

कुमार, जो सामने से विरोध प्रदर्शन का नेतृत्व भी कर रहे हैं, ने कहा, “अगर हम चाहते हैं कि किसी को पेंशन मिले, या उनका आधार कार्ड बने, या उनका मोबाइल नंबर उनके बैंक खातों से लिंक हो, तो वे इनमें से कुछ भी नहीं कर सकते…अगर किसी को बच्चे को जन्म देना है, तो हम उन्हें अस्पताल ले जाने के लिए संघर्ष करते हैं . इसलिए, इस बार, हमने चुनावों का बहिष्कार करने का फैसला किया क्योंकि, हमने सोचा, यही एकमात्र तरीका है जिससे नेता लोग हमारी बात सुनेंगे.”

क्षेत्र में एक अकेला बीएसएनएल टावर है जिसे पिछले महीने ही ठीक किया गया था, जिससे गांव में थोड़ी राहत मिली, लेकिन ग्रामीणों ने कहा कि निजी नेटवर्क की उनकी मांग जारी रहेगी.

बर्दिया गांव के प्रधान श्याम लाल ने कहा, “हम अभी तक खुश नहीं हैं. एक बार नेटवर्क काम करना शुरू कर देगा तो हम खुश हो जाएंगे…और अगर नेटवर्क आएगा तभी हम वोट करेंगे.”

कुमार ने कहा, “पूरी अंबा न्याय पंचायत (ग्रामीण स्तर पर विवाद समाधान के लिए) इस बात पर सहमत है कि जब तक टावर नहीं मिल जाता, वो लोग वोट नहीं देंगे.”

बर्दियां गांव के निवासी | फोटो: प्रवीण जैन/दिप्रिंट

न शिक्षक, न डॉक्टर

भरथापुर गांव फूस की छतों से बने घरों वाला क्षेत्र है, जिसमें प्राथमिक विद्यालय हैं, जो गांव में एकमात्र पक्का निर्माण होने के कारण मतदान केंद्र के रूप में भी काम करता है.

फूस की छत वाले घरों में से एक के सामने खड़े होकर, 80-वर्षीया कलावती को रोते हुए सुना जा सकता है, “हम अपने दुखों से परेशान हैं… कोई भी हमारा दर्द नहीं समझता है.”

भरथापुर में कलावती एवं अन्य ग्रामीण | फोटो: प्रवीण जैन/दिप्रिंट

भरथापुर में शिक्षक अक्सर कक्षाओं में नहीं आते क्योंकि उन्हें गांव तक पहुंचने के लिए नदी और जंगल को पार करना पड़ता है.

निकटतम कार्यरत सरकारी अस्पताल 50 किलोमीटर से अधिक दूर, मोतीपुर में है. लगभग 23 किलोमीटर दूर बिसुनापुर में भी एक अस्पताल है, जिसमें आमतौर पर डॉक्टर नहीं होते हैं.

घरों में बिजली नहीं है और वे दैनिक बिजली के लिए छोटे सौर पैनलों पर निर्भर हैं.

गांल की महिलाएं अक्सर अपने मासिक मुफ्त राशन से चूक जाती हैं, इसलिए अब अधिकारी पानी और जंगल के रास्ते गांव तक राशन पहुंचाते हैं.

पूरा इलाका आसपास के छह ग्रामीणों को निराशा में छोड़ देता है. भरथापुर में भी हर साल कौरियाला नदी से बाढ़ आती है.

ग्रामीण लालता प्रसाद मौर्य ने दिप्रिंट को बताया, “हमारे चारों तरफ नदियां और जंगल हैं. वहां कोई रोशनी, आवास (घर), शौचालय या अस्पताल नहीं है. हमारे बच्चों का यहां कोई भविष्य नहीं है. उनकी ज़िंदगी बर्बाद हो गई है.”

हर तरफ वन्यजीवों से घिरे भरथापुर में पशु-मानव संघर्ष इसके निवासियों की ज़िंदगी में जटिलता की एक ओर परत जोड़ता है, जहां जंगली हाथी अक्सर जंगलों में घूमते देखे जाते हैं.

निवासी दूधनाथ मौर्य ने बताया, “जब कोई गांव को छोड़कर जाता है, तो उन्हें हैरानी होती है कि क्या वे ज़िंदा वापस आएंगे या रास्ते में हाथी उन्हें मार देगा.” उन्होंने कहा कि उन्हें स्थानीय विधायकों से बहुत कम मदद मिली है.

लालता प्रसाद ने चिल्लाते हुए कहा, “निकटतम अस्पताल 50 किमी दूर है. अगर कोई बीमार पड़ता है तो नदी पार करते समय रास्ते में ही उसकी मृत्यु हो जाती है. कभी-कभी नदी पार करने में दो-तीन घंटे लग जाते हैं. यहां कोई एम्बुलेंस नहीं आ सकती.”

कौरियाला नदी हर कुछ महीनों में गांव की ज़मीन को निगलती जा रही है. सूत्रों ने दिप्रिंट को बताया कि भरथापुर गांव के निवासियों को फिर से बसाने के प्रयास कई वर्षों से चल रहे हैं और ये प्रयास गति पकड़ रहे हैं. इसलिए, यह चुनाव गांव का आखिरी चुनाव हो सकता है.

दूधनाथ ने दावा किया कि उन्हें चुनाव के बाद फिर से बसाने का आश्वासन दिया गया है और वे मतदान के लिए तैयारी कर रहे हैं.

उन्होंने कहा, “हम सभी मतदान करेंगे. हम भारत में हैं, हम देश की नीतियों का पालन करेंगे, इसलिए वोट करेंगे.”

भरथापुर जिले का पहला मतदान केन्द्र एवं मतदेय स्थल है. भरथापुर और कर्तनिया गांवों में कुल मिलाकर 500 से अधिक वोट हैं. पुलिस अधिकारियों के अनुसार, कुल मिलाकर, इन छह गांवों में 7,200 से अधिक पात्र मतदाता हैं.


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खुली सीमा, कोई संचार नहीं

एसपी शुक्ला ने कहा कि पुलिसिंग के नजरिए से इन गांवों के लिए सबसे बड़ी चुनौती नेपाल से लगी खुली सीमा है.

“नेपाल के साथ हमारी लगभग 110 किलोमीटर लंबी सीमा है और उस लंबी सीमा पर, हमारे पास केवल जंगल और खेत हैं, ताकि लोग आसानी से आ सकें. किसी भी प्रकार की अवैध घुसपैठ और तस्करी को रोकने के लिए बहुत सारे तंत्र हैं, लेकिन ये उपाय कभी भी खुले क्षेत्र में पूर्ण नहीं हो सकते.”

शुक्ला ने कहा कि अधिकारियों को सुनिश्चित करना होगा कि चुनाव में बाधा डालने वाली कोई गतिविधि न हो और कानून एवं व्यवस्था की स्थिति खराब न हो.

इसके अलावा, खुली सीमा के दौरान मतदाता सूची को ध्यान से देखने की भी ज़रूरत पड़ती है क्योंकि इसमें हमेशा दोनों देशों के लोग होते हैं.

उनके अनुसार दूसरी चुनौती कम्युनिकेशन ब्लैकआउट है.

उन्होंने कहा, “इनमें से बहुत से गांव ग्रिड से बाहर हैं क्योंकि किसी भी भारतीय दूरसंचार प्रदाता के पास इस क्षेत्र में बहुत मजबूत नेटवर्क नहीं है.” उन्होंने कहा कि नेपाल से दूरसंचार नेटवर्क कभी-कभी इन गांवों तक पहुंचते हैं, लेकिन पुलिस अधिकारी उस नेटवर्क का इस्तेमाल नहीं कर सकते.”

उन्होंने दिप्रिंट को बताया कि चूंकि ऑप्टिकल फाइबर को इतने घने जंगल में नहीं रखा जा सकता है, इसलिए सशस्त्र सीमा बल (एसएसबी) चौकियों पर सैटेलाइट टावर स्थापित करने के लिए गृह मंत्रालय को एक प्रस्ताव भेजा गया है, जो पहले से ही सीमा पर मौजूद हैं.

कर्तनियाघाट के पास भारत-नेपाल सीमा पर एक सशस्त्र सीमा बल चेकपोस्ट | फोटो: प्रवीण जैन/दिप्रिंट

कानून प्रवर्तन अधिकारियों के लिए दूसरी सबसे बड़ी चुनौती चुनाव प्रक्रिया में कोई व्यवधान होने पर सूचना का त्वरित प्रसारण, उस पर प्रतिक्रिया करना और उसे यथाशीघ्र सुधारना है.

संचार वाले क्षेत्र

इन क्षेत्रों को “संचार वाले क्षेत्र” कहा जाता है. शुक्ला ने कहा कि चुनाव के दौरान इन इलाकों में अन्य जगहों की तुलना में कहीं ज्यादा भारी संख्या में बलों की तैनाती होती है.

उन्होंने दिप्रिंट को बताया, “चुनाव की अधिसूचना के दिन से हमने 13 अंतर्राष्ट्रीय सीमा चौकियां स्थापित की हैं. उन पर पुलिसकर्मी 24/7 तैनात रहते हैं और हमने उनमें से हर एक में सीसीटीवी कैमरे लगाने की कोशिश की है.”

इसके अलावा, एसएसबी भारत-नेपाल सीमा की रक्षा करती है और उनकी चौकियां जंगल और खेतों में हैं.

किसी भी मतदान या कानून और व्यवस्था की जानकारी के सुचारू प्रसारण के लिए छह गांवों में वायरलेस सेट का उपयोग किया जाएगा, जो “संचार वाले क्षेत्र” में आते हैं.

उन्होंने दिप्रिंट को बताया, “इस वायरलेस संचार के लिए…हमें लखनऊ में पुलिस मुख्यालय में रेडियो मुख्यालय से विशेष बैकपैक वायरलेस सेट दिए जाएंगे…हमारे पास बड़ी संख्या में हैंडहेल्ड सेट भी हैं.” उन्होंने बताया कि इन विशेष बैकपैक सेटों में से बहराइच को 30 मिलेंगे.

उन्होंने बताया, “हमने एक रिले प्रणाली स्थापित की है, जिसमें एक रेडियो कार्यालय दूसरे को सूचना संचारित करता है.”

एक अन्य पुलिस अधिकारी ने नाम न छापने की शर्त पर बताया कि भरथापुर को एक स्थिर संचार सेट मिलेगा, जो गांव से सबसे सुलभ सुजौली थाने के साथ एक कनेक्शन स्थापित करेगा.

उन्होंने कहा, “अगर कोई नेटवर्क नहीं है और कोई मुश्किल स्थिति आती है, तो थाने को स्टेटिक सेट के माध्यम से सूचित किया जाएगा.”

बिसुनपुर में एक स्थिर संचार सेट भी होगा, जो सुजौली थाने से जुड़ने में मदद करेगा. तीन अन्य गांवों अंबा, फकीरपुरी और बर्दिया में बैकपैक सेट होंगे, जिससे बिसुनपुर के साथ संबंध स्थापित होगा.

तीनों गांवों से कोई भी सूचना बिसुनपुर में बैकपैक सेट के माध्यम से सुजौली थाने, स्टेटिक सेट के माध्यम से पुलिस कंट्रोल रूम तक पहुंचेगी.

भरथापुर में चुनाव की तैयारी के लिए उन्होंने कहा, मतदान दल, जिनमें मतदान अधिकारी, सुरक्षा अधिकारी और एक मजिस्ट्रेट शामिल हैं, गांव तक पहुंचने के लिए नाव और जंगल का रास्ता अपनाएंगे.

(संपादन : फाल्गुनी शर्मा)

(इस ग्राउंड रिपोर्ट को अंग्रेज़ी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)


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